कुमारजीव – kumarajiva
पिछले कुछ सालो से हम और चीनी “हिन्दी-चीनी भाई-भाई” के
नारे लगा रहे है, लेकिन हम मे से बहुत से लोगो को शायद इस बात का पता न हो की
दोनों देशो का यह भाईचारा कम से कम दो हजार वर्षो से चला आ रहा है | भारत ने चीन को बौद्ध धर्म दिया और भारतीय संस्कृति का प्रचार किया | इसका बहुत बड़ा श्रेय भारत और चीन के उन विद्वानों को है जिन्होने चीन मे
बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति को फैलाया |
इन भारतीय और चीनी यात्रियो और विद्वानो मे सबसे पहला नाम
कुमारजीव का है | कुमारजीव ने चीन मे बौद्ध धर्म को फैलाने का काम करने के साथ
ही साथ दोनों देशो के बीच मैत्री के संबंध स्थापित करने मे भी बड़ा योगदान दिया |
कुमारजीव ईसा के चौथी शताब्दी मे हुए थे |
कुमारजीव के पिता का नाम कुमाररायण था | कुमाररायण एक ऊचे
घराने मे पैदा हुए थे | वह भारत की किसी रियायत के दीवान थे | किसी कारण से उन्होने दीवानी का पद छोड दिया और इसके बाद वह भारत छोड़कर
कूची नगर के लिए चल पड़े |
कूची नगर मध्य एशिया मे तरिम नदी के उत्तर मे बसा था | तारीम घाटी के दक्षिण मे खोतान नगर स्थित था | इन दोनों ही नगरो मे
चीन जाने के मार्ग थे | दोनों ही नगर उस समय बौद्ध धर्म के
केंद्र माने जाते थे | चीनी यात्री फाहान ने अपनी यात्रा के
वर्णन मे खोतान और कूची नगरो का बड़ा ही मनोरंजक वर्णन किया है |
कूची पहुचने पर कुमाररायण वहा के बौद्ध विहार मे रहने लगे | धीरे धीरे
उनकी योग्यता की ख्याति फैलने लगी | उनकी तारीफ सुनकर कूची के
राजा ने कुमाररायण को अपने दरबार के राजगुरु के पद पर नियुक्त किए | कूची के राजघराने की “देवी” नाम की एक महिला से उनका विवाह हुआ | कुछ समय के बाद कुमाररायण की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया | यही बालक आगे चलकर कुमारजीव नामक महापुरूष बना |
कुमारजीव के जन्म के कुछ ही वर्षो बाद कुमाररायण की मृत्यु हो
गई | कुमारजीव की माता बौद्ध भिक्षुणी बन गई | जब कुमारजीव
कुछ बड़े हुए, तब उनकी माता उन्हे पढ़ने के लिए कश्मीर ले आई | कश्मीर उन दिनो बौद्ध मत वाले विद्वानो का केंद्र माना जाता था | वहा कुमारजीव ने बंधुदत्त नामक एक कश्मीरी विद्वान के पास संस्कृत भाषा और
बौद्ध दर्शन का गहरा अध्ययन किया | कुछ ही वर्षो मे कुमारजीव
की पंडिताई की जानकारी दूर दूर के देशो मे फ़ेल गई और पूर्वी तुर्किस्तान से बहुत से
बौद्ध मत के अनुयायी उनके पास आकार बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने लगे |
कश्मीर से लौटते समय कुमारजीव काशगर गए | वहा उनकी
भेट बुद्धयश से हुई और जल्द ही दोनों घनिष्ट मित्र बन गए | बुद्धयश
उस समय काशगर के राजमहल मे रहते थे | वह बौद्ध दर्शन के माने
हुए विद्वान थे | कुमारजीव और बुद्धयश ने कुछ बौद्ध शास्त्रो
का मिलकर अध्ययन किया | वहा अध्ययन समाप्त करके वह कूची को वापस
चले गए | कूची नरेश की चीन के सम्राट के अनबन हो गई, जिसके कारण चीनियों की एक बहुत बड़ी सेना ने कूची पर हमला किया | कुचीवालों ने बड़ी वीरता से अपनी रक्षा की, लेकिन अंत
मे उन्हे हार माननी पड़ी और कूची का राज्य चीन के साम्राज्य मे मिला लिया गया |
इन बंदियो मे कुमारजीव भी थे | यह घटना ३८३
ई॰ के आसपास की मानी जाती है | इन बंदीयो को चीनी लोग अपने साथ चीन ले गए | लेकिन कुमारजीव के बंदी के रूप मे चीन पहुचने के पहले उनकी ख्याति वहा फैल
चुकी थी | इसलिए कुमारजीव को प्राणदंड तो नही मिला, लेकिन उन्हे
चीन के राज्य के लिहांग-चो प्रदेश के राज्यपाल के यहा अट्ठारह वर्ष तक रहने के लिए
विवश होना पड़ा |
कुमारजीव के चीन पहुचने के बाद से उस देश मे बौद्ध धर्म के प्रचार
का नया युग आरंभ हुआ | कुमारजीव बौद्ध धर्म के सभी शाखाओ के बहुत अच्छे
ज्ञाता थे | संस्कृत और चीनी भाषाओ की उन्हे अच्छी समझ थी इस
प्रकार वह बौद्ध धर्म के मर्म को भी चीनी भाषा मे ठीक ठीक व्यक्त करने मे अपने से पहले
के अनुवादो की तुलना मे अधिक सफल हुए | इसी लिए बौद्ध ग्रंथो
के उनके अनुवाद चीन मे अधिक मान्य हुए |
कुमारजीव बौद्ध धर्म की एक शाखा महायान की एक उपशाखा “सर्वस्तिवाद”
के मानने वाले थे | उन्होने इस शाखा के लगभग सौ प्रसिद्ध ग्रंथो का चीनी भाषा मे अनुवाद
किया | “विनयपिटक” उनका पहला अनुवाद था | इसके बाद उन्होने “ब्रम्हाजाल सूत्र” नामक एक दूसरे ग्रंन्थ का संस्कृत भाषा
से चीनी भाषा मे अनुवाद किया |
अपनी मृत्यु से पहले ही कुमारजीव ने “सूत्राल्ंकार शास्त्र”
का भी चीनी भाषा मे अनुवाद किया | यही नही, कुमारजीव ने
चीन मे प्रचलित “ताओ” धर्म की व्याख्या भी अपने एक ग्रंथ मे की |
ग्रंथो के अनुवाद के साथ ही साथ कुमारजीव बौद्ध धर्म के महायान
संप्रदाय का अपने भाषाओ द्वारा प्रचार भी किया करते थे | बहुत से
चीनी बौद्ध उनको अपना गुरू मानते थे |
कुमारजीव महायान के सिद्धांतो को फैलाने मे जीवन भर परिश्रम
करते रहे | अपना देश छोडकर विदेश मे भारत की संस्कृति और बौद्ध धर्म का प्रचार
करते हुए उनकी मृत्यु हुई |