कुमारिल भट्ट जीवनी | Kumaril Bhatta

कुमारिल भट्ट जीवनी | Kumaril Bhatta

बौद्ध-युग में भारत बौद्ध-धर्मावलम्बियों से फैला था , पर गौतम बुद्ध के उच्चादर्श और आदेश बौद्धों ने भुला दिये थे और उनमें अनेक तरह की बूराइयाँ तथा कुरीतियाँ घुस पड़ी थीं । बौद्ध लोग आम तौर से वेदों का विरोध करते और वेदों की निन्दा करते थे । उन कट्टर बौद्धों के कार्यो से आम जनता की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी और यज्ञ आदि कर्म बन्द हो गये थे । वेदों की भूमि पर वेद अपमानित हो रहे थे । उस समय वेद मानने वालो सनातन धर्मावलम्बी जनता का अस्तित्व लुप्त हो गया था । ऐसे काल में कुमारिल भट्ट का जन्म (लगभग ६५० ई) जय मंडल नामक ग्राम में हुआ । उनके पिता का नाम यग्येश्वर भट्ट और माता का नाम चन्द्रकणा था । वे यजुर्वेदी ब्राह्मण थे । कुमारिल भट्ट योग्य गुरु के पास रहकर वेद वेदान्त और शास्त्रों का अध्ययन किया । उनकी विद्वत्ता और धर्म प्रवृत्ति के कारण उन्हें भट्ट पाद तथा सुब्रहाण्य भी कहते थे । कुमारिल के पास कितने ही शिष्य विद्याध्यन करने आते थे, जिनमें से उनके मुख्य चार शिष्य थे – विश्वरूप, प्रभाकर, पार्थसारथि और मुरारि मिश्र ।

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कुमारिल भट्ट वैदिक धर्म के अनन्य भक्त थे, बौद्ध युग में वेदों की गिरी हुई दशा देखकर उन्हें बड़ा ही दुख होता था, और जिस तरह हो, वे वेदों का फिर एक बार उद्धार करना चाहते थे । उन्होंने बौद्ध मत का खंडन करना निश्चय किया; पर बौद्ध धर्म के ग्रन्थों की उन्हें अच्छी जानकारी न थी । इसलिये वे एक बौद्ध धर्माचार्य श्रीनिकेतन के पास विद्यार्थी के रूप में गये और बौद्ध-धर्म का अध्ययन करने लगे । इसी तरह कुछ दिन व्यतीत हुए। एक दिन श्रीनिकेतन ने वेदों को दूषित बताया और वैदिक-मार्ग की बड़ी निन्दा की । कुमारिल से वेदों की निन्दा न सुनी गयी । वे गुरु के सामने तो कुछ न बोंले पर उनके नेत्रो में ऑसू भर आये । उनका यह भाव देखकर अन्य बौद्ध विद्यार्थी समझ गये, कि यह मनुष्य वेदों का मानने वाला है । उस दिन से उन पर बौद्धों की बड़ी ही कडी दॄष्टि रहने लगी ।

कुमारिल के बौद्ध सहपाठी उनसे चिढ़ने लगे और उन्हें पाठशाला से निकालने की युक्ति सोचने लगे । एक दिन कुमारिल एक मन्दिर की ऊँची दीवार पर बैठे विचारों में निमग्न थे । उसी समय कुछ बौद्ध विद्यार्थियो ने पहुँचकर उन्हें धक्का देकर गिरा दिया, जिसमें वे मर जायें । पर कुमारिल ने गिरते समय कहा – “यदि वेद सत्य होंगे, तो मेरी रक्षा होगी।” सचमुच उनकी रक्षा हुई और उनके प्राण बच गये, पर चोट लगने के कारण उनको एक ऑख फूट गयी । कुमारिल इसे अपना कर्म फल बताते हुए कहते, कि – “मैने यदि वेद सत्य होंगे” इस प्रकार का संशयात्मक वाक्य कहा, इसीलिये मुझे यह दंड मिला है।”

किन्तु इस दुर्घटना के बाद कुमारिल को बौद्ध धर्म की सत्यता में भारी सन्देह होने लगे । वे सोचते, कि “बुद्ध भगवान् तो दया और अहिंसा-धर्म के प्रचारक थे । पर इन बौद्ध ने मुझे धक्का देकर क्यों गिराया ? इसलिये, जिसमें मैं मर जाऊँ और उनके मतवाद का विरोध नहीं करूँ । क्या दया और अहिंसा का भाव अन्य धर्मावलम्बियों के साथ नहीं दिखाना चाहिये ? क्या शत्रु भी दया के पात्र नहीं हैं ? परन्तु, यह सब कुछ नहीं, बौद्ध लोग वेदों के विरोधी हैं इसलिये बड़े धूर्त और पाखंडी हैं । वे अन्य धर्मावलम्बियों को ठुकराकर ही रखना चाहते हैं । वे अपने पाखण्ड में सारे संसार को झुकाना चाहते हैं । पर मैं यथाशक्ति शीघ्र ही इन पाखंडियो के भ्रम-जाल से संसार को सावधान करूँगा ।”

यही सच सोचकर और मन में दृढ़ संकल्प करके वे वैदिक कर्मवाद का प्रचार करने लगे । इसी प्रचार-कार्य के सिलसिले में वे चम्पा-नगरी में जा पहुचे । वहाँ सुधन्वा नामक एक बौद्ध राजा था पर उसकी रानी वैदिक सिद्धान्तों को नहीं मानती थी । अपनी धुनके पक्के कुमरिल चम्पानगरी मे घुम-घूमकर बौद्धौ कि परिस्थितियां देखने लगे । इसके बाद किसी तरह राजा सुधन्वा के माली से उनकी भेट हो गयी । इससे कुमारिल को राजवंश की दशा ज्ञात हुई, यह भी मालूम हुआ की रानी वैदिक धर्मावलम्बी है । वह विष्णु का पुजन करती है और उसी के लिए माली तुलसी-पत्र और पुष्प चुन रहा है | यह सब जानकर कुमारिल को बड़ा आनंद हुआ । उन्होने उसी माली के द्वारा अपने आगमन की सूचना रानी को कहलवाया । रानी को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई की वेद मतावलम्बी कोई महात्मा आए है । पर वह उनसे उस समय न मिल सकी ।

एक दिन कुमारिल राज-भवन के नीचे से जा रहे थे । इतने में ही उनके कानों को चौंका देने वाले शब्द सुनाई दिये। उन्होंने ऊपर देखा, तो उन्हें झरोखे में रानी बैठी हुई दिखाई दी । वह बडे ही उदास ओर चिन्तामस मालूम होती थी । वह मुख से बारम्बार वही चौंका देने वाला वाक्य उच्चारण कर रही थी –

“किं करोमि कगच्छामि को वेदानुद्धरिष्यति ।”

अर्थात् – क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? वेदीं का उद्धार कौन करेगा ?” रानी के ये शब्द सुनकर कुमारिल के हृदय में भरा हुआ वेदाभिमान जाग उठा । वे गम्भीरता के साथ बोले –

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“मा विषाद वरारोहे ! भट्टाचार्योंस्मि भूतले ।“

अर्थात् – “हे रानी ! खेद न कर ! मैं कुमारिल भट्टाचार्य अभी इस पृथ्वी पर मौजूद हूँ ।”

कुमारिल के ये शब्द सुनकर रानी एकाएक चौंक उठी । उसने कुमारिल को श्रद्धा-भक्ति से देखा, और दासी भेजकर सारा दुखड़ा वर्णन करते हुए कहां -“महाराज ! मुझे बौद्ध धर्म मे दीक्षित करने के लिए बड़ा आग्रह करते है, अब तक तो मैं किसी तरह बच रही , पर राजा के दुराग़्रह से किसी-न-किसी दिन मुझे वैदिक धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण करना ही होगा। मेरे ऊपर इस समय धर्म-संकट का पहाड़ टूटा है।”

रानी के ये शब्द सुनकर कुमारिल को हर्ष और सन्तोष हुआ । उन्होंने उसे बड़ी सान्त्वना दी, और साथ ही बौद्ध धर्म की अनेक कमज़ोरियाँ तथा बुराइयों बतायीं । बौद्ध धर्म को खण्डन करने की अनेक उत्तम युक्तियाँ भी उन्होंने रानी को सिखा दीं । कुमारिल ने उससे कहा, कि “ये सब बातें और युक्तियाँ तुम प्रसंगवश कभी-कभी राजा को सुनाया करना, जिससे उनका चित्त बौद्ध धर्म से बदलकर वैदिक धर्म की ओर आये।”

रानी स्वयं पण्डिता थी । उसने कुमारिल की बतायी युक्तियाँ हृदयगत कर लीं । अब रानी जब अवसर पाती,तभी राजा सुधन्वा को बौद्ध-धर्म के विरुद्ध बातें सुनाने लगी । पहले तो राजा पर कोई प्रभाव न पड़ा; पर धीरे-धीरे कुछ दिनों के बाद राजा के मन में वैदिक धर्म का प्रभाव पड़ने लगा । बौद्ध धर्म के सारहीन सिद्धान्तों से उसकी श्रद्धा घटने लगी । रानी की युक्तियों ने अच्छा असर किया, और वेद-विरोधी राजा ने फिर वेदों का सम्मान किया । इतने दिनों में कुमारिल भट्ट ने बौद्ध धर्म के खंडन में सात ग्रन्थ तैयार कर लिये थे । उन्होंने अपने शिष्यों को भी बौद्धों का सामना करने के लिये तैयार कर लिया था । अब कुमारिल ने दृढ़तापूर्वक वैदिक धर्म का मण्डन और बौद्ध धर्म का खण्डन करना आरम्भ किया । वे घूम-घूम कर विभिन्न स्थानों में बौद्ध आचार्यों से शास्रार्थ करते और उन्हें परास्त करते थे । बौद्ध लोग उनकी अपूर्व तर्क-प्रणाली तथा खंडन-कला देखकर घबराने और भयमीत होने लगे ।

फिर एक दिन अनुकूल अवसर में कुमारिल भट्ट ने महाराज सुधन्वा से भेट की । सुधन्वा भी उनका शास्त्रार्थ सुनने के लिये पहले से ही उत्सुक था । राजा की आज्ञा से शास्त्रार्थ के लिये विराट सभा का आयोजन हुआ। बड़े-बड़े बौद्ध विद्वान् एवं धर्माचार्य निमन्त्रण देकर बुलाये गये । एक ओर बौद्ध धर्माचार्यो का दल बैठा था, और दूसरी ओर तपस्वी आचार्य कुमारिल अपने दल के साथ विराजमान थें । राज-सभा उत्सुक सदस्यों और दर्शकों से भरी थी। इसी समय निकट के ही एक आम के पेड से कोयल कूकने लगी । उसकी मनोहर कूक से सभा-मंडल गूँज उठा । उस समय आचार्य कुमारिल भट्ट ने एक श्लोक कहा – जिसका भावार्थ है,-“अरे कोयल ! मलिन, नींच और श्रुति-दूषक काक-कुल से यदि तेरा सम्बन्ध न हो, तो तू वास्तव में प्रशंसा के योग्य है |”

कुमारिल के इस श्लोक में जो व्यंग छिपा था, वह राजा और बौद्धों पर लागू होता था । राजा के लिये तो इस तरह, कि “हे राजन् ! मलिन, नीच और श्रुति-दूषक (वेद-निन्दक) लोगों से यदि तेरा सम्बन्ध न हो, तो तू अवश्य ही प्रशंसा के योग्य है।” किन्तु, इस इलोक के छन्द का गहरा हमला बौद्धों-पर था, जो मन-ही-मन कुमारिल पर बहुत ही चिढे। इसके बाद शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ । दोनों ओर से खण्डन-मण्डन होने लगा । बौद्ध आचार्यो ने वेद-विरुद्ध जितने तर्क सुनाये, जितनी बातें और युक्तिर्या कहीं, कुमारिल ने उन सभी का खणडन कर दिया । वेदोंके विरुद्ध बौद्धों की एक भी युक्ति न टिकने पायी । कुमारिल ने अपना महान् पाणिडित्य दर्शाते हुए वेदों की सभ्यता, सत्यता, न्याय-प्रियता, सद्गुण, कमवाद, कर्मफल, उपासना मुक्ति और व्यक्तिवाद आदि ऐसा सिद्ध किया, कि हर तरफ़ के हर मनुष्य को वैदिक ज्ञान की विमल मूर्ति के दर्शन होने लगे । राजा और दर्शक सभी कुमारिल की सत्यता तथा प्रखर प्रतिभा पर मोहित हो गये, और सबको यह अनुभूत हुआ, कि वेद ही वास्तव में मानवता का सर्वोच्च दिव्य ज्ञान है । उन्होंने सिद्ध कर दिया, कि बौद्धों के सिद्धान्त सर्वथा भ्रामक, भ्रान्ति-मूलक है और इसलिये अनिष्टकारी हैं । अतः इनका प्रचार वैदिक आर्यावर्त में कदापि न होना चाहिये ।

इस महासभा में बौद्ध आचार्यों की समस्त युक्तियाँ थोथीं और व्यर्थ सिद्ध हुई । वे अपने बौद्ध धर्म का जब बखान करते, तो कुमारिल उनकी ऐसी पोलें खोलते, कि बौद्ध धर्म, वेदों के सामने निर्जीव और मिथ्या प्रमाणित होता था । उन्होंने हर तरह वैदिक धर्म को ही सिद्ध किया और बताया, कि सार्वदेशिक एवं सावकालिक पूर्णा ज्ञान वेदों में ही है। सभा में हर तरफ से आचार्य कुमारिल के लिये साधुवाद हुआ ! कुमारिल ने यह भी सिद्ध किया, कि बौद्धों का आचरण पाप-पूर्ण है और उन्होंने इस पवित्र वैदिक भूमि में केवल पापाचार का प्रचार किया है । राजा उनके ज्ञानोपदेश से बहुत ही सन्तुष्ट हुआ । कुमारिल से शास्त्रार्थ में हारे हुए बौद्ध आचार्य लोग अपना-अपना मुँह लटकाये सभा से अपमानित रूप में चले गये और बौद्धों पर बड़ी-बड़ी लानतें और धिकारे पड़ीं ।

इसके बाद महाराज सुधन्वा भक्ति-पूर्वक कुमारिल भट्ट के शिष्य हो गये । बौद्धों को परास्त करने के लिये उन्होंने विभिन्न प्रान्तों में दौरे किये, और बौद्ध को परास्त किया । भारतीय जनता में फिर वैदिक धर्म का प्रचार किया गया । लोग आम तौर से बौद्ध धर्म को त्यागने और वैदिक धर्म को ग्रहण करनें लगे ।

वेदों का फिर प्रचार और मान हुआ । पुनः यज्ञादि कम होने और पुनः वेद-मन्त्रों की सुललित ज्ञानध्वनि से देश गूँजने लगा । यही आचार्य कुमारिल के जीवन का ध्येय था, जो उन्होंने बौद्धों को परास्त करके प्राप्त किया । उनका जीवन धन्य था ! वैसे पवित्र प्राणी केवल धर्म का हो उद्धार करने आते हैं ! बौद्धों को जब तक पूर्णातया परास्त न कर लिया, तब-तक कुमारिल ने शान्ति न ली। वे अपने ६३ वर्ष की आयु तक इसी ध्येय के लिये अविराम परिश्रम करते रहे ।

कुमारिल भट्ट का आत्मदाह


उनका जीवन परम पवित्र था । वेदों की सर्ववादि-सम्मत सत्यता का पालन और उसका अनुभव ही उनका व्यवहार था । वेदों और शास्त्रों की सच्चाई में उनका पूर्ण विश्वास था और उनका प्रत्येक कार्य उसी महान विश्वास के वशीभूत रहता था । शास्त्रों के मतानुसार कुमारिल ने अपने जीवन में एक बड़ा भारी पाप किया, जिसे गुरु-द्रोह कहना चाहिये । कुमारिल ने बौद्ध-गुरु से शिक्षा प्राप्त की थी, उसी के सहारे उन्होने बौद्धों को परास्त किया । कुमारिल ने सोचा की मैंने धोखा देकर उस बौद्ध-गुरू से शिक्षा प्राप्त की थी, इसलिए यह गुरू-द्रोह है । इस पाप के लिये कुमारिल ने प्रायश्चित्त करने का निश्चय किया । गुरूद्रोह के लिए शस्त्रानुसार तुषानल (भूसी की आग) में जल जाना चाहिये । अन्यथा उसकी मुक्ति नहीं है।

कुमारिल प्रायश्चित्त करने के लिये तैयार हुए इसके लिये वे प्रयाग गये । त्रिवेणी के तीर पर उन्होंने तुषाग्नि में प्रवेश किया । धधकती हुई भूसी की प्रचंड चिता में आचार्य कुमारिल अविचल शान्ति तथा दृढ़ता के साथ शान्त रूप में बैठे थे । उनके मुख-मंडल से शान्ति, कान्ति और तेज की चिनगारियाँ प्रस्फुट हो रही थीं । जिस समय कुमारिल भट्ट अग्नि में जल रहे थे, उसी समय वहाँ शंकराचार्य का प्रवेश हुआ । शंकराचार्य भी दक्षिण भारत में बौद्ध को परास्त करने का कार्य कर रहे थे। उन्होंने कुमारिल भट्ट की बड़ी प्रशंसा सुनी थी, और वे कुमारिल से मिलकर विचार-विनिमय करना चाहते थे । शंकराचार्य उस समय प्रयाग पहुँच गये थे । किन्तु उन्होंने जब सुना, कि कुमारिल तुषाग्नि में भस्म हो रहे हैं, तब वे दौड़े हुए त्रिवेणी तीर की ओर गये। उन्होंने देखा, कि धधकती हुई चिता में आचार्य कुमारिल शान्त मुद्रा में बैठे है । यह दृश्य देखकर शंकराचार्य चकित रह गये ।

उन्होंने कहा,-“धन्य है कुमारिल भट्ट ! वेदो का उद्धार करना ही तुम्हारा काम था। शास्त्रो के प्रति ऐसी अविचल श्रद्धा, अपूर्व कर्त्तव्य-निष्ठा और अगाध धर्म-परायणता इस प्रथ्वी-तल पर तुम्हारी ही देखी हैं । तुम धन्य हो । तुम्हारी जितनी प्रशंसा की जायें, कम है।”

विलम्ब करने का अधिक समय न था; क्योंकि चिता धधक रही थी । शंकराचार्य ने तत्काल शीघ्रता पूर्वक अपना परिचय दिया और कुमारिल से कहा, – आपसे शास्तार्थ करना चाहता था ।” शंकराचार्य ने उन्हें स्वरचित भाष्य आदि भी दिखाये ।

शंकराचार्य को देखकर कुमारिल बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने प्रायश्चित्त करने का कारण शंकराचार्य को बताया, और कहा, – “में तो शास्त्रार्थ करने में असमर्थ हूँ। आपका उद्देश्य निश्चय ही बड़ा उत्तम और पवित्र है । मै अपना काम कर चुका हूँ । अब आप अपने उद्देश्य की पुर्ति के लिए मेरे प्रधान शिष्य मण्डन मिश्र से मिलिये ।” कुमारिल ने शंकराचार्य से यह भी कहा – “जब तक मेरा शरीर भस्म न हो जाये, तब तक आप मेरे सामने ही खड़े रहिये । मुझे आप से बड़ा प्रेम है ; क्योंकि आपने वेदों के उद्धार का झंडा उठाया है।”

इसके बाद कुमारिल मौन हो गये । तुषाग्नि ज़ोरों से धधक रही थी, और पुण्यात्मा कुमारिल का शरीर भस्म हो रहा था । कुमारिल के भस्म हो जाने पर शंकराचार्य को बड़ा दुख हुआ । कुमारिल की श्रद्धा कर्मकांड पर अधिक थी, इसीलिये वे भस्म हुए । इसके बाद शंकराचार्य ने सोचा; कि जिस कर्मकांड के प्रति इतनी श्रद्धा रखते हुए कुमारिल भस्म हो गये, उसका अवश्य खंडन करना चाहिये । केवल कर्मकाण्ड के वशीभूत होकर मनुष्य अपने आपको जला डाले, यह बात शंकराचार्य को रुचिकर न मालूम हुई, इसलिये बाद में उन्होंने कर्म-काण्ड का खण्डन और ज्ञानकाण्ड का मण्डन किया ।

कुमारिल को हुए प्रायः ११०० वर्ष हो गये;पर उनके कार्य का फल आज भी विद्यमान है । वे अपने समय के अद्वितीय विद्वान तथा वैदिक और बौद्ध धर्म के पूर्ण ज्ञाता थे । बौद्ध-काल में वेदों की शिक्षा धरातल को पहुँच गयी थी; पर धन्य हैं, कुमारिल जिन्होंने अपने अपूर्व पाण्डित्य से वेदों का पुनः उद्धार किया । वेदभगवान के साथ कुमारिल का नाम भी सदा अमर रहेगा ।

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