आर्यभट्ट
जैसे
गणित के क्षेत्र मे भारत ने संसार को एक से नौ तक संख्याओ के अंकन की प्रणाली बताई, वैसे
ही उसने दशमलव का आविष्कार कर संसार मे बहुत बड़ा उपकार किया | दशमलव के आविष्कार का श्रेय जिस महापुरूष को है, उसका नाम आर्यभट्ट था |
आर्यभट्ट
से पूर्व वैदिक काल से ही ज्योतिष और गणित की ओर इस देश के
पंडितो का ध्यान गया था, और समय-समय पर इन दोनों की
क्षेत्रो ने उन्होने व्यापक आविष्कार किए थे | ऋंग्वेद
मे इस बात के बहुत से संकेत मिलते है की इस युग मे भी भारतीय आर्य गणित और ज्योतिष
के क्षेत्र मे कितने आगे बढ़ गए थे | उन्हे यह भी
मालूम था की सूर्य के प्रकाश से चंद्रमा का प्रकाश होता है | सुर्य के आयन-चलन के निरीक्षण से उन्हे ये मालूम हो जाता था की कब बसंत
आएगा और कब शरद ऋंतु का आरंभ होगा | कुछ पश्चिमी विद्धवानों का तो यहा
तक कहना है की उन्हे पृथ्वी की धुरी का भी ज्ञान था |
यजुर्वेद, ब्राम्हण
और उपनिषदों के काल मे ज्योतिष और गणित क्रमश: नक्षत्रविध्या, राशिविध्या और शुल्बविध्या (रेखागणित) के नाम से प्रसिद्ध हुए और वेदो के
आचार्यो के लिए इस विध्या का ज्ञान आवश्यक हो गया | सूत्रकाल मे तो गणित ज्योतिष वेदो का अंग माना जाने लगा और उस समय
से यह शास्त्र “वेदांग” के नाम से
प्रसिद्ध हो गया जिसका अर्थ हुआ वेदो का एक अंग |
आर्यभट्ट
के विषय मे हमे बहुत ही कम ज्ञान है | उनका जन्म-स्थान
कुसुमपुर या पाटलिपुत्र था, और उनके पैदा होने की तिथि
४७३ ई॰ मानी जाती है लेकिन आर्यभट्ट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह भी
मान्यता है | ४९९ ई॰ मे जब वह २६ वर्ष के थे
उन्होने लिखना आरंभ किया | उनके लिखे तीन ग्रंथ है
“आर्यभट्टीय”, जिसमे दस आर्य छंद
के दस श्लोक है, “दश-देशिका-सूत्र” जिसमे अपनी गणना प्रणाली की व्याख्या उन्होने की है और “आर्याष्टशत” जिसमे १०८ श्लोक है – ३३ श्लोको मे गणित, २५ श्लोको मे कलक्रिया या
काल नापने की विधि, शेष ५० श्लोको मे “गोला” अर्थात भूगोल का वर्णन | इन तीनों के अतिरिक्त उनकी और भी ग्रंथ हो सकती है |
यहा पर यह कह देना आवश्यक है की भारत के इतिहास मे पहली बार
आर्यभट्ट ने ज्योतिष से अलग कर गणित को अपने ग्रंथो मे स्वतंत्र स्थान दिया | आर्यभट्ट के अनुसार यह पृथ्वी गोलाकार थी और अपनी धुरी पर घूमती थी | मेरू पर्वत की उचाई मे आर्यभट्ट को विश्वास न था | उनके मत मे चंद्रग्रहण का कारण यह नही था की राहु चंद्रमा को ग्रस लेता है, वरन यह था की सूर्य और चंद्रमा के बीच मे पृथ्वी आ जाती है |
आर्यभट्ट द्दितीय आर्यभट्ट प्रथम से, जिनके बारे मे यहा बताया जा रहा है भिन्न थे | आर्यभट्ट द्दितीय ने दसवी शती ईसवी मे एक ग्रंथ लिखा जो “आर्य-सिद्धान्त” के नाम से प्रसिद्ध है | लेकिन आर्य सिद्धान्त मे जिस गणना प्रणाली का उल्लेख है उसमे और आर्यभट्ट
प्रथम की गणना प्रणाली मे बड़ा अंतर है | इसलिए
विद्धवानों का कहना है की आर्य-सिद्धान्त के लेखक आर्यभट्ट प्रथम से भिन्न थे |
आर्यभट्ट प्रथम ही ने, ज्योतिष
मे गणित को स्वतंत्र मान्यता दी | उनकी गणना
प्रणाली भी अनोखी थी | उन्होने १ से २५ तक की
संख्याओ को व्यक्त करने के लिए कवर्ग से लेकर पवर्ग तक व्यंजनो तक का व्याकरण किया
है और य से ह तक के व्यंजन, उनके अनुसार ३० से १०० तक
की संख्याओ के सूचक है