गंगाराम | सर गंगा राम की जीवनी | Ganga Ram
आजकल भारत हरित क्रांति के दौर से गुजर रहा है। सिंचाई की सुविधाएं बढ़ाकर, नए-नए उर्वरकों और बीजों का उपयोग करके हम अपनी पैदावार बढ़ा रहे हैं। परंतु सिंचाई सुविधाओं की व्यवस्था करके बंजर रेतीली भूमि में हरी-भरी फसलें उगाने का स्वप्न देखा था आज से ७० वर्ष पहले भारत के महान सपूत और इंजीनियर सर गंगाराम ने ।
उन्हीं के दिखाए मार्ग पर चलकर पंजाब स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत का अन्न भंडार बन गया था। इंजीनियर के रूप में उन्होंने बड़ी-बड़ी इमारतें भी बनवाईं। उसी के साथ उन्होंने एक महान समाज सुधारक और दानी के रूप में भी प्रसिद्धि पाई ।
सर गंगाराम का जन्म
सर गंगाराम का जन्म १३ अप्रैल १८५१ को पश्चिमी पंजाब के जिला शेखूपुरा के मंगतवाली गांव में हुआ था। उनके पिता ला. दौलतराम पुलिस में काम करते थे और बड़े धार्मिक विचारों के थे। बाद में वह अमृतसर चले आए।
सर गंगाराम की शिक्षा
बालक गंगाराम की प्रारंभिक शिक्षा भी अमृतसर और लाहौर में हुई। होशियार विद्यार्थियों में उनकी गिनती होती थी उन्हीं दिनों की एक रोचक घटना है जिससे उनके दृढ़ संकल्प की जानकारी मिलती है। जब वह तेरह वर्ष के थे तो एक दिन एक्जिक्यूटिव इंजीनियर के दफ्तर में गए और जब देखा कि इंजीनियर कमरे में नहीं हैं। तो उसकी कुर्सी पर जा बैठे, जब इंजीनियर वहां आया तो उसे बड़ा बुरा लगा और उसने डांटकर उन्हें भगा दिया। इस पर बालक गंगाराम ने प्रतिज्ञा की कि मैं एक दिन इसी कुर्सी पर बैठकर दिखाऊंगा। तेरह वर्ष बाद सचमुच उसी कुर्सी पर आसीन हुए।
लाहौर के बाद वह रुड़की के थाम्पसन इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ने लगे, १८७३ में सहायक इंजीनियर के रूप में लाहौर में उन्होंने अपना जीवन आरंभ किया। इसके बाद वह डेरा गाजीखां चले गए, पर कुछ दिन बाद फिर वापस लाहौर लौट आए। उनके अध्यवसाय और परिश्रम से उनके वरिष्ठ अधिकारी बहुत खुश रहते थे ।
सर गंगाराम के कार्य
१८७७ में दिल्ली में होने वाले दरबार की रंगशाला (एम्फिथियेटर) बनाने का महत्वपूर्ण काम उन्हीं को सौंपा गया । इसके बाद उन्होंने नार्थवेस्टर्न रेल्वे की अमृतसर-पठानकोट रेलवे लाइन की योजना तैयार करके उसे पूरा किया। फिर वह वाटर वर्क्स निर्माण के विशेष प्रशिक्षण के लिए इंग्लैंड गए और जल निकासी कार्य में विशेष दक्षता प्राप्त की।
इंग्लैंड से वापस लाहौर आने पर कुछ समय बाद लाहौर में एक्जिक्यूटिव इंजीनियर नियुक्त हुए और इस पद पर १२ वर्ष तक रहे। इस अवधि में उन्होंने लाहौर की कई प्रसिद्ध इमारतों का निर्माण करवाया, जिनमें हीरा मंडी का वाटर वर्क्स और जलाशय, गिरिजाघर, एचिसन कालेज, मेयो स्कूल आफ आर्ट्स, अल्वर्ट विक्टर हास्पिटल आदि प्रसिद्ध हैं। इसी अवधि में उन्होंने इंजीनियरी के कई उपकरणों और विधियों आदि का भी आविष्कार किया। इस तरह उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। फलतः लार्ड कर्जन ने उन्हें दिल्ली में होने वाले शाही दरबार के लिए सुपरिंटेंडेंट आफ वर्क्स चुना। यह पद अत्यंत जिम्मेदारी का था, पर वह अपनी परीक्षा में खरे उतरे। उनकी सेवाओं के उपलक्ष्य में उन्हें अंग्रेज सरकार ने सी.आई.ई. का खिताब दिया।
सन् १९०३ में उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी से अवकाश ग्रहण कर लिया। जल्दी ही उन्हें पटियाला में सुपरिटेंडिंग इंजीनियर का पद मिल गया । देखते ही देखते उन्होंने पटियाला शहर का नक्शा बदल दिया। उनके बनाए प्रसिद्ध भवनों में मोतीबाग महल, इजलास-ए खास, सचिवालय भवन, अदालतें आदि हैं। पटियाला शहर की जल निकासी व्यवस्था की योजना और निर्माण भी उन्हीं के द्वारा हुआ। सात वर्ष बाद ६० वर्ष की आयु में वह इंग्लैंड गए और वहां बहुत से कृषि केंद्र देखे। वापस आने पर वह नौकरी छोड़ना चाहते थे पर इसी बीच १९११ के में शाही दरबार लगना था। भारतीय रियासतों को उस समय एक कुशल इंजीनियर की जरूरत थी और महाराजा पटियाला के आग्रह पर उन्होंने भारतीय नरेशों के शिविर का विशेष सलाहकार बनना मान लिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का निर्माण भी उनके निर्देशन में हुआ वह विश्वविद्यालय के अवैतनिक मुख्य इंजीनियर थे ।
सर गंगाराम द्वारा हरित क्रांति का प्रारम्भ
अब वह अंग्रेज सरकार की नौकरी भी छोड़ चुके थे और पटियाला रियासत की भी। उनकी उम्र ६० वर्ष से अधिक हो चुकी थी। इस उम्र में लोग हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं पर गंगाराम तो दूसरी मिट्टी के बने थे । इस बड़ी उम्र में भी उन्होंने वह करिश्मा करके दिखाया, जिससे आज हमारे देश में होने वाली “हरित क्रांति” को मार्गदर्शन मिला है। वह यह मानते थे कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है और कृषि के लिए सबसे बड़ी समस्या है पानी की | वह कहते थे कि “जब हम इंजीनियरिंग से पर्वतों को हिला सकते हैं तो खेती के लिए पानी का इंतजाम करना तो बच्चों का खेल है।“
उस समय पंजाब की कृषि योग्य भूमि का एक तिहाई से भी अधिक भाग वर्षा या सिंचाई की कमी के कारण बेकार पड़ा था। कई जगह जमीन नदियों से ऊंची थी। वहां नहरों से सिंचाई नहीं हो सकती थी। गंगाराम ने अपनी विलक्षण बुद्धि से इस समस्या का हल ढूंढ निकाला। यह हल था उत्कर्ष सिंचाई या लिफ्ट सिंचाई।
नौकरी से अवकाश ग्रहण करते समय उन्हें रचना दोआब में २० मुरब्बे जमीन मिली थी।इसके अतिरिक्त उन्हें ५० मुरब्बे और ४७ मुरब्बे के दो टुकड़े और मिल गए, इस शर्त पर कि यहां वह उल्कर्ष सिंचाई से खेती करेंगे। इसमें से एक टुकड़े में उन्हें भाप से और दूसरे में बिजली से उठाऊ सिंचाई करनी थी। लायलपुर स्थित यह जमीन नहरों की सतह से ६ से ९ फुट तक ऊंची थी और वहां नहरी पानी किसी तरह नहीं जा सकता था। इस बंजर धरती तक कोई सड़क नहीं जाती थी। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन भी वहां से २५ मील दूर था । केवल एक बायलर को वहां तक पहुंचाने की लागत उस सस्ते जमाने में १५०० रुपये आई। उन दिनों भयंकर गर्मी का मौसम था। पर साठ वर्षीय गंगाराम विपत्तियों के आगे झुकने वाले न थे। तीन महीने में ही उन्होंने सारा काम पूरा कर लिया और वहां जब पहली रबी की फसल पैदा हुई तो लोगों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। धीमे-धीमे वह अधिकाधिक जमीन को खेती के योग्य बनाते गए। वहां गंगापुर नामक बस्ती बस गई और गंगाराम के सपने साकार होने लगे ।
गांवों के यातायात की समस्या हल करने के लिए उन्होंने गंगापुर और बुचियाना के बीच एक ट्राली चलाई जिसे घोड़ा खींचता था ।
सन् १९१० में वह इंग्लैंड गए, ताकि वहां मशीनों से खेती करने के नए-नए तरीकों और नई-नई मशीनों की जानकारी हासिल कर सकें। वहां जाकर उन्होंने २६००० रु. की ऐसी मशीनें खरीदीं जिनको भारत में पहले कभी इस्तेमाल नहीं किया गया था । पंजाब वापस लौटकर उन्हें एक नया वियार सूझा । उन दिनों पंजाब में कई नहरें बनाई गई थीं। उन्होंने सोचा कि क्यों न नहरी पानी को कुछ ऊंचाई से गिरा कर बिजली पैदा की जाए। उन्होंने पंजाब सरकार से कहा कि गुजरांवाला जिले में उन्हें बाजार भाव पर ५००० एकड़ परती भूमि दे दी जाए। वह जल विद्युत के लिए भी उचित दर देने को तैयार थे। पर वह जमाना विदेशी सरकार का था। इतनी अच्छी योजना स्वीकार करने में भी विदेशी सरकार ने सात साल लगा दिए। १९१७ में भी जमीन तब दी गई जब सरकार के सामने युद्ध से लौटे सैनिकों को जमीन देने की समस्या आई। सरकार ने जमीन इस शर्त पर दी कि जमीन को पूरी तरह विकसित करके कुछ वर्ष बाद वह उसे सरकार को लौटा देंगे। इतनी कड़ी शर्तं पर भी वह जमीन लेने को तैयार हो गए। उन्हें बारी दोआव में लगभग ८०००० एकड़ या १२५ वर्ग मील वीरान और बंजर भूमि दी गई। उन दिनों जल विद्युत से उत्कर्ष सिंचाई भारत में नहीं के बराबर होती थी। उनका यह कदम अत्यंत जोखिम भरा था। परंतु सच्चे कर्मयोगी की तरह वह अपने काम में जुट गए। नार्थ वेस्टर्न रेल्वे के रेनालाखुर्द स्टेशन के पास उन्होंने एक पनबिजली घर बनाया। तीस मील लंबी ट्रांसमिशन लाइनें लगाई गई, इस्पात के खंबे लगाए गए और सब मुख्य-मुख्य स्थानों को टेलीफोन से जोड़ दिया गया । उन दिनों वहां बिजली का नामोनिशान तक न था। टेलीफोन तो लोगों ने देखा तक न था। पर गंगाराम तो वहां नया युग लाने के लिए कृतसंकल्प थे। वहां सबसे बड़ी समस्या यह थी कि बिजली कैसे पैदा की जाए, रेनालाखुर्द में बिजलीघर के पास नहर का पानी केवल दो फुट की ऊंचाई से गिरता था, जिससे बिजली बन ही नहीं सकती थी। इसलिए उन्होंने नहर में से एक और छोटी नहर निकाली जो छः फुट की ऊंचाई से गिरती थी। पर छः फिट की ऊंचाई से भी सस्ती बिजली तैयार नहीं की जा सकती थी। इसलिए विशेष प्रकार के टर्बाइन तैयार करने पड़े । कुल पांच टर्बाइन लगाए गए। मशीनें आदि लगाने पर उस समय ५० लाख रुपए की लागत आई, जब चीजें बहुत सस्ती थीं। लगभग ७५ मील लंबी सिंचाई नहरें, ६२० मील लंबी नालियां, ४५ पुल, ६४५ पुलियां, ५६५ मील लंबी गांवों की सड़कें, १२१ मील सीमा-सड़कें बनाने पर १२ लाख रुपये का और खर्च आया । बिजलीघर पूरा होने की अवधि तक दस लाख रुपये की लागत से भाप से चलने वाली मशीनें लगाई गईं।
रेनालाखुर्द में संसार के सबसे कम ऊंचाई के प्रपात से बिजली बनाकर सर गंगाराम ने करिश्मा कर दिखाया। अपनी इस योजना में उन्हें आशातीत सफलता मिली। वहां इतनी भरपूर फसल हुई कि १९२४ में सरकार को मालगुजारी के रूप में उन्होंने १२ लाख रुपये अदा किए। इस तरह उन्होंने देश को नया रास्ता दिखाया कि सिंचाई की व्यवस्था करके किस तरह लाभ उठाया जा सकता है।
सर गंगाराम को रायल कमीशन का सदस्य नियुक्त
उनके कृषि संबंधी ज्ञान का लाभ उठाने के लिए १९२५ में उन्हें कृषि के रायल कमीशन का सदस्य नियुक्त किया गया। यद्यपि वह उस समय ७४ वर्ष के हो चुके थे, पर तब भी उनमें कालेज के युवकों जैसी स्फुर्ति थी। १९२२ में उन्हें “सर” की उपाधि से विभूषित किया गया था ।
सर गंगाराम के उद्योगों पर विचार
उनकी रुचि केवल कृषि क्षेत्र में ही नहीं थी। वह जानते थे कि राष्ट्र की समृद्धि कृषि के साथ उद्योगों पर भी निर्भर करती है। उनका कहना था कि सरकार को घरेलू उदयोगों और सहकारी बैंकों को सहायता देनी चाहिए और मशीनों की सहकारी बिक्री की व्यवस्था होनी चाहिए। उन्हें यह देखकर अत्यंत दुख होता था कि कारीगरों के लड़के चौथी की परीक्षा पास करके दफ्तरों में चपरासी बन जाते हैं। इसलिए वह चाहते थे कि उन्हें ऐसी शिक्षा दी जाए जो उनके धंधे के लिए भी उपयोगी हो।
सर गंगाराम का सामाजिक कार्य
एक गरीब परिवार में जन्म लेकर भी सर गंगाराम ने अपनी प्रतिभा और अध्यवसाय के बल पर लाखों कमाए। परंतु वह भारत के ऋषियों के इस वचन पर विश्वास करते थे कि दोनों हाथों से कमाओ और हजारों हाथों से दान दो, गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण वह गरीबी का दुख समझते थे। उनका हृदय बालकों से भी कोमल था | हिंदू जाति की और गरीबों की दुर्दशा उनसे देखी न जाती थी। उन दिनों देश में बहुत ही छोटी उम्र में बच्चों की शादी कर दी जाती थी। यहां तक कि १९२१ में एक वर्ष से कम उम्र की विधवाओं की ही संख्या ७५९१ थी। पर उन्हें दुर्दशा पर आंसू बहाना न आता था। वह हर चुनौती कर डटकर सामना करते थे। इसी उद्देश्य से १९२३ में उन्होंने सर गंगाराम ट्रस्ट सोसाइटी बनाई। अपने जीवनकाल में और अपनी वसीयत में कुल मिलाकर उन्होंने लगभग ५० लाख रुपये की विपुल राशि इस ट्रस्ट को दी थी। इस ट्रस्ट ने लाहौर में बहुत-सी धर्मार्थ संस्थाएं चला रखी थीं। इनमें से कुछ प्रमुख संस्थाओं के नाम हैं – विधवा आश्रम, अपाहिज आश्रम, सर गंगाराम फ्री हास्पिटल आदि।
सर गंगाराम के शिक्षा के क्षेत्र मे कार्य
शिक्षा में भी उनकी रुचि थी। हेली कालेज आफ कामर्स खोलने के लिए उन्होंने सरकार को कुछ रुपये देने की पेशकश की। कुछ अन्य शिक्षा संस्थाओं के नाम हैं हिंदू गर्ल्स हाई स्कूल, ट्रेनिंग कालेज फार विमेन, हिंदू स्टुडेंट्स कैरियर सोसाइटी, बिजनेस व्यूरो एंड लाइब्रेरी आदि। बहुत से गुरुद्वारों के निर्माण के लिए भी उन्होंने धन दिया, १९४७ में ट्रस्ट का लाहौर में ४५० शय्याओं वाला एक अस्पताल था, एक मैडिकल कालेज था जिसमें २०० विद्यार्थी पढ़ते थे और ५० शय्याओं वाला एक बच्चों का अस्पताल था। इन सबका खर्च ट्रस्ट की संपत्ति की आय से और सार्वजनिक दान से चलता था। सरकार से एक पैसे की भी सहायता नहीं ली जाती थी।
देश के विभाजन के कारण ये सारी संस्थाएं और संपत्ति पाकिस्तान में ही रह गई। विभाजन के बाद गंगाराम ट्रस्ट ने नई दिल्ली में राजेन्द्र नगर में सर गंगाराम अस्पताल की स्थापना की |
सर गंगाराम की मृत्यु
१० जुलाई १९२७ को यह प्रतिभाशाली इंजीनियर और महान दानादाता लंदन मे चिरनिद्रा मे लीन हो गए |
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