कार्ल मार्क्स का जीवन परिचय । Karl Marx Ka Jeevan Parichay

कार्ल मार्क्स का जीवन परिचय । Karl Marx Ka Jeevan Parichay

कुछ महापुरुषों का तप और त्याग इतना महान होता है, कि हम साधारण श्रेणी के मनुष्य उनकी कल्पना भी नहीं कर सकते । उनके त्यागों और बलिदानों का अमरतत्व, जहाँ अत्याचारियों को नष्ट करता है, वहाँ पीड़ितों और दुखियों के नवजीवन भी प्रदान करता है । अत्याचारियों के रक्त-रंजिश कलुषित कार्यो को संसार कुछ दिनों में भूल जाता है; पर उनके द्वारा सताये गये महापुरुषों को वह कभी नहीं भूलता ।

ऐसा ही एक बहुत सताया गया महापुरूष कार्ल मार्क्स (Karl Marx) थे, जो ऋषियों में एक महर्षि और योगियों में योगि-श्रेष्ठ थे । यह वही महर्षि कार्ल मार्क्स है, जो धनी पुरुष का पुत्र होने पर भी अत्यन्त गरीबी के साथ रहते थे । जो ग़रीबों के लिये पीड़ित रहते और सदैव उनके उद्धार के निमित्त उपाय सोचते और कार्य करते थे । यह वही कार्ल मार्क्स है, जिसके साम्यवाद और समष्टिवाद के सिद्धान्तों ने आज संसार के राज सिंहासनों को जड़ से ऐसा हिला दिया है, जैसे वे पहले कभी नहीं हिले थे और यह महर्षि मार्क्स के ही अपूर्व तप और त्याग का फल है,कि आज संसार के दीन श्रमजीवी और किसान अपने स्वर्गीय साम्यवादी राज्य के सुखों की कल्पना करना सीख रहे हैं ।

कार्ल मार्क्स (Karl Marx) पहले मनुष्य थे, जिसने गरीबी और अमीरी की समस्त समस्याओं का सभी दृष्टि-कोणों से विचार किया और फिर सम्राटों तथा अमीरों को कम्पायमान करने वाला यह निर्णय सुनाया –

कार्ल मार्क्स के अनमोल विचार


“अमीरों का और उनके पूँजीवाद का नाश करो; क्योंकि उन्हीं की अमीरी ने आज मानवता को पद-दलित कर रखा है । समस्त देशों के मजदुरो ! तुम सब आपस में मिल जाओ; क्योंकि पूँजीवाद को मिटाकर अब तुम्हें ही राज करना है !”

कार्ल मार्क्स की जीवनी


कार्ल मार्क्स (Karl Marx) एक जर्मन यहूदी वकील के पुत्र थे । कार्ल मार्क्स का जन्म ५ मई सन् १८१८ को जर्मनी के त्रेवेस नगर में हुआ था। उनके पिता एक विख्यात वकील थे, जिसने जवानी में ही ईसाई-धर्म स्वीकार कर लिया था । उनके सब पुत्रों में कार्ल मार्क्स (Karl Marx) अत्यन्त बुद्धिमान और तेजस्वी बालक थे ।

कार्ल मार्क्स की शिक्षा


कार्ल मार्क्स (Karl Marx) ने बलिन और बोन के विद्यालयों में विज्ञान-शास्त्र, दर्शन-शास्त्र और न्याय-शास्त्र का अध्ययन किया था । कार्ल मार्क्स (Karl Marx) प्रारम्भ में कविता और उपन्यास लिखा करते थे; परन्तु बाद में उन्होने अनुभव किया, कि वह चैन से कविता लिखने के लिये नहीं पैदा हुए है । इसके बाद उन्होने दर्शन-शास्त्र के अध्ययन में खुब मन लगाया और सुविख्यात जर्मन दार्शनिक हेजल के अनुयायी हुए; किन्तु बाद में उन्हे हेजल भी बहुत फीका मालूम हुआ और उन्होने उसे त्याग दिया ।

उनके दिल और दिमाग में न जाने कैसे-कैसे तूफान उठा करते थे, कि जिनके कारण वह हर समय एकान्त चिन्तामस्त और मौन बैठे रहते एवं भीतर-ही-भीतर तिलमिलाया करते थे, उन्होने यद्यपि कानूनी परीक्षा पास तो कर ली पर वह सरकारी अदालत में जाकर वकालत नही करते थे । वह एक धुरन्धर विद्वान् तो थे फिर भी वह कुछ भी धन उपार्जेन नहीं करते थे । फिर वह क्या करते थे ? बस, दिन-रात गरीबों के दुख देखते और उन दुःखों को दूर करने की चिन्ता किया करते थे ।

इसे भी पढ़े[छुपाएँ]

मार्क्सवाद क्या है | What is Marxism

किन्तु उसने वकील पिता उनकी इस बेकारी से बिलकुल असन्तुष्ट थे । सभी पिताओं की तरह मार्क्स के पिता भी यही चाहते थे , कि मेरा पुत्र नामी वकील होकर धन उपार्जन करे और खुब प्रसिद्ध होकर नाम पाये; परन्तु मार्क्स किसी और ही मार्ग पर जा रहे थे, जिसका पता उनके पिता को बिलकुल न था ।

एक बार कार्ल मार्क्स जब कहीं अन्यत्र गरीब मजदुरों के संगठन की स्कीमें सोच रहे थे , तब उनके पिता ने उसे बड़ी डॉट-फटकार की एक चिट्टी लिखी, जिसके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं :-

विज्ञान की समस्त शाखाओं का अध्ययन करने के बाद, रात-रात भर लेम्प का तेल जलाकर अध्ययन करके तुमने क्या किया ? तुम निरे जंगली हो गये । केवल एक ही बात, तुम्हारे विचारों के सम्बन्ध में अब तक मेरी समझ में न आयी और उस विषय पर तुम बड़ी चालाकी से चुप रहते हो ! अरे, मेरा मतलब है उस नापाक स्वर्ण से, जिसकी आवश्यकता एक परिवार वर्ग वाले के लिये कितनी है, यह तुमने अब तक न समझा ।………यद्यपि तुम नासमझो से यह कहा करते हो, कि मैं तुम्हारे विचार नहीं समझ सकता ।”

लेकिन, दीन दुखियों के हिमायती कार्ल मार्क्स इन बातों की क्या परवाह करते ? उनके अपने तरीके नहीं सुधारे; बल्कि उन्होने एक ऐसी क्रान्तिकारी दार्शनिक पुस्तक लिख डाली, जिससे उनकी “डाक्टरी” की उपाधि भी छिन जाती, जिस उपाधि के लिये उसके पिता ने इतना धन व्यय किया था । क्रान्तिकारी विचारों के कारण वह सरकारी अधिकारियों की दृष्टि में बदनाम हो गए और उसे प्रोफ़सरी का पद भी नहीं मिला ।

पुत्र की इस निष्फलता पर माता और पिता-दोनों दुखी हुए । उसके माता-पिता ने यह नहीं सोचा था, कि उनका पुत्र गरीबों के लिये स्वयं गरीबी और उपवास तथा कभी-कभी उपवास की कठिन पीड़ा सहन करने के लिये पैदा हुआ है । माता-पिता को दुखी छोड़कर पुत्र सारे संसार को सुखी करने का कार्य कर रहा है । जो मनुष्य दूसरों को सुखी करने के लिये पैदा हुआ है, वह अपने घरवालों को सुखी नहीं कर सकता, और जो केवल अपने घरवालों को सुखी करता है, वह दूसरों की सेवा नहीं कर सकता । किसी-न-किसी को अवश्य रोना पड़ेगा, जिसमें सब सुख की हँसी हँसें । कार्ल मार्क्स समस्त मानव-जाति का एक ऐसा ही अनन्य सेवक और त्राता था, जो स्वयं कष्ट झेलकर दूसरों को सुखी बनाने का ध्येय रखता था ।

कार्ल मार्क्स के आर्थिक विचार


देश में भूमि है, सम्पत्ति और धन है, और इस भूमि, सम्पत्ति तथा धन में प्रत्येक देशवासी का समान भाग है । तब क्या कारण है, कि थोड़े से मनुष्य तो खुब धनवान्, सम्पत्ति सम्पन्न, ज़मींदार बने हुए चैन कर रहे हैं और अधिकांश मनुष्य गरीबी के कष्ट भोग रहे हैं ? और भी देखिये । इसका क्या कारण है, कि एक मनुष्य बहुत अधिक धन संग्रह कर लेता है, और दुसरे नहीं कर सकते ? एक कुली या मजूर दिन-भर कठिन परिश्रम करने के बाद चार-छः आने पैसे मुश्किल से कमा सकता है, और एक कम्पनी का “शेयर होल्डर” (हिस्सेदार) घर में चैन से बैठा-बैठा लाखों-करोड़ों रुपये पैदा कर लेता है ! इसका क्या कारण है, कि किसान लोग दिन-भर धूप में कठिन परिश्रम करनेके चाद भी अपने लिये मुट्टी-भर अन्न नहीं पाते; पर उसी गाँव का एक महाजन सूदखोरी से खुब धन कमाता है । इसे आप कैसे समझेगे, कि समुद्र में गोता लगाकर, अपनी जान जोखिम में डालकर एक गोताखोर मोती निकालता है; पर वह उस मोती को कभी पहन नहीं पाता और उस मोती को बेचने वाला बम्बई या कलकत्ते का व्यापारी खुब मालामाल बना हुआ है ? इसी तरह जितने कठिन शारीरिक परिश्रम करने वाले मजदुर हैं, उन्हें बहुत ही कम मजदुरी क्यों मिलती है और कुछ भी परिश्रम न करने वाला एक पूँजीपति धनवान क्यों बना है ?

इन प्रश्नों का उत्तर चाहे अन्य लोग न दें, पर अमूल्य कार्ल मार्क्स के मस्तिष्क में यही सब प्रश्न घूमा करते थे । तर्क करने वालों से वह यही एक प्रश्न करता था- “युरोप की साधारण जनता इतनी गरीब क्यो है ? बैज्ञानिकों ने स्टीम और अन्य मशीनों का इसलिये आविष्कार किया, जिसमें मनुष्यों के कष्ट कम हों और जन-साधारण की गरीबी दूर हो; फिर भी आम जनता गरीब क्यों है ?” ऐसा प्रश्न करते हुए उसका मुख्य लक्ष्य उन देशों की ओर रहता था, जहाँ फैक्टिरियाँ और कल-कारखाने खुब खुले हैं । मार्क्स के सामने केवल आर्थिक गरीबी का प्रश्न था और इस गरीबी को दूर करने का ही उपाय वह हर समय सोचा करते थे; क्योंकि सब मनुष्यों की गरीबी जब तक दूर नहीं होगी, तब तक मनुष्य-जाति की-शान्तिदायी समाज की सभ्यता का विकास कदापि न होगा । आज कल की यह राक्षसी सभ्यता केवल थोड़े से चुने हुए अमीरों की सभ्यता है, जिससे जन-साधारण को कुछ भी लाभ नहीं पहुँचता । यह वर्तमान सभ्यता ऐेसी पैशाचिक है, कि इसके द्वारा आम जनता कुछली और पीसी जाती है । गरीबी के कारण जन-साधारण की नैतिकता उन्नति नहीं होने पाती सम् दासता की जड़ गरीबी है, और इसी गरीबी के कारण मनुष्य ठिंगने, कमज़ोर और मति-मन्द हो जाते हैं । ग़रीबी मानव-उन्नति और सभ्यता की सदा से शत्रु रही है । ऐसे भयंकर शत्रु का सर्वनाश कैसे किया जाये ? कार्ल मार्क्स इन्हीं विचारों में सदैव निमग्न रहते थे ।

कार्ल मार्क्स के उन्नतिशील विचारों तथा अकाट्य युक्तियों का जो मनुष्य सुनता, वही अवाक रह जाता था । उसकी युक्तियाँ नवीन मालुम होती थीं और विद्रोही तो उनके सामने से घबरा कर भागते थे । मार्क्स का अपूर्व त्याग और उसका नि:स्वार्थ भाव देख कर कितने ही शिक्षित मनुष्य उसकी बाते सुनने और मानने लगे । धीरे-धीरे उनका दल बढ़ने लगा । उनके साम्यवाद का सिंहनाद जर्मनी से बाहर अन्य देशों में भी गूँजने लगा । उस सिंहनाद से राजा, शासक और सरकारी कर्मचारी घबराने लगे; पर गरीब मनुष्य उसकी बातें बड़ी ही शान्ति से सुनते थे और मार्क्स को अपना सञ्चा हितैषी समझते थे ।

कार्ल मार्क्स का विवाह । कार्ल मार्क्स की शादी


सन् १८४३ ई० में कार्ल मार्क्स की शादी एक लड़की से हुई, जो उनकी बचपन की मित्र थी । इस सुन्दरी का नाम था-“श्रीमती जोना-बेरथा-जूली-जेनी बौन वेस्ट फ़्रेलन ।” यह बालिका एक धनाढ्य जर्मन-वंश की थी; पर वह मार्क्स को इतना प्रेम करती थी, कि उसने उसी दरिद्र कार्ल मार्क्स की शादी के साथ विवाह किया । उत्साहपुर्वक शादी हुई और पति-पत्नी का प्रेम समय के साथ अटल बना रहा; बल्कि कई अवसरों पर उस विदुषी ने अपने परम सात्विक पति को गलत मार्ग पर चलनेसे बचाया भी था । श्रीमती जेनी अपने पति से भी बढ़ कर निर्भीक साम्यवादी थी और कार्ल मार्क्स जब अत्यन्त विपत्तियों में पड़ने से निरालम्ब हो जाते, तब यही स्त्री उसे सान्त्वना देती थी । वह श्रमजीवियों के उद्देश्य को इतना मानती थी, कि उसने अपने दो पुत्र भी गरीबी के कारण बलिदान कर दिये; पर इस पुत्रशोक ने उसे सच्चे लक्ष्य से कभी विचलित न किया और न मार्क्स को ही विचलित होने दिया ।

कार्ल मार्क्स का पत्र सम्पादन


सन् १८४२ ई० में कार्ल मार्क्स ने अपने राजनीतिक और क्रान्तिकारी विचारों को फैलाने के लिये एक पत्र निकालने का कार्य किया । उस समय प्रुशिया के राजा ने अपने स्वेच्छाचारी शासन से जर्मनी में अन्धेर मचा रखा था । कठोर नौकरशाही विचारों की स्वतन्त्रता का क्रुर हाथों से दमन करती थी । जर्मनी के सभी विचारवान् पुरुष उस कुशासन से बचने के उपाय सोच रहे थे । उन लोगों ने “रेहनिश ज़ीटुङ्ग” (रेहनिश गज़ट) पत्र निकालना आरम्भ किया, जिसका प्रधान सम्पादक कार्ल मार्क्स नियुक्त किए गए । कार्ल मार्क्स उस पत्र का सम्पादन बड़ी योग्यता से किया और सरकार पर मार्मिक प्रहार करने आरम्भ किये । उनके लेखों से अधिकारिवर्ग बिगड़ उठे । सन् १८४३ के अप्रैल महीने में पत्र पर सरकार का कोप हुआ और पत्र बन्द कर दिया गया ।

कार्ल मार्क्स का फ्रांस जाना


अब मार्क्स ने देखा, कि वह जर्मनी में रह कर कुछ नहीं कर सकते; अत: उन्होने फ्रान्स जाने का विचार किया । उस समय फ्रान्स में भी साम्यवाद का जोर बढ़ रहा था । मार्क्स पेरिस में पहुँचे । उनके वहाँ पहुँचते ही फ्रेंच-राजधानी में एक नया जीवन आरम्भ हो गया । वहाँ वह एक नये सुधारक पत्र “वार-वाटंस”का सम्पादक हो गए । इस पत्र के द्वारा मार्क्स जर्मन-राजनीतिक आन्दोलन का प्रचार करने लगा । उन्होने जर्मन सरकार की कटु आलोचना करनी आरम्भ की । जर्मन-सरकार घबरायी और उसने फ्रेंच-सरकार से प्रार्थना की, कि पत्र का दमन किया जाये । उस समय फ्रान्स में लुई किलिप नामक राजा का शासन था, जो बड़ा ही दुष्ट और स्वेच्छाचारी था । स्वेच्छाचारी सरकारे एक-दूसरे को अनुगृहीत करना खुब जानती थी । फ्रेंच सरकार ने तुरन्त कार्ल मार्क्स को और उनके साथियो को फ्रान्स से निकल जाने की आज्ञा दी । मार्क्स ने विवश होकर अपनी स्त्री और बच्चे-सहित बेल्जियम की राजधानी ब्रुशेल्स में शरण ली । ब्रुशेल्स में अन्य जर्मन क्रान्तिकारियों से उनकी भेट हुई, जो उसी की तरह जर्मनी से निकाले गये थे । उन्होने वहां उस समय एशिया के तीन वर्ष तक जर्मन-क्रान्तिकारियों के सहयोग से मजदुरों का आन्दोलन जारी रखा और मजदुरों की एक समिति स्थापित की तथा एक समाचार-पत्र भी निकाला ।

मार्क्स मजदुरों की सभाओं में बड़े ओजस्वी भाषण देते थे और उन्हें राजनीति के गृढ़तम सिद्धान्त समझाते थे । कार्ल मार्क्स ने फ्रान्स और जर्मनी के क्रान्तिकारियों से पत्र-व्यवहार भी बराबर जारी रखा । साम्यवादी समितियों का भी उन्होने संगठन किया और उन बिखरी हुई समितियों का एक दल बनाया ।

कार्ल मार्क्स का साम्यवादी आंदोलन


लंदन में उस समय जर्मन-साम्यवादियों का एक ‘क्लब’ था, जिससे सम्बन्ध स्थापित करना उन्होने आवश्यक समझा । मार्क्स ने उन्हें लिखा, कि तुम सब ब्रुशेल्स मे चले आओ, तो मैं साम्यवादी आन्दोलन की देख-रेख कर सकूँ । इस प्रकार ब्रुशेल्स में बहु-संख्यक साम्यवादी एकत्र हो गये, और तथ कार्ल मार्क्स ने सन् १८४३ के फरवरी मास में वहाँ एक बृहत् साम्यवादी अधिवेशन किया । इसी अधिवेशन में जगविख्यात “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” प्रकाशित हुआ था और उसी दिन संसार को यह भी मालूम हुआ, कि फ्रान्स की राजधानी पेरिस में प्रजातन्त्रवादी क्रान्ति आरम्भ हो गयी और फ्रान्स का बादशाह लुई फिलिप (जिसने मार्क्स को पेरिस से निकाला था) बनावटी वेश से छिपकर पेरिस से भागा । जिस मन्त्री ने मार्क्स को पेरिस से निकल जाने की आज्ञा दी थी, उसे भी फ्रान्स छोड़ कर किसी अन्य देश में शरण लेनी पड़ी । पेरिस में प्रजातन्त्रवादी सरकार स्थापित हो गयी ।

इस बीच में जर्मन-सरकार ने बेलजियम सरकार को कई बार लिखा, कि मार्क्स को बेलजियम से निकाल दो; पर सफलता नहीं मिली । किन्तु इधर कार्ल मार्क्स के साम्यवादी सिद्धान्तों का असर श्रमजीवियों (मजदुरों और किसानों ) पर खुब पड़ रहा था । इस आन्दोलन को बढता हुआ देख, बेलजियम सरकार भी कुछ डर गयी और अन्त में सरकारी आज्ञा से मार्क्स पकड़ा गया, और बेलजियम से निकाल दिया गया । किन्तु इस में बार फ्रान्स में क्रान्ति होने के कारण मार्क्स के लिये वहाँ स्थान हो गया था । सचमुच, प्रजातन्त्रवादी फ्रेच सरकार के एक मन्त्री ने कार्ल मार्क्स को चिट्टी लिखकर प्रार्थना की, कि “आप श्रमजीवियों के बड़े ही वीर और सच्चे नेता है; इसलिये आप फ्रान्स आइये । हम लोग आप का स्वागत करेगे।” कार्ल मार्क्स उस देश में फिर लौटे, जहाँ से वह अत्याचारियों के द्वारा एक समय निकाले गए थे । इस बार वह पेरिस में कई महीने रहे; किन्तु उनका ध्यान स्वदेश की ओर लगा था । इसलिये वह जर्मनी चले गए । इस बार जर्मनी पहुँचने पर सन् १८४८ के जून महीने से उसने फिर एक संवाद-पत्र निकालना आरम्भ किया । किन्तु इस पत्र पर भी जर्मन सरकार का कोप हुआ; परन्तु पत्र निर्भीकता पूर्वक बराबर चलता रहा ।

सन् १८४८ ई० की गीष्म ऋतु में जर्मनी के कोलोन नगर में एक “डेमोक्राटिक कांग्रेस” का अधिवेशन आरम्भ हुआ । इस कांग्रेस की कार्रवाइयों में मार्क्स ने प्रमुख भाग लिया था । अमेरिकन साम्यवादी एलबर्ट त्रिसबेन भी उस कांग्रेस में गए थे और उसने मार्क्स का हुलिया इस प्रकार लिखा था :-

मैंने वहाँ श्रमजीवी आन्दोलन के अग्रणीय नेता श्रीमान् कार्ल मार्क्स को देखा । मार्क्स ने मजदुर और पूँजीवाद की समस्या पर जितना लिखा है, उतना किसी ने नहीं लिखा, और उसके लेखों का प्रभाव जितना युरोप के साम्यवादी आन्दोलन पर पड़ा, उतना किसी लेखक या नेता के लेखों का नहीं पड़ा है।उसकी आयु लगभग तीस वर्ष की थी । वह एक सुन्दर पुरुष है और उसका शरीर बहुत ही बलवान् है । उसमें शक्ति खूब भरी हुई मालूम होती थी और उसके संयम के पीछे प्रदीप्त आत्मा की अग्नि जल रही थी । वह पूँजीपतियों से बड़ी घृणा करता था; क्योंकि थे मजदुरों से काम लेते-लेते उन्हें पीस डालते हैं । पूँजीपतियों की आर्थिक पद्धति के विरुद्ध जिस समय वह जोश के साथ व्याख्यान दे रहा था, उस समय मुझे ध्यान होता था, कि एक दिन उसके सिद्धान्त सारे संसार को हिला देंगे । वह मनुष्य मुझे ईसाई-संसार के समस्त सम्राटो से बढ़कर ज़रूरी मालूम हुआ । पुराने जमाने में जैसे सेण्टपाल हो गया है, वैसा ही इस ज़माने में कार्ल मार्क्स है ।”

कार्ल मार्क्स का मुकदमा


मार्क्स का संवाद पत्र अधिक समय तक जर्मन सरकार के कोप से न बच सका । सरकारी कमचारियों की आलोचना करने के कारण सन् १८४६ ई की ७ फरवरी को मार्क्स और उसके कई सहयोगियों पर मुकदमा चलाया गया । मार्क्स ने अपनी पैरवी स्वयं की और एक घण्टे तक अदालत के कटघरे से व्याख्यान देते रहे । उन्होने मंत्रिमंडल की बड़ी कटुआलोचना करते हुए, अन्त मे कहा,-“जर्मनी की परिस्थिति इतनी खराब हो गयी है, कि अब हमारा यह कर्तव्य हो गया है, कि हम सरकार के प्रत्येक कार्य को बढ़े ही अविश्वास के साथ देखें और उसकी घोर निन्दा करें, संवाद पत्र का यह कर्त्तव्य है, कि वह पीड़ित मनुष्यों की ओर से आगे बढ़कर आन्दोलन में भाग ले, और सरकारी कुकर्मो की निन्दा करे ।“

जूरियों ने कार्ल मार्क्स और उसके साथियों को छोड़ दिया । पर दो ही दिन के बाद ९ फ़रवरी को वह फिर पकडे गए; इसलिये कि उन्होने जर्मनी के राजा के विरुद्ध सशस्त्र-विद्रोह करने के लिये जनता को उत्तेजना दी थी । यह एक बड़ा ही गम्भीर मामला था, और इसमें मार्क्स का बचना मुश्किल था ; किन्तु इस बार भी मार्क्स ने अपनी पैरवी में जो व्याख्यान दिया, उसका असर जूरी पर ऐसा पड़ा, कि उन्होंने उसे “निर्दोष” कह कर छोड़ दिया । इतना ही नहीं, उनमें से एक ने ऐसा महत्वपूर्णा क़ानूनी व्याख्यान देने के लिये ‘जूरी’ की ओर से मार्क्स को धन्यवाद दिया ।

इसके बाद सन् १८४९ ई के मई में ड्रेसडेन तथा राईन प्रदेश के अन्य स्थानों में दंगे और उपद्रव हुए । अब जर्मन-सरकार का धैर्य जाता रहा और उसने मार्क्स को एशिया से निकल जाने के लिये आदेश दिया । उसका पत्र भी दबा दिया गया। पत्र का अन्तिम अंक लाल रंग से छपा था, जिसमें बिदाई की एक ज़ोरदार कविता थी । सरकारी आज्ञा से कार्ल मार्क्स को स्वदेश छोड़ कर फिर पेरिस जाना पड़ा । उन दिनों का दुःखद वृत्तान्त श्रीमती मार्स इस प्रकार लिखती हैं:-

“पेरिस में हम लोग एक मास भी चैन न करने पाये, कि पुलिस का अफसर एक दिन सवेरे आया और उसने मार्क्स को सपरिवार पेरिस से २४ घण्टे के अन्दर चले जाने के लिये कहा । हमने फिर अपने थोड़े से बरतन आदि जमा किये और लन्दन रवाना हो गये ।”

कार्ल मार्क्स सन् १८४९ के जून महीने में लन्दन पहुँचे और इस बार श्रीमती मार्क्स के चौथा पुत्र पैदा हुए । इस घटना का उल्लेख करते हुए मार्क्स का जीवन-चरित्र लिखने वाला विद्यान् जोन स्पेगों लिखता है,-“ यह बच्चा जन्मते ही गरीबी का शिकार हुआ और उसी तरह शीघ्र ही मर गया, जिस तरह हज़ारों गरीब बचपन मर जाया करते हैं ।”

लंदन में निवास करते हुए मार्क्स अत्यन्त दरिद्रता का जीवन व्यतीत करते थे । कभी-कभी सूखी रोटी खाकर ही पति-पत्नी और बच्चे दिन बिता देते थे और कभी-कभी बच्चों का पेट भरने के लिये मार्क्स सूखी रोटी भी नहीं खाते थे, शीत से पीड़ित मार्क्स लन्दन के ब्रिटिश म्युज़ियम में चले जाते और वहीं सारा दिन बैठे पुस्तके अध्ययन किया करते थे । वह कुछ लेख आदि लिखकर कमा लेते थे ; पर यह आमदनी बहुत ही थोड़ी थी ।

एक बार मार्क्स ने गरीबी से बचनेके लिये रेलवे में क्लर्क की नौकरी करनी चाही; पर यह, कि मार्क्स को वह नौकरी भी न मिल सकी; क्योंकि उसके हाथ की लिखावट बहुत खराब थी । बाद में कार्ल मार्क्स एक पौंड प्रति साप्ताह पर “न्युयार्क ट्रिब्युन” पत्र का संवाददाता नियुक्त किए गए । महीनों इसी एक पौंड प्रति सप्ताह पर कार्ल मार्क्स ने कालक्षेप किया, वह जिस गरीबी के स्थान में रहते थे, वहीं बड़े-बड़े विद्वान् और प्रतिष्ठित लोग उससे मिलने आते और राजनीतिक तथा सामाजिक संगठन के उपाय उससे पूछते थे । श्रीमती मार्क्स उन दिनों की दुर्देशा का विवरण अपनी एक चिट्ठी में इस प्रकार लिखती हैं :-

“अरसों तक जिस आत्म-त्याग से हमने कालक्षेप किया है, उसके लिये हमने किसी से शिकायत नहीं की-उसने (पति ने ) पत्र की सब आमदनी काम करने वालों को दे दी और फिर वह देश से निकाल भी दिया गया । फ्राककोर्ट (जर्मनी के एक नगर) में मैंने अपने चाँदी के अन्तिम बरतन गिरबी रख दिये; कोलोन नगर में हमने अपना सब असबाब बेच डाला। तीन बच्चे थे, और चौथा होने वाला था । बच्चों के लिये दासी रखना असम्भव था । मेरी छाती और पीठ में बराबर पीड़ा रहती थी और नवजात शिशु पहले ही दिन से पीड़ित रहने लगा, एक दिन मकान की मालकिन आकर किराया माँगने लगी । हम उसे २५० सिक्के शीतकाल के किराये में दे चुके थे और शेष के लिये उससे ठेका कर लिया था । पर वह मुकर गयी और दो पुलिस के सिपाही लाकर मेरे बचे हुए माल असबाब को उसने ‘एटेच’ करा दिया । बिस्तर, कपडे, बच्चे का पालना और दो लड़कियों के खिलौने सब उसने ले लिये । खिलौने छीनते समय मेरी दोनों पुत्रियाँ रोने-चिह्लाने लगीं । मैं खाली ज़मीन पर अपने ठिठुरते हुए बच्चे को लिये पड़ी थी, दूसरे दिन हमको वह घर खाली कर देना पड़ा ।उस दिन बड़ी ठंड थी । वर्षा हो रही थी और आकाश में अन्धकार था । मेरे पति कमरा खोजने गये थे; पर जब लोग हमारे चार बच्चों की बात सुनते, तो स्थान देने के लिये कोई राज़ी नहीं होता था । अन्त में एक मित्र ने मदद की । अपना सब असवाब बेच डालने के बाद हम सब दूकानदारों के ऋण चुका सके । फिर हम लोग एक होटल में रहने चले गये.. हे सखी ! यह न समझना, कि इन कठोर यन्त्रणाओं के मिलने से हमारी आत्माएँ कुछ भी झुकी है! मैं यह खुब अच्छी तरह जानती हूँ, कि ये कष्ट और यन्त्रणाए सहन करने वाले हमही नहीं है और मुझे इसकी प्रसन्नता है कि मैं सौभाग्य-शालिनी हूँ; क्योंकि मेरे परम प्रिय पति मेरे साथ हैं।”

पर इससे भी दुःखद बात वह है, कुछ समय बाद उनकी एक लड़की की मृत्यु हो गयी और कफन तक के लिये उसके पास पैसा न था । श्रीमती मार्क्स लिखती हैं :-

“कठिन रोग-ग्रस्त रहने के बाद हमारी प्यारी बेटी फ्रাन्सिस मर गयी।.. ये दिन हमारे लिये अत्यन्त गरीबी के थे । हमारे किसी जर्मन मित्र ने हमारी सहायता न की । इसके बाद मैं एक फ्रेंच क्रान्तिकारी के पास गयी, जो हमारे निकट ही रहता था । मैंने उससे अपनी सब कठिनाइयाँ बयान कीं और उस बेचारे ने दया करके मुझे दो पौए्ड दे दिये । इसी से हमने अपने कलेजे के टुकड़े बच्चे के लिये कफ़न खरीदा, जिसमें लपेटकर उसे शान्ति की कब्र में सुला दिया ।”

गरीबी के दुःख दूर करने के लिये मार्क्स ने नौकरी करनी चाही; पर उसकी धर्म-परायणा स्री ने उसे यह कहकर रोका, कि “नौकरी करने से तुम अपने ऊँचे सिद्धान्तों से गिर जाओगे।” श्रीमती मार्क्स पति के सिद्धान्त की रक्षा के लिये कोई भी अनुचित कार्य पति से कराना न चाहती थीं । इतने कष्ट भोगने पर भी मार्क्स मजदुरों से कभी एक पैसा भी नहीं लेते थे । लंदन के मजदुरों की सभा में कार्ल मार्क्स प्रायः व्याख्यान दिया करते थे और मजदुर लोग उसे उन व्याख्यानों के लिये पुरस्कार देना भी चाहते थे; पर मार्क्स उसे लेने से इनकार कर देते थे; क्योंकि उसने यह प्रतिज्ञा कर ली थी, कि मजदुरों की सेवा के लिये वह कभी पुरस्कार न लेगा ।

सन् १८६४ में कार्ल मार्क्स ने अपने अन्य युरोपीय सहयोगियो के साथ मजदुरों की एक अन्तर्राष्ट्रीय समिति (इण्टर नेशनल बक्किङ्ग मेन्स एसोसिएशन) से स्थापित की । इस समिति का प्रभाव छ:-सात वर्षों तक युरोप की राजनीति पर रहा; इस समिति में इटालियन मजदुरों का प्रतिनिधि मेज़िनी भी सम्मिलित था; पर मोजिनी का ध्यान उस समय इटालियन मजदुरों की दुर्दशा की ओर अधिक था, और वह कार्ल मार्क्स के चरम कोटि के साम्यवादी सिद्धान्तों से सहमत न हुआ । इसलिये वह समितिसे कुछ दिनों के बाद अलग हो गयी । किन्तु मार्क्स की समिति उन्नति करती रही और फिर वह केवल “ईंटर नेशनल” नाम से प्रसिद्ध हुई ।

इस “इएटर नेशनल” शब्द का प्रभाव फ्रान्स, इटली, स्विट्जरलैण्ड के नवयुवकों पर जादू की तरह पड़ता था और इसी एक शब्द ने युरोपीय मजदुरों में पारस्परिक मेल और सद्भाव बढ़ाया । काल मार्क्सं की युद्ध ध्वनि थी,-“हे समस्त देशों के मजदुरो ! तुम सब आपस में एकता करो !” ( Workers of the world, unite ! ) इस वाक्य का असर समग्र युरोप में बिजली की तरह फैल गया ।

कार्ल मार्क्स की मृत्यु


सन १८८१ ई. में कार्ल मार्क्स की पतिप्राणा स्त्री का स्वर्गवास हो गया । दो वर्ष के बाद लंदन मे सन १८८३ ई की १४ मार्च को कार्ल मार्क्स की मृत्यु हो गयी । इस समय वह महापुरूष एक आाराम कु्र्सी पर लेटे थे और उनके होठो पर मुस्कुराहट थी । उन्होने जीवन के अन्तिम १३ वर्षो मे बीमारी बहुत उठायी । वह अधिक सोचते थे; अधिक लिखते और काम करते थे; पर गरीबी के कारण भोजन बहुत खराब खाते थे, इसलिये प्रायः बीमार रहा करते थे । त्यागी महर्षियो की तरह उसका सारा जीवन आत्म-त्याग और आत्म-बलिदान से भरा था ।

मृत्यु के बाद मार्क्स का शव हाईगेट के कब्रिस्तान में गाड दिया गया, जहाँ उसकी धर्म्पत्नि की कब्र थी । कुछ वर्ष के बाद मार्क्स के भक्त शिष्यों ने लिखा,- ” कार्ल मार्क्स का स्मारक पीतल, ताँबे या पत्थर की मूर्तियों में नहीं, बल्कि मानव-जाति के हृदय में बना है । समस्त विश्वव्यापी साम्यवादी आन्दोलन ही कार्ल मार्क्स का स्मारक है और साम्यवादियों की एक-एक विजय महर्षि कार्ल मार्क्स का स्मारक ऊचा उठाती है।”

कार्ल मार्क्स के सिद्धांत | Karl Marx Theory


हम यहाँ कार्ल मार्क्स के कुछ सिद्धान्तों पर विचार करेंगे, और देखेंगे, कि अमीरी और गरीबी की समस्याओ पर वह किस दृष्टि से विचार करते थे ।

इस संसार को सब मनुष्य अपनी-अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न रूप में देखते हैं । जैसे, धर्माचाप्य उपदेशक की दृष्टि मे संसार पापियों से भरा है, जूता सीने वाला सबके जूतो को फटा हुआ देखता है, जिन्हें सीने की जरूरत है और राजा के लिये संसार प्रजा से भरा हुआ, जिस पर शासन करना ही वह अपना एकमात्र ईश्वरीय धर्म समझे बैठा है, उसी तरह प्रत्येक मनुष्य संसार को अपनी ही दृष्टि से देखता है । कार्ल मार्क्स भी संसार को अपनी भिन्न दृष्टि से देखते थे, और समझते थे, कि संसार ग़रीब मनुष्यों से भरा हुआ है जिनकी गरीबी दूर करना ही उसका एक मात्र ध्येय था ।

मार्क्स के मुख्यतः तीन विचार थे । पहला यह कि देश की आर्थिक परिस्थिति का प्रभाव मनुष्यो को बनाने में पूर्ण रूप से पड़ता है और आर्थिक प्रभाव के कारण ही मनुष्यों को राजनीति, समाज-नीति और धर्म-नीति बनती-बिगड़ती है । इसे वह Materiaistic Conception of History अर्थात इतिहास को आर्थिक या भौतिक दृष्टि से समझना कहा करते थे । फिर इस भाव को वह इस प्रकार समझाते थे -“मानव-समाज विकास के कुछ नियमों को मानता है, और ये नियम देश की आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हैं ।” या यों समझिये, कि देश में जो कुछ धन सम्पत्ति है, उनका उपयोग करते हुए समाज बनता है । अब, समाज के सब मनुष्य सुखी तभी होंगे, जब देश में पैदा होने वाले अनाज, धन, सम्पत्ति का ठीक-ठीक बँटवारा किया जायेगा । यदि बँटवारा ठीक न होगा, तो समाज के कुछ मनुष्य तो बहुत सुखी रहेंगे; पर अधिकांश मनुष्य दुखी में कालक्षेप करेंगे, जो दशा आज सब देशों की है । मार्क्स इस आर्थिक परिस्थिति को सुधारने के लिये चिन्तित रहते थे ।

उनका दूसरा सिद्धान्त था,- – श्रेणी युद्ध का (The Theory of the Class struggle) मानव-समाज विभिन्न श्रेणीयो मे इस समय बँट गया है और उसमें भी मुख्यतः दो श्रेणियाँ हैं – अमीरों और गरीबों की । मार्स ने अपने “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” में लिखा था,स्वतन्त्र मनुष्य और दास, और नौकर तथा अत्याचारी दलित एक दूसरे के बिलकुल विरुद्ध हैं ये दोनों बराबर किसी-न-किसी रूप में, खुलकर और कभी गुप्त रूप से, विरोध करते रहते हैं…. इन दोनों की लड़ाई तब तक चलती रहेगी, जब तक कि आर्थिक सामजस्य सर्वत्र ठीक न हो जायेगा ।

कार्ल मार्क्स की तीसरी सफलता थी – विशेष लाभ धन की विवेचना करने में । उसने देखा, कि पूँजीपति कारोबारी नित्य ही धनी होता रहता है; क्योंकि वह अपने कारखाने में काम करने वाले मजदुरों को बहुत ही कम मजदुरी देता है । लाभ-धन जो पूँजीपति लेता है, उसका उसे कोई हक़ नहीं है; क्योंकि वह मजदुरों के परिश्रम का फल है । मार्क्स ने इस सिद्धान्त को समझाने में बड़ी निपुणता दिखायी है । उससे पहले कभी किसी मनुष्य ने इस विषय पर इतना गहन विचार न किया था ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *