केशवचन्द्र सेन | Keshav Chandra Sen
एक बार नौजवानों
की मंडली में धर्म के बारे में चर्चा छिड़ गई। यह चर्चा शुरू तो हुई पर कुछ ही देर
में गम्भीर बहस में बदल गई। धर्म के बारे में हर नौजवान के अपने-अपने विचार थे और
उनमें से प्रत्येक यही समझता था कि केवल उसके ही विचार ठीक हैं |
ऐसे मे एक
नौजवान से न रहा गया; बोला
“भाइयों, जानते हो, धर्म-चर्चा
की जगह तुम लोग लड़ाई-झगड़े पर क्यों उतारू हो गए?” सब
चौंके;
एक सवाल हुआ “क्यों ?” “इसलिए, कि
धर्म की चर्चा करते-करते तुम लोग धर्म को ही भूल गए।”
क्या मतलब? सब
परेशान हो उठे।
“मतलब यह कि धर्म को तुम सब ने
एक-एक व्यक्ति की चीज़ बना दिया, यह
भूल गए कि यह एक व्यक्ति की नहीं, मनुष्य
मात्र की चीज़ है। धर्म का उद्देश्य क्या है ? यही
न कि सभी मनुष्यों का भला हो, उनकी आत्मा
शुद्ध हो, वे सभी प्राणियों से प्रेम। करें? तो, मुख्य
चीज है आत्मा की शुद्धि। जिन किन्ही उपायों से आत्मा शुद्ध हो, वे
सब धर्म के अंग हैं।
लक्ष्य एक है, और रास्ते कई। जिसे जो रास्ता
पंसद आए,
वह उसे अपनाए। इससे
कोई अंतर नहीं पड़ता। धर्म के बारे में तुम सब के विचार सही हैं-कोई गलत नहीं लेकिन
सब लोग एक ही रास्ता अपनाएं, यह आशा
करना गलत है अधर्म है । इसी अधर्म के चलते तुम लोग धर्म का मर्म भूल गए और झगड़ने
लगे।”
घंटों का विवाद पल भर में समाप्त हो गया।
नौजवान अपनी गलती समझ गए और लज्जा से उनके सिर झुक गए।
इस विवाद
को इतनी आसानी से सुलझा देने वाला वह असाधारण नवयुवक था केशवचन्द्र सेन। यह सेन
महाशय आगे चलकर भारत-भूमि के एक लाडले सपूत सिद्ध हुए। देश और समाज को हालत सुधारने
में ही इन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया। धार्मिक द्वेष-भाव, जाति-पाति, स्त्री-पुरुष-संबंधी
ऊंच नीच की भावनाएं, अमीर गरीब के भेद और सामाजिक
कुरीतियां – इन सब को इन्होंने विष वृक्ष माना और इन्हें नष्ट करने में अपनी शक्ति-भर
कोई कसर न छोड़ी।
केशवचन्द्र का जन्म १९
नवम्बर १८३८ को कलकत्ता महानगरीं के एक सम्पन्न परिवार में हुआ। उनके पितामह दीवान
रामकमल सेन अपने समय के बड़े विद्वान और सम्मानित व्यक्ति थे। वह पहले भारतीय थे, जिन्हें
बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी का मंत्री
नियुक्त किया गया
था। केशवचन्द्र ने भी बचपन से ही अपनी प्रतिभा दिखानी शुरू कर दी थी ।
पढ़ने-लिखने में वह जितने तेज़ थे, आचार
व्यवहार में उतने ही शालीन। लड़ाई-झगड़े से वह दूर भागते और प्रायःअकेले में बैठकर
चुपचाप कुछ सोचते रहते । धार्मिक और अध्यात्मिक चर्चाओं
में उन्हें बड़ी
रुचि थी। उनकी यह अवस्था देखकर उनके घरवाले कभी-कभी परेशान भी हो उठते, पर
केशवचन्द्र का स्वभाव कभी न बदला |
एक दिन राजनारायण बसु लिखित पुस्तक “ब्रह्मवाद
क्या है ?” केशवचन्द्र
के हाथ लग गई | उसे
उन्होंने बहुत मन लगाकर पढ़ा। पुस्तक में लिखी बातें उन्हें बहुत प्रिय लगी और तुरंत ही “ब्रह्म-समाज” के
सदस्य बन गए। इस ”ब्रह्म-समाज” की स्थापना राजा राम मोहन राय
ने १८३३ मे की थी और इसका उद्देश्य भारतवासियों की आध्यात्मिक एंव सामाजिक उन्नति करना था। उस समय (१८५७ में) महाकवि
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता महर्षि देवेन्द
कुमार ठाकुर “समाज” के
सर्वप्रमुख कार्यकर्ता थे और ईश्वरचन्द विद्यासागर उनके मंत्री पद
पर आसीन थे।
तो 19
वर्ष की अल्प अवस्था में केशवचन्द्र जी ने
“समाज” मे प्रवेश
किया और पूरे जोर-शोर से “समाज” की
उद्देश्य सिद्धि में लग गए।
केशवचन्द्र महाशय से भी लोग जल्दी ही
प्रभावित हो उठे–वह “समाज” के
एक प्रमुख कार्यकर्ता माने जाने लगे। इसी का फल था कि केवल दो वर्ष बाद, १८५९
में,
वह महर्षि देवेन्द्रनाथ के साथ “समाज” के
संयुक्त मंत्री चुन लिए गए | उसी वर्ष वह महर्षि के साथ श्रीलंका
गए और वहां “समाज”
का प्रचार किया। वहां से लौटने के बाद उन्होंने और अधिक परिश्रम से “समाज” का
कार्य आरंभ किया और कई पुस्तिकाएं लिखी।
इनमें से एक “युवा
बंगाल यह तुम्हारे लिए है” ने
तो जादू सा
असर किया “समाज” के सदस्यों की संख्या आशातीत रूप
से बढ़ी।
इसी बीच विद्यासागर
महाशय “समाज” की सक्रिय सदस्यता से अलग हो गए यह भार उन्होने केशवचंद्र को सौंपा | केशवचन्द्र ने सहर्ष यह भार
ग्रहण किया। उन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में जोरदार प्रचार शुरू किया। जगह-जगह विधवा
के समर्थन में नाटक खेले गए, भाषण हुए।
लोगों पर इन सब का असर हुआ। उन्होंने विधवा विवाह का महत्व समझा और धीरे-धीरे
विधवाओं के विवाह की संख्या बढ़ने लगी।
इसके साथ ही “ब्रह्म-समाज”
ने एक कार्य और किया
था – वह यह कि लडकियों का विवाह १४ वर्ष की अवस्था से पहले न होने दिया जाए, पर
दूसरे उपाय, विधवा-विवाह, की
भी बड़ी भारी
जरूरत थी। इसे केशवचन्द्र सेन महाशय ने कारगर किया।
१८६१ में केशवचन्द्र को बंगाल सरकार ने “बैंक
आफ बंगाल” में एक अच्छा पद देना चाहा, परंतु
जिस व्यक्ति ने दूसरों के लिए ही अपना जीवन दे दिया हो, उसे
अपने भलाई
की कब चिंता होती हैं | केशवचन्द्र
ने इंकार कर दिया। उन्ही दिनो पश्चिमोत्तर प्रदेश में
भीषण अकाल पड़ा। लोग भोजन न मिलने के कारण मरने लगे। हजारों लोग मौत के मुंह में
चले गए। ऐसे मौके पर केशवचन्द्र एक सहायता कोष स्थापित किया और अन्न-धन से
अकाल-पीड़ितों की मदद की। इसी बीच उन्होंने अनुभव किया कि
भारत-वासी उचित-अनुचित का विचार किए बिना, अंधों
की तरह,
पुरानी लीक केवल इसलिए चल रहे हैं कि उन्हें
पूरी शिक्षा नहीं मिलती- भले-बुरे का विचार करने इनमें क्षमता नहीं रह गई है। अत:
उन्होंने सरकार पर इस बात के लिए दबाव डाला की वह
भारतवासियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दें। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने
एक
पुस्तिका भी प्रकाशित की-“ब्रिटिश
राष्ट्र के नाम एक अपील” ।
इस अपील और उनके भाषणों का असर हुआ। शिक्षा पर सरकार अधिक ध्यान देने लगी। अपने
विचारों और भारतीय जनता की आवश्यकताओं
का प्रचार करने के लिए सेन महाशय ने लगभग इसी समय “इंडियन मिरर” नाम
का एक अग्रेज़ी अखबार भी प्रकाशित करना आरंभ किया।
पहले कहा जा चुका है कि सेन महाशय असाधारण
रूप से प्रतिभा सम्पन्न थे | विद्धता उनकी रंग-रग में समाई हुई थी। १८६२
में उन्होंने “मानव-जीवन
का लक्ष्य” विषय
पर एक अत्यंत सारगर्भित भाषण किया। उनका यह भाषण इतना सुंदर था कि महर्षि देवेन्द्रनाथ ने उन्हें “ब्रह्म समाज का आचार्य”
कह कर संबोधित किया। उस समय उनकी अवस्था केवल २४ वर्ष को थी।
अब तक “ब्रह्म-समाज” के कार्य कलाप बहुत बढ़
गए थे और भारत में ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे पादरी उससे भयभीत हो उठे। फलतः
पादरियों ने “समाज” की
झूठी-सच्ची आलोचना शुरू कर दी। इन ईसाई पादरियों के अगुआ थे, रेवरेंड
लालबिहारी डे।
परंतु पादरियों की जल्दी ही मुंह की खानी पड़ी। केशवचन्द्र
ने उन्हें आड़े हाथों लिया और उनकी आलोचनाओं की धज्जियां उड़ा कर रख दीं। किसी से
कुछ जवाब न बन पड़ा।
१८६३ का वह वर्ष
पादरियों के लिए वस्तुतः बड़े संकट का काल सिद्ध हुआ। उस जमाने में भारतीय
स्त्रियों की दशा बहुत ही दयनीय थी। उन्हें बहुत तुच्छ समझा जाता था। समाज में
केवल पुरुषों की चलती थी-स्त्रियों को पढ़ने लिखने तक नहीं दिया जाता था। अतः
केशवचन्द्र ने इसका काम
अपने हाथ में लिया। उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारना आरंभ किया। उन्होंने घोषणा
की – “स्त्री और पुरुष, दोनों
बराबर हैं। दोनों के सही विकास हो समाज का
विकास होगा, देश
का विकास होगा।“ बड़े-छोटे का सवाल गलत है” उन्होंने लड़कियों के कई विद्यालय
खुलवाए,
उनकी शिक्षा पर पूरा जोर दिया तथा उनके मन से
अज्ञान
का अंधकार दूर करने की भरसक चेष्टा की। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने १८६३
में “वामाबोधिनी” नाम
की स्त्रियों की एक पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ किया।
परंतु स्त्रियों के उद्धार और विधवा-विवाह की
बात लेकर “ब्रह्म-समाज” में
फूट पड़ गई। बहुत-से लोग अब भी रूढ़िवादी
थे आखिर,
विवश होकर केशवचन्द्र ‘ब्रह्म-समाज‘ से
अलग हो गए और १८६७ में उन्होंने एक नई संस्था “भारतीय
ब्रह्म-समाज” की स्थापना
की। इस ‘समाज‘ के
सिद्धान्त गुरु गोविन्द राय ने संस्कृत में तैयार किए इस नए “समाज”
के द्वार मुसलमानों, ईसाईयों और दूसरे धर्म वालों के
लिए भी खोल दिए गए। यह नया ‘समाज‘ धार्मिक
संकीर्णता से पूर्णत: मुक्त था। अगले वर्ष, २४ जनवरी १८६८ को
केशवचन्द्र ने ‘भारतीय ब्रह्म-समाज मंदिर‘ की
आधारशिला रखी।
१८७० में वह इंग्लैंड गए। वहां के लोग उनसे
अत्यधिक प्रभावित हुए उन्हें “भारत
का आध्यात्मिक राजदूत” कहा
गया। कई बड़े-बड़े लोग उनके प्रशंसक बन गए। इनमें वैस्टमिंस्टर के रेवरेंड डीन, डा०माटिंन्यू, जान
स्टुअर्ट मिल, प्रोफ़ेसर मैक्समूलर, ग्रांट
डफ,
लुई ब्लां, आदि
प्रमुख थे।
इंग्लैंड से केशवचन्द्र सेन समाज सुधार आदि
के बारे में नए विचार लेकर लौटे। आते ही उन्होंने “इंडियन
रिफ़ार्म एसोसिएशन” यानी
भारतीय सुधार संस्था बनाई। सभी जातियों और धर्म के लोग इस संस्था के सदस्य बन सकते
थे। इस संस्था की एक शाखा ‘सुलभ समाचार‘ नामक
एक बंगला साप्ताहिक पत्र निकालती थी संस्था की एक शाखा ने स्त्रियों के लिए एक
नार्मल स्कूल खोला था। संस्था की एक और शाखा संयम और सुधार के उद्देश्य से बंगला
में ‘मदन
गरल‘
नाम की एक मासिक पत्रिका निकालती थी संस्था
की धर्मार्थ शाखा गरीबों को आर्थिक सहायता देती थी और उनके इलाज वगैरह का प्रबंध
करती थी। इसके अलावा तकनीकी शिक्षा के लिए एक औद्योगिक स्कूल खोला गया था । गरीब बच्चों
की शिक्षा के लिए एक प्रारंभिक स्कूल भी खोला गया। इस संस्था ने “कैलकटा स्कूल” का प्रबंध संभाल लिया। आगे चलकर
यही एलबर्ट स्कूल कहलाया।
बाद में केशवचन्द्र सेन ने दो और संस्थाएं
कायम कीं जिनका “इंडियन
रिफार्म एसोसिएशन”
से कोई संबंध न था। इसमें से एक का नाम था “भारत
आश्रम” और
दूसरी का “ब्रह्म निकेतन” | भारत आश्रम ब्रह्म
परिवारों के लिए संयुक्त आंश्रम था। “ब्रह्म
निकेतन” में
नवयुवकों के लिए खाने-पोने
का प्रबंध था। फिर स्त्रियो की उच्च शिक्षा के लिए ‘विक्टोरिया
कालेज” भी खोला
गया।
समाज सुधारक के रूप में कैशवचन्द्र
सेन का सबसे बड़ा
काम यह था कि उनके प्रयत्नो से
विवाह कानून जो १८७२ का “तीसरा कानून” नाम
से मशहूर है, पास हो सका । अपने जीवन के अंतिम
दिनों में केशवचन्द्र सेन ब्रह्म समाज की फूट के कारण इतना बड़ा धक्का लगा कि वह बहुत
बीमार
हो गए। धीरे-धीरे
उन पर योग और अध्यात्म का रंग चढने लगा | उन्होने “नव विधान” नामक
साधना-पद्धति अपनाई और “साधना कानन” में योग तथा भक्ति में लीन रहने लगे। वह एक “सर्वधर्मी
चर्च” अथवा
गिरजा की भी स्थापना करना चाहते थे, परंतु उनको
यह इच्छा पूरी न हो सकी। ५ जनवरी १८८३ को केवल
४६
वर्ष की अवस्था में वह इस संसार से विदा हो गए।