कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर | Krishnaji Prabhakar Khadilkar
भातीय भाषाओं में मराठी की नाटक परंपरा बहुत समृद्ध है और मराठी नाटककारों में कृष्णाजी प्रभाकर यानी काका साहेब खाडिलकर का स्थान बहुत ऊंचा है । वह “नाट्याचार्य खाडिलकर” के नाम से प्रसिद्ध है। उनका नाम लेते ही “माऊ बंदकी”, “स्वयंवर” और “मानापमान” नामक लोकप्रिय मराठी नाटकों की याद आ जाती है।
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कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर की जीवनी
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर का जन्म
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर की शिक्षा
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर का पहला नाटक
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर और लोकमान्य तिलक
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर द्वारा केसरी का सम्पादन करना
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर के नाटक
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर पर राजद्रोह लगाना
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर का जन्म
काका साहेब के पिता प्रभाकर पंत महाराष्ट्र की सांगली रियासत में एक उच्च पद पर थे। उनकी पत्नी का नाम नर्मदाबाई था। प्रभाकर पंत की असमय में ही मृत्यु हो गई और उसके चार महीने बाद २५ नवंबर १८७२ को काका साहेब का जन्म हुआ। इस कारण नर्मदाबाई अपने नवजात बालक से बहुत नाराज थी, यहां तक कि उन्होंने जन्म के बाद काफी समय तक इस बालक को देखा तक भी नहीं। समय बीतने पर नर्मदाबाई का दुख कम होता गया। फिर वह अपने बच्चे की देखभाल करने लगी।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर की शिक्षा
बचपन में काका साहेब जैसे पढ़ाई में बहुत होशियार थे, वैसे ही नटखट भी थे। बहस करने और खेलने, दोनों में वह तेज थे। बचपन से ही उन्हें नाटक देखने का बड़ा शौक था। जब वह अंग्रेजी की तीसरी कक्षा में पढ़ते थे तब उन्होंने एक नाटक लिखा था । परंतु उनके घर वालों को यह पसंद नहीं था कि वह पढ़ाई छोड़कर नाटक लिखें, इसलिए उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिला।
उनकी मैट्रिक तक की पढ़ाई सांगली के हाईस्कूल में हुई। उनकी देशभक्ति और नाटक प्रेम की नींव इसी स्कूल में पड़ी। स्कूल में ही उन्होंने कालिदास, भवभूति जैसे महान संस्कृत नाटककारों के नाटक पढ़े।
सन् १८८९ में मैट्रिक की परीक्षा में पास होने के बाद उनका विवाह हो गया बाद में वह पूना में फर्गूयूसन कालेज में दाखिल हुए। वहां से वह डेक्कन कालेज चले गए, कालेज जीवन में उन्होंने अंग्रेजी नाटकों को मन लगाकर पढ़ा।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर का पहला नाटक
सन् १८९५ में बी.ए. होने के पश्चात वह सांगली के हाईस्कूल में पढ़ते हुए के शिक्षक बन गए | कालेज के पढ़ते हुए उन्होंने नाटक लिखने का जो संकल किया था, उसे “सवाई माधवराबांचा मृत्यु” नामक नाटक लिखकर पूरा किया। यद्यपि यह उनका पहला नाटक था फिर भी बहुत ही प्रभावशाली रहा।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर और लोकमान्य तिलक
दो साल बाद वह कानून की पढ़ाई करने के लिए बंबई गए। किंतु उनके जैसे तेजस्वी देशभक्त युवक का दिल पढ़ाई में नहीं लगता था। उन दिनों विष्णुशास्त्री चिपलूणकर की “निबंध माला” का युवकों पर बहुत प्रभाव पड़ रहा था। उनके ओजस्वी विचारों के कारण महाराष्ट्र में विदेशी राज के प्रति घृणा और स्वाधीनता प्राप्ति की तीव्र लालसा पैदा हो गई थी, इसलिए जब काका साहेब के सामने वकालत, पढ़ाई और समाज सेवा में से एक चुनाव की समस्या आई तो वह वकालत की परीक्षा न देकर लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित “केसरी” अखबार में काम करने के लिए पुना चले गए। तिलक ने “विविध ज्ञान विश्तार” नामक पत्रिका में प्रकाशित काका साहेब के लेख पढ़े थे और उन लेखों से प्रभावित हुए थे |
प्रारंभ में तिलक ने उन्हें “राष्ट्रीय महोत्सवों की आवश्यकता”, इस विषय पर लिखने को कहा। उनका यह पहला लेख इतना जोरदार था कि वह अग्रलेख की जगह छापा गया | उन दिनों में “केसरी” में काम करने में कोई आकर्षण नहीं था। वेतन मामूली था और पत्र पर हमेशा अंग्रेज सरकार की टेढ़ी नजर रहती थीं। १८९५ में महाराष्ट्र में बड़ा अकाल पड़ा । उस समय “केसरी” में लेख लिखकर उन्होंने विदेशी शासन की कठोर शब्दों में आलोचना की। जगह-जगह जाकर उन्होंने जोशीले भाषण दिए और लोगों में जागृति पैदा की।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर द्वारा केसरी का सम्पादन करना
सन् १८९७ में पूना में प्लेग की महामारी फैली । उन दिनों अंग्रेज अधिकारियों ने जो अत्याचार किए उनसे नाराज होकर एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी गई । परिणामतः अंग्रेज सरकार ने और भी अधिक अत्याचार करना शुरू कर दिया। सरकार की इस नीति की कड़ी आलोचना करने वाले लेख “केसरी” में प्रकाशित होने लगे। तब अंग्रेज सरकार ने तिलक पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर उन्हें कैद कर लिया और अदालत ने उन्हें डेढ़ साल के कठोर कारावास की सजा दी। जिस लेख के कारण उनको सजा हुई थी वह वस्तुतः काका साहेब ने ही लिखा था। जब तक तिलक कारावास में रहे काका साहेब ने ही “केसरी” की बागडोर संभाली। कारावास से मुक्त होने के पश्चात् तिलक ने काका साहेब के कार्य की और उनके तेजस्वी लेखों की बड़ी सराहना की |
इसके बाद वह खपरैल का कारखाना खोलने के सिलसिले में नेपाल गए। वस्तुतः इस बहाने से नेपाल जाकर वहां पर शस्त्रास्तत्रो का कारखाना शुरू करने की जिम्मेदारी उन पर डाली गई थी। कारखाने की जरूरी सामग्री जर्मनी से मंगवाई जा रही थी । किंतु अंग्रेज सरकार को उसका पता चल गया। काकाजी के एक दो सहयोगी पकड़े गए और काका साहेब को पूना लौटना पड़ा।
सन् १९०५ में वायसराय लार्ड कर्जन ने बंगाल के दो टूकड़े कर दिए। उसके खिलाफ “बंगभंग आंदोलन” शुरू हुआ। लार्ड कर्जन की तानाशाही बढ़ती गई। उसका विरोध करने के लिए बंगाल में कई गुप्त संस्थाएं बनी, जो छुपकर अंग्रेज सरकार के विरुद्ध पड्यंत्र रचने लगी।
भारतीय क्रांतिकारी बम-पिस्तौल आदि से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने लगे। क्रांतिकारियों के इन हिंसात्मक कार्यों का विवेचन करते हुए काका साहेब ने अपने लेखों में लिखा कि घटनाओं की पूरी जिम्मेदारी अंग्रेज सरकार और उसकी तानाशाही पर ही है। साथ ही साथ उन्होंने भारतीय लोगों को यह बताया कि दो-चार अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करने से कोई काम नहीं बनेगा। स्वराज्य प्राप्त करने के लिए पूरे समाज का जाग्रत होना आवश्यक है।
कीचक वध नाटक
काका साहेब के लेख और भाषण बड़े जोशीले और स्फूर्तिप्रद होते थे, लार्ड कर्जन की तानाशाही और बंगभंग आंदोलन की पृष्ठभूमि पर उन्होंने “कीचक वध” नाम का नाटक लिखा। यह रूपकात्मक नाटक बड़ा प्रभावी रहा। इस नाटक में कीचक के रूप में कर्जन का सैरंध्री के रूप में पीड़ित भारत माता का और सौदामिनी के रूप में अंग्रेजों की खुशामद करने वाले भारतीयों का चित्रण किया, लोगों के मन में विदेशी शासन के प्रति घृणा और स्वाधीनता अभिलाषा का निर्माण करने के लिए उन्होंने प्रचार-साधन के रूप में नाटक का पूरा-पूरा उपयोग किया।
इस नाटक का लोगों के मन पर इतना असर हुआ कि १९१० में अंग्रेज सरकार ने नाटक जब्त कर लिया।
सन् १९०८ में अंग्रेज सरकार ने तिलक को नजरबंद करके मांडले (बर्मा) भेज दिया । उनके पीछे काका साहेब ने संपादक के नाते “केसरी” का काम संभाला । इस अवधि में उन्होंने भाऊबंदकी नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक लिखा । यह नाटक नारायण राव पेशवा की हत्या की घटना पर आधारित है। इस नाटक में रामशास्त्री की भूमिका में हमें धीरोदात्त लोकमान्य तिलक का प्रतिबिंब दिखाई देता है । यह नाटक लिखने की प्रेरणा उन्हें १९०७ के कांग्रेस अधिवेशन से मिली, जहां नरम और गरम दलों में बहुत झगड़ा हुआ था ।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर के नाटक
इसके बाद उन्होंने “मानापमान”, “प्रेमध्वज”, “स्वयंवर”, “विद्याहरण” और “सत्वपरीक्षा” नामक नाटक लिखें। नाटकों की बिक्री से और उनके नाटक खेलने वाली कंपनियों से उन्हें जो पैसा मिलता था उसमें वह अपना गुजारा करते थे | “स्वयंवर” रुक्मिणी के स्वयंवर से संबंधित एक लोकप्रिय पौराणिक नाटक है और “मानापमान” एक लोकप्रिय संगीतप्रधान सामाजिक नाटक है।
केसरी से इस्तीफा देना
सन् १९२० में उनके पितृतुल्य बड़े भाई की मृत्यु हुई। अभी इस दुख को भी वह भूले न थे कि उसी वर्ष पहली अगस्त को तिलक का देहांत हो गया इन घटनाओं से उनके मन पर बड़ा आघात पहुंचा। अपने लेख में तिलक को श्रद्धांजलि अर्पित करके १० अगस्त को उन्होंने “केसरी” से इस्तीफा दे दिया।
लोकमान्य पत्र का संपादन
बाद में वह पूना से बंबई चले गए और वह “लोकमान्य पब्लिशिंग कंपनी लिमिटेड” द्वारा प्रकाशित “लोकमान्य” पत्र के संपादक बन गए | यह पत्र नया था इसलिए उन्हें बहुत परिश्रम करना पड़ता था। वह वेतन भी पूरा नहीं लेते थे ।
लोकमान्य तिलक के पश्चात् गांधी युग शुरू हुआ। काका साहेब का विश्वास था कि गांधीजी के अहिंसात्मक असहयोग के मार्ग को अपना कर स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है।
नवाकाल नामक पत्र की स्थापना
लोकमान्य द्वारा उन्होंने गांधीजी का खूब समर्थन किया। किंतु कुछ दिन के बाद पत्र केव्यवस्थापकीय विभाग से इस विषय पर उनका मतभेद हो गया और उन्होंने संपादक पद से त्यागपत्र दे दिया और १९२३ में “नवाकाल” नामक नया पत्र शुरू किया। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। बड़े भाई की मृत्यु के कारण उनके परिवार की जिम्मेदारी भी उन्हें संभालनी पड़ती थी। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने बड़े आत्मविश्वास और दृढ़ता से नए पत्र को चलाया।
जब “नवाकाल” सुचारु रूप से चलने लगा तो उन्होंने “मेनका”, “सवतीमत्सर” आदि नाटक लिखे। इनका विषय स्त्रियों का त्याग, और सेवावृत्ति है।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर पर राजद्रोह लगाना
बंबई के हिंदू-मुस्लिम दंगे के लिए उन्होंने अंग्रेजी सरकार को दोषी ठहराकर उसकी कड़ी आलोचना की। इसलिए १९२९ में उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर उन्हें एक साल की कैद और दो हजार रुपये के जुर्माने की सजा दी गई | उनकी उम्र उस समय ५८ साल की थी। जेल में उन्होंने “सावित्री” नाटक लिखकर जुर्माने की रकम दी। जेल में ही उन्होंने गीता रहस्य, ज्ञानेश्वरी, भागवत आदि ग्रंथों का अध्ययन किया।
जेल से छूटने के बाद वह तत्वज्ञानी बन गए। “नवाकाल” लोकप्रिय हो चुका था और उनकी आर्थिक स्थिति भी अच्छी थी। उन्होंने “नवाकाल” की जिम्मेदारी अपने सहयोगी और पुत्र को सौंप दी। यद्यपि उन्होंने लिखना छोड़ दिया, किंतु उनका मार्गदर्शन बराबर करते रहे।
सन् १९३३ में नागपुर में होने वाले साहित्य सम्मेलन के वह अध्यक्ष चुने गए थे।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर को नाट्याचार्य की उपाधि
१९४३ में सांगली में नाट्य सम्मेलन के अवसर पर जो नाट्यमंदिर बनाया गया उसका नाम काका साहेब के नाम पर रखा गया। इसी अवसर पर “नाट्याचार्य” की उपाधि देकर उनका सम्मान भी किया गया। वह अपंग थे, उनकी पत्नी भी बीमारी के कारण अपंग थीं, फिर भी वह अपना आध्यात्मिक लेखन कार्य नियमित रूप से करते थे।
साठ वर्ष के होने के बाद वह निवृत्त होकर सांगली चले गए और वहां एक मंदिर बनवा कर रहने लगे। मंदिर में वह प्रवचन भी करते थे। शेष समय उपनिषदों का अध्ययन करने में तथा वैदिक वाङ्मय और तत्वज्ञान का प्रचार करने में बिताते थे। अपने प्रवचनों में वह महात्मा गांधी के आंदोलन और उनकी विचारधारा का भी प्रचार करते थे ।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर की मृत्यु
जब वह जेल में थे, तभी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था और जगह-जगह प्रवचन करने के लिए जाने से उनका स्वास्थ्य और बिगड़ा। उन्हें लकवा हो गया। बोलना उन्हें कष्टप्रद मालूम होने लगा । इसके पश्चात् उनकी बड़ी बहू और छोटे पुत्र की मृत्यु हो गई। उनके मन पर बड़ा आघात हुआ। कुछ वर्ष बाद उनकी पत्नी और प्यारा पोता भी गुजर गए। सबसे बड़ा आघात उन्हें लगा गांधीजी की हत्या से। २६ अगस्त १९४८ को उनका स्वर्गवास हो गया।