आचार्य नरेंद्र देव | Acharya Narendra Dev
आचार्य नरेंद्र देव (Acharya Narendra Dev) देश के चोटी के नेताओं में से थे। जिन लोगों ने देश में समाजवादी विचारधारा का प्रचार किया, भारतीय समाजवाद की रूपरेखा को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया | उनमें नरेंद्र देव का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। वह एक महान शिक्षाशास्त्री भी थे। काशी विद्यापीठ उनका मुख्य कार्यक्षेत्र रहा।
आचार्य नरेंद्र देव का जन्म
आचार्य नरेंद्र देव का जन्म कार्तिक शुक्ल अष्टमी सम्वत् १९४६ तद्नुसार ३० अक्तूबर १८८९ को सीतापुर में हुआ था आपका पैतृक घर फैजाबाद में था, किंतु उस समय आचार्य नरेंद्र देव के पिता श्री बलदेव प्रसाद सीतापुर में वकालत करते थे। आचार्य नरेंद्र देव के जन्म के दो वर्ष बाद उनके दादा की मृत्यु हो जाने के कारण उनके पिता को सीतापुर छोड़कर फैजाबाद जाना पड़ा और वह वहीं वकालत करने लगे।
श्री बलदेव प्रसाद धार्मिक प्रवृत्ति के थे। सनातन धर्म के उपदेशक संन्यासी और पंडित अक्सर उनके यहां आते रहते थे। वह कांग्रेस और समाज सुधार सम्मेलनों में भी दिलचस्पी लेते थे।
आचार्य नरेंद्र देव की शिक्षा
श्री नरेंद्र देव की प्रारंभिक शिक्षा घर में शुरू हुई थी और पाठ्य पुस्तकों को उनके पिता श्री बलदेव प्रसाद ने स्वयं तैयार किया था। पिताजी का उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा और उन्हें भारतीय संस्कृति का अच्छा ज्ञान हो गया। वह पिता के साथ नित्य संध्या-वंदन और भागवद्गीता का पाठ करते थे। उन्हें रुद्री और संपूर्ण गीता कंठस्थ थी। महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण उन्हें सस्वर वेदपाठ सिखाते थे।
श्री नरेंद्र देव ने घर पर ही तुलसीकृत रामायण और हिंदी में महाभारत पढ़ा। अपने पिता के प्रभाव से नरेंद्र देव ने बचपन में ही सच बोलने की आदत अपनाई। एक दिन जब एक सज्जन उनके मामा को पूछते घर पर आए, तो नरेंद्र देव ने घर में जाकर मामा को सूचना दी। मामा ने कहा, “जाकर कह दो मैं घर में नहीं हूं।” नरेंद्र देव ने यह संदेश ज्यों का त्यों कह दिया जिससे मामा बहुत नाराज हुए।
सन् १९०६ में जब आचार्य नरेंद्र देव दसवीं कक्षा में थे, स्वामी रामतीर्थ फैजाबाद आए और इनके घर पर ठहरे। उनके व्यक्तित्व का नरेंद्र देव पर बड़ा प्रभाव पडा और उन्होंने स्वामीजी के ग्रंथों का अध्ययन किया।
श्री नरेंद्र देव पढ़ने में तेज थे और अंग्रेजी और संस्कृत दोनों विषयों में अपनी कक्षा में सबसे आगे समझे जाते थे। १९०४ में जब पंडित मदन मोहन मालवीय फैजाबाद गए थे, उस समय नरेन्द्र देव ने उन्हें गीता का एकआध अध्याय सुनाया था। इस पर प्रसन्न होकर उन्होंने कहा था कि एंट्रेस पास कर प्रयाग आना और मेरे हिंदू बोर्डिंग हाउस में रहना। एंट्रेस पास कर श्री नरेंद्र देव इलाहाबाद पढ़ने गए और वहां वह हिंदु बोर्डिंग हाउस में रहने लगे।
आचार्य नरेंद्र देव का राजनीतिक जीवन
उन दिनों बंग-भंग विरोधी आंदोलन बड़े जोरों पर था। इलाहाबाद में श्री नरेद्र देव गरम दल वाले कांग्रेसी नेताओं से, विशेष रूप से लोकमान्य बालगंगाधर तिलक से, सबसे अधिक प्रभावित हुए। इलाहाबाद में रहते हुए श्री नरेंद्र देव और उनके छात्र सहयोगियों का संपर्क क्रांतिकारियों से भी हुआ। उन्होंने लाला हरदयाल, श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा और श्री दामोदर विनायक सावरकर के ग्रंथ और लेख पढ़े। श्री नरेंद्र देव शिक्षा के लिए विलायत जाना चाहते थे, लेकिन माता-पिता की सहमति न मिलने से वह विदेश नहीं जा सके। उनके दो मित्र विदेश गए, और वहां से वह क्रांतिकारी साहित्य भेजा करते थे। वह क्रांतिकारी दल के सदस्य तो नहीं थे, पर कई नेताओं से उनका परिचय था।
आचार्य नरेंद्र देव पर बौद्ध धर्म का प्रभाव
बी.ए. की डिग्री हासिल करने के बाद पुरातत्व पढ़ने के लिए वाराणसी के क्वींस कालेज में चले गए। पुरातत्व अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने संस्कृत और पाली का भी अध्ययन किया। इस समय श्री नरेंद्र देव के जीवन पर बौद्ध दर्शन का बड़ा प्रभाव पड़ा। आचार्य शातिदेव के बोधिचर्यावतार के अनेकों हृदयाग्राही पद उन्हें कंठस्थ थे। बौद्ध दर्शन में उनकी अभिरुचि जीवन के अंत तक बनी रही। बौद्ध दर्शन के विख्यात विद्वान पुर्से ने चीनी भाषा के ग्रंथ के आधार पर फ्रांसीसी भाषा में बौद् दार्शनिक वसुबंधु के अप्राप्त ग्रंथ “अभिधर्म कोश” पर टिप्पणियां लिखीं। “अभिधर्म कोश” का अनुवाद हिन्दुस्तानी अकादमी की ओर से आचार्यजी के निधन के बाद प्रकाशित हुआ। आचार्य नरेंद्र देव ने “बौद्ध धर्म” दर्शन नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ की भी रचना की। वह भी उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ पर साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कार दिया गया।
आचार्य नरेंद्र देव के कार्य
श्री नरेंद्र देव ने १९१३ में एम.ए. और १९१५ में एल.एल. बी. परीक्षा पास की। उसके बाद वह फैजाबाद में वकालत करने लगे। उन्हीं दिनों श्रीमती ऐनी बेसेंट और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने देश भर में होमरूल लीग का आंदोलन चलाया। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अपना आंदोलन महाराष्ट्र में सीमित रखा और शेष भारत में श्रीमती ऐनी बेसेंट की ओर से यह आंदोलन बुलाया गया | फैजाबाद में नरेंद्र देव ने होमरूल लीग की स्थापना की और वह उसके मंत्री चुने गए। उन्होंने तभी से कांग्रेस आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया और १९४८ तक प्रायः सभी कांग्रेस अधिवेशनों में उन्होंने हिस्सा लिया। १९४९ में सोशलिस्ट पार्टी के, कांग्रेस से अलग हो जाने के बाद वह भी कांग्रेस ने अलग हो गए।
सन् १९२१ के असहयोग आंदोलन में श्री नरेंद्र देव ने वकालत करना छोड़ दिया। उस समय जवाहरलाल नेहरू फैजाबाद आए और उन्होंने श्री नरेंद्र देव से कहा कि बनारस में विद्यापीठ खुलने जा रहा है और वहां के लोग तुम्हें चाहते है। इस प्रकार काशी विद्यापीठ के शुरू होते ही, नरेंद्र देव उसमें अध्यापन कार्य करने लगे। १९२६ में डाक्टर भगवान दास ने विद्यापीठ के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और श्री नरेंद्र देव को उसका अध्यक्ष बना दिया गया। उस समय नरेंद्र देव के नाम के पहले आचार्य शब्द जुड़ गया।
काशी विद्यापीठ तो राष्ट्रीय आंदोलन का अंग था, विद्यापीठ में अध्यापक और छात्र सभी अपने को राष्ट्रीय आंदोलन के सैनिक समझते थे। विद्यापीठ में आचार्यजी के प्रमुख सहयोगियों में श्रीयुत प्रकाश, डा. संपूर्णानंद, श्री बीरबल सिंह थे। वहां के अनेक छात्र बाद में राष्ट्रीय नेताओं के रूप में हमारे सामने आए।
आचार्य नरेंद्र देव प्रदेश कांग्रेस संगठन में बड़ी दिलचस्पी लेते थे। १९२६ में उनकी प्रेरणा से उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने किसानों के संबंध में एक प्रस्ताव पास किया जो उस समय काफी उग्र समझा जाता था। उस प्रस्ताव के समर्थकों में जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तमदास टंडन थे। रूस की बोल्शेविक क्रॉति की सफलता के बाद समाजवाद एक नवीन प्रभावशाली विचारधारा के रूप में सामान्य चर्चा का विषय बन गया था | श्री मानवेंद्र नाथ राय की पुस्तक “इंडिया इन ट्रांजीशन” ने लोगों के सम्मुख मार्क्सवादी ढंग से विश्लेषण की पद्धति रखी थी। उन्हीं दिनों आचार्य नरेंद्र देव ने समाजवाद का गंभीर अध्ययन शुरू कर दिया था।
आजादी की लड़ाई में उनका महत्वपूर्ण नेतृत्व और योगदान रहा। वह कांग्रेस आंदोलनों में १९३०-३१ और ३२ जेल गए। जेल में वह दमा रोग से सख्त बीमार हो गए थे। १९३४ में जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन समाप्त कर दिया, तो कांग्रेस में एक दल कौसिलों में जाकर वैधानिक उपायों पर जोर देने लगा | लेकिन समाजवादी विचारधारा के लोगों ने स्वातंत्र्य आंदोलन के लिए क्रांतिकारी नेतृत्व को संगठित करने के उद्देश्य से काग्रेस सोशलिष्ट पार्टी को जन्म दिया।
पटना में १९३४ में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता आचार्य नरेंद्र देव ने की थी। इसके बाद तो वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सर्वमान्य नेता हो गए। १९३६ में लखनऊ कांग्रेस के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें श्री जयप्रकाश नारायण और श्री अच्युत पटवर्द्धन को कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य मनोनीत किया।
१९३७ के आम चुनाव में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए कांग्रेस सदस्य चुने गए। उस समय आचार्य नरेंद्र देव प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उन्होंने मंत्रीमंडल में शामिल होने से इनकार कर दिया, क्योंकि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने मंत्रिमंडल में शामिल न होने का निश्चय किया था। द्वितीय महायुद्ध आरंभ होने पर आचार्य नरेंद्र देव ने युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध की संज्ञा दी,लेकिन क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होने के कारण, वह उस अवसर का लाभ उठाकर राष्ट्रीय आंदोलन को क्रांतिकारी आंदोलन के रूप में परिणत करना चाहते थे।
सन् १९४१ में नरेंद्र देव गिरफ्तार कर लिए गए। वह जेल में दमे की बीमारी से फिर पीड़ित हुए। दिसंबर १९४१ में जेल से रिहाई के बाद महात्मा गांधी ने उनको अपने पास रखा। करीब चार महीने वह गांधीजी के साथ रहे। सर स्टैफर्ड क्रिस जब भारतीय नेताओं से समझौते की बातचीत करने भारत आए थे, उस समय आचार्यजी गांधीजी के आश्रम में थे। गांधीजी ने “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आंदोलन की जो रूप रेखा बनाई, उसका आचार्य नरेंद्र देव ने पूरा समर्थन किया था। ९ अगस्त १९४२ को वह कांग्रेस कार्यसमिति के नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें अहमदनगर के किले में नज़र-बंद रखा गया।
कांग्रेस सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं ने १९४२ के आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। सन् १९४६ में आचार्य नरेंद्र देव फिर उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए और इस बार भी उन्होंने मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार कर दिया। १९४८ में सोशलिस्ट पार्टी ने कांग्रेस से अलग होने का निश्चय किया | उस निश्चय के अनुसार आचार्य नरेंद्र देव ने कांग्रेस की सदस्यता छोड़ दी और विधान सभा की सदस्यता से भी त्याग पत्र दे दिया।
कांग्रेस से निकलने के बाद पार्टी का नाम केवल सोशलिस्ट पार्टी रह गया। आचार्य नरेंद्र देव उसके अध्यक्ष चुने गए। पार्टी की ओर से वह विधानसभा के उपचुनाव में खड़े किए गए पर हार गए। १९५२ के आम चुनाव में भी वह विधान सभा का चुनाव हार गए थे। पार्टी के आदेश पर सन् १९५२ के आम चुनाव के बाद वह राज्य सभा की सदस्यता के लिए खड़े हुए और चुन लिए गए।
देश के किसान आंदोलन में उनकी बड़ी दिलचस्पी थी। १९३९ और १९४२ में उन्होंने अखिल भारतीय किसान सम्मेलनों की अध्यक्षता की। देशी रियासतों में जनता के लोकतांत्रिक आंदोलन से उनका गहरा संबंध था।
आचार्य नरेंद्र देव १९५४ से प्रजा सोशलिस्ट पार्ट के अध्यक्ष थे। १९५४ में डाक्टर राम मनोहर लोहिया ने पार्टी से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। १९५५ के दिसंबर महीने में गया में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अधिवेशन में आचार्य नरेंद्र देव द्वारा तैयार “थीसिस” स्वीकार की गई।
आचार्य नरेंद्र देव शिक्षाविद् के रूप मे
इसमें आचार्य नरेंद्र देव ने लोकतांत्रिक समाजवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। राजनीति में भाग लेने के अतिरिक्त वह शिक्षाविद् थे। उन्होंने उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा सुधार के सुझाव देने वाली दो समितियों की अध्यक्षता की। वह लखनऊ और काशी विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पदों पर भी रहे। कुलपति का आधा वेतन वह छात्रों में छात्रवृति के रूप में बांट देते थे।
एक सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में उन्होने चीन का यात्रा की और वह वहा की प्राथमिक शिक्षा और भूमि सुधार से विशेष रूप से प्रभावित हुए। १९५४ में उन्होंने यूरोप और इंग्लैंड की की यात्रा की।
आचार्य नरेंद्र देव की मृत्यु
१९ फरवरी १९५६ को आचार्य नरेंद्र देव का देहांत मद्रास के निकट पेन्डूराई में हो गया। उनके निधन से सारे देश में शोक छा गया।