एस. सत्यमूर्ति | S. Satyamurti
देश की आजादी की लड़ाई में जिन वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उनमें एस. सत्यमूर्ति (S. Satyamurti) का नाम अमर रहेगा। वह एक महान वक्ता, विद्वान् तथा राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ, संसदीय प्रणाली के अच्छे पंडित भी थे ।
एस. सत्यमूर्ति का जन्म
एस. सत्यमूर्ति का जन्म तमिलनाडु राज्य के पुदुकोटाई नामक स्थान में १९ अगस्त १८८७ को हुआ था। वहां की प्रसिद्ध देवी सत्यमूर्ति के नाम पर ही उनका नाम भी रखा गया। पुदुकोटाई उन दिनों एक छोटी-सी रियासत थी। यहां पहले सत्यमूर्ति के पिता सुंदर शास्त्री वकालत करते थे। परंतु एक बार मजिस्ट्रेट के साथ कचहरी में झगड़ा होने के बाद उन्होंने इस पेशे को त्याग दिया और आजीविका का कोई दूसरा साधन ढूंढा।
सुंदर शास्त्री कट्टर हिंदू थे। वह सदा अपने घर पर धार्मिक उपदेश दिया करते थे और ब्राम्हणों की सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझते थे | सत्यमूर्ति भी बचपन से ही अपने पिता के साथ विभिन्न सभाओं में जाते और कहीं-कही भाषण भी देते। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने पहला भाषण दिया था। जब वह आठ वर्ष के थे, तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता कोई जायदाद नहीं छोड़ गए, परंतु सत्यमूर्ति को उनके अनेक गुण विरासत में प्राप्त हुए, जैसे निर्भयता, कानून रुचि, संस्कृत से प्रेम, ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा आदि।
विधवा माता शुभलक्ष्मी पर अपने चार लड़कों और तीन लड़कियों के भरण-पोषण का बोझ आ पड़ा। अपने बच्चों की शिक्षा के लिए उन्होंने अपने आभूषणों तक को बेच दिया। परिवार में सबसे बड़ा लड़का होने के नाते, सत्यमूर्ति को अपनी माता का सबसे अधिक प्यार मिला।
एस. सत्यमूर्ति की शिक्षा
सत्यमूर्ति पढ़ाई-लिखाई में बड़े तेज थे। पुदुकोटाई के राजा कालेज से उन्होंने बी. ए. किया और फिर मद्रास के क्रिश्चियन कालेज में भर्ती हो गए। वहां उन्होंने अपनी योग्यता के कारण अनेक पदक तथा पारितोषिक प्राप्त किए। उन दिनों बंग भंग के कारण सारे देश में एक आंदोलन बल रहा था। बंग-भंग के विरोध में अपने कालेज में हड़ताल करने का श्रेय भी सत्यमूर्ति का ही था। क्रिश्चियन कालेज में अपना अध्ययन समाप्त करके सत्यमूर्ति ला कालेज में भर्ती हुए और वहां से डिग्री लेने के बाद मद्रास उच्च न्यायलय में एडवोकेट तथा संघीय न्यायालय के सीनियर एडवोकेट बने।
एस. सत्यमूर्ति का राजनीतिक जीवन
परंतु धीरे-धीरे उनकी दिलचस्पी कानून के पेशे से हटने लगी और अंत में उन्होंने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया। सन् १९०८ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मद्रास में अधिवेशन हुआ तो सत्यमूर्ति ने उसमें स्वयं सेवक के रूप में कार्य किया। यह उनका कांग्रेस से पहला संपर्क था। बाद में तमिलनाडु में कंग्रेस के संगठन के लिए उन्होंने बड़ी मेहनत की और कुछ समय बाद प्रांतीय कांग्रेस समिति के मंत्री और बाद में उसके प्रधान बने। सन् १९१९ में कांग्रेस-प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में तथा १९२५ में स्वराज्य-पार्टी की ओर से वह इंग्लैंड भी गए।
सत्यमूर्ति का विश्वास था कि कांग्रेस को अपनी आजादी की लड़ाई विधान सभाओं में भी लड़नी चाहिए और बड़े-बड़े सरकारी पदों को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करके ही अंग्रेजों की इस धारणा को गलत साबित किया जा सकता है कि भारतीय अपना शासन स्वयं संभालने के योग्य नहीं हैं।
शुरू-शुरू में गांधीजी और कांग्रेस के दूसरे नेता उनकी इस बात से सहमत नहीं थे पर सत्यमूर्ति विधान सभाओं में प्रवेश करने की अपनी योजना का प्रचार करते रहे। एक बार पं. जवाहरलाल नेहरू ने, जो उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे, एक आम सभा में भाषण देते हुए कहा, “मैं अपनी पूरी शक्ति और प्रभाव के साथ विधान सभाओं में प्रवेश के प्रस्ताव का विरोध करूंगा।“ उसी सभा में सत्यमूर्ति ने अपने भाषण में कहा, “यद्यपि मेरा प्रभाव पंडितजी के समान नहीं है, फिर भी मैं अपनी संपूर्ण शक्ति से विधान सभाओं में प्रवेश के लिए लड़ता रहूंगा।“ अंत में कांग्रेस को अपना विचार बदलना पड़ा और उसने विधान सभाओं में प्रवेश करने का निश्चय किया।
सन् १९२३ से १९३० तक सत्यमूर्ति-मद्रास लेजिस्लेटिव कौसिल के सदस्य रहे। उस समय एस. सत्यमूर्ति स्वराज्य पार्टी के प्रतिनिधि थे। फिर, १९३५ में वह केंद्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य बने। सदस्य के रूप में सत्यमूर्ति ने अनेक प्रशंसनीय कार्य किए। उनकी एक-एक बात अकाट्य होती थी और सरकार के लिए उनका जवाब देना मुश्किल हो जाता था। सत्यमूर्ति की वाणी में भरपूर बल, ओज व माधुर्य था। अंग्रेज सरकार के बड़े-बड़े अधिकारी तथा विशेषज्ञ भी उनकी बातों को बड़ी शांति और सम्मान के साथ सुनते थे। गांधीजी ने एक बार कहा था कि विधान सभा में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने के लिए अकेले सत्यमूर्ति ही पर्याप्त हैं। उनका भाषण सुनते समय लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। चुनाव आंदोलन के दिनों में एक दिन में लगभग बीस सभाओं में भाषण देना उनके लिए साधारण बात थी।
एस. सत्यमूर्ति का साहित्य प्रेम
सत्यमूर्ति की प्रतिभा चहुंमुखी थी। वह संस्कृत साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे और अपने प्रत्येक भाषण में संस्कृत के सुंदर उद्धरण दिया करते थे। ललित कलाओं से भी उन्हें विशेष प्रेम था। अपनी युवावस्था में अंग्रेजी, तमिल और संस्कृत के नाटकों में वह भाग लेते थे। २५ वर्ष की आयु एक नाटक मंडली के कलाकार के रूप में उन्होंने श्रीलंका की यात्रा भी की थी। अभिनय में हिस्सा लेने के अतिरिक्त तमिलनाडु के थियेटरों को सुधारने और उन्हें आधुनिक रूप देने की दिशा में भी उन्होंने काफी काम किया। शास्त्रीय संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। मद्रास संगीत अकादमी के वह उपप्रधान थे। भारतनाट्यम को लोकप्रिय बनाने का भी उन्होंने भरसक प्रयत्न किया।
सत्यमूर्ति ने शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी कार्य किया। मद्रास विश्वविद्यालय की सीनेट तथा प्रांतीय विधान सभा के सदस्य के रूप में, उन्होंने शिक्षा की उन्नति के लिए अपना प्रयत्न बराबर जारी रखा।
एस. सत्यमूर्ति की मृत्यु
एस. सत्यमूर्ति में जीवन के आदर्शों के प्रति गहरी आस्था थी, इसलिए उन्होंने त्याग और आत्मसमर्पण का मार्ग चुना। देश की आजादी के लिए १९३१ से १९४२ के बीच वह चार बार जेल गए और हर बार उनका स्वास्थ्य गिरा। १९४२ में जब वह अंतिम बार जेल गए, तो नागपुर जेल से अमरावती जेल भेजे जाने में ९० मील का रास्ता उन्हें ट्रक से तय करना पड़ा। उनका दुर्बल शरीर इस कष्टमय यात्रा को सहन न कर सका और मार्ग में ही उनकी रीढ़ की हड्डी में काफी चोट आ गई। तब से वह निरंतर अस्वस्थ रहने लगे और २८ मार्च १९४३ को मद्रास के अस्पताल में उनका देहांत हो गया।