गुरु अर्जुन देव जी का इतिहास | गुरु अर्जुन देव जी की वाणी | Guru Arjan Dev Ji History in Hindi

गुरु अर्जुन देव जी का इतिहास | गुरु अर्जुन देव जी की वाणी | Guru Arjan Dev Ji History in Hindi

जिस घर में ईश्वर को प्रशंसा का गान होता है, वह सौभाग्यशाली तथा सुन्दर है; जहां ईश्वर को विस्मृत किया जाता है, वह स्थान व्यर्थ है । — गुरु अर्जुनदेव

गुरु अर्जुन देव जी का जन्म सन् १५६३ ई० में हुआ । वे रामदास [१५३४-१५८१] के तीन पुत्रों में से सबसे छोटे थे । सन् १५८१ में अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में गुरु-गद्दी पर आसीन होने के समय उनकी आयु केवल अठारह वर्ष थी । वे एक संगठनकर्ता, कवि, प्रचारक, निर्माता तथा शहीद थे ।

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सिख आन्दोलन में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है । उनका जीवनकाल सिक्ख धर्म के इतिहास में अत्यधिक संकट का काल था । प्रथम चार गुरुओं का कार्य बड़े लक्ष्य के लिए तैयारी थी, तो तो गुरु अर्जुन ने सिक्ख धर्म को धार्मिक ग्रन्थ तथा केन्द्रीय तीर्थ- स्थान-अमृतसर दिए ।

गुरु-गद्दी पर आसीन होने के पश्चात् उन्होंने रावी तथा व्यास के मध्य के क्षेत्र की यात्रा की । उन्होंने बाबा नानक का दैवी संदेश गाँव-गाँव तक पहुँचाया । जब वे तरनतारन पहुँचे, तो स्थान के प्राकृतिक सौन्दर्य से बहुत प्रभावित हुए, तथा वहां उन्होंने एक बहुत बड़े गुरुद्वारे का निर्माण करवाया और एक सरोवर खुदवाया । उन्होंने करतारपुर नगर की भी नींव रखी ।

जब वे लाहौर पहुंचे, तो अनेक हिन्दू एवं मुसलमान सन्त उनके व्यक्तित्व तथा आध्यात्मिक ज्ञान से बहुत प्रभावित हुए । लाहौर के मुगल सुबेदार ने भी उनके दर्शन किए तथा उनका आदर-सत्कार किया । उसने अपने खर्च पर, किन्तु गुरुजी की योजना के अनुसार, दामी बाजार में एक बावली खुदवाई । सन् १६२८ में शाहजहां के आदेशानुसार यह बावली भरवाकर इसके स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया । आगे चलकर सन् १८३४ में महाराजा रणजीतसिंह के आदेशानुसार यह मस्जिद गिरवा दी गई और पुनः बावली बनवा दी गई । सन् १९४७ के साम्प्रदायिक दंगों में यह पुनः नष्ट हो गई । गुरुजी ने छँरहटा की भी नींव रखी, यह नाम छः रहटों पर रखा गया । यह स्थान अमृतसर से पांच मील की दूरी पर है ।

इस प्रकार पंजाब के लोगों के प्रति तथा पंजाब के शुष्क क्षेत्र के लिए गुरु अर्जुनदेव जी का महत्त्वपूर्ण योगदान पवित्र सरोवरों, कुओं तथा बावलियों की खुदाई और गुरुद्वारों का निर्माण किया है।

सन् १५८६ ई. में उन्होंने हरिमन्दिर साहिब के भवन का निर्माण पूर्ण किया । उन्होंने सन्तोखसर नामक सरोवर, जिसकी खुदाई गुरु रामदास जो ने आरम्भ की थी, को भी पूर्ण किया ।

उन्होंने एक मुसलमान धार्मिक नेता, मियां मीर से हरिमन्दिर साहब की नींव रखवाई । इस काल में सिक्ख धर्म ने केन्द्रीय पंजाब की धरती में अपनी जड़ें दृढ़ कर लीं । इस क्षेत्र में माझा के परिश्रमी किसान रहते थे और आगे चलकर इन्हीं सिक्खों ने मुगलों के क्रूरतापूर्ण अत्याचारों से सिक्ख धर्म की रक्षा की । गुरु अर्जुनदेव जी ने उनमें आत्मविश्वास तथा सहनशील विरोध की भावना जाग्रत् की । उन्होंने निर्धारित किया कि प्रत्येक मनुष्य को कार्य करना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि संसार का त्याग करना बाबा गुरु नानक के उपदेशों के विरुद्ध है ।

उन्होंने दूसरों की सेवा तथा उनके प्रति प्रेम तथा आत्मबलिदान पर बल दिया । जब सिखों में आध्यात्मिक पुर्नजागरण तथा मानसिक एवं सामाजिक नवोत्साह उत्पन्न किया जा चुका था, तो गुरु जी ने श्री राग में निम्न प्रकार कहा-

मैं बधी सच धर्मसाल है ।
गुरु सिखा लहदा भालि के
हुण हुक्म होआ मेहरबान दा
पै कौए न किसे रिझान दा
सब सुखाली वुठीआ ए होआ हलेमो राज जीओ
हो गोसांई दा पहिलवानडा
मैं गुरु मिलि ऊच दुमालड़ा
सब होई हिंझ इक्कठीआं दी बैठा
वैखे आप जीओ — (गुरु अर्जुन, श्री राग)

दबिस्तान-ए-मज़हब का लेखक, जो छठे तथा सातवें गुरुओं का समकालीन था, और उन्हें निजी रूप से जानता था, हमें बताता है –

“प्रत्येक महल (गुरु) के काल में सिखों की संख्या में वृद्धि हुई, और गुरु अर्जुन महल के काल तक उनकी संख्या इतनी हो गई कि आबादी वाले क्षेत्रों में ऐसे नगर अधिक नहीं थे, जहां कुछ सिख न मिलते हों । उनमें कोई ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है कि कोई ब्राह्मण किसी क्षत्रिय का शिष्य नहीं बन सकता, क्योंकि नानक क्षत्रिय था, और कोई भी गुरु ब्राह्मण नहीं था ।

इसी प्रकार उन्होंने क्षत्रियों को वैश्यों को निम्नतम जाति-जाटों के अधीन किया, क्योंकि गुरु के बड़े मसन्द अधिकांशतः जाट हैं। “

तत्पश्चात् गुरु जी रचनात्मक कार्य को ओर प्रवृत्त हुए तथा उन्होंने अपने जीवन-काल के महत्त्वपूर्ण कार्य, सिखों के पवित्र ग्रन्थ ‘आदिग्रन्थ’ के संकलन को हाथ में लिया । उन्होंने पद एकत्रित किए और उन्हें गुरुमुखी लिपि में लिखने के लिए भाई गुरदास को दिया । इनके लेखनीबद्ध हो जाने पर गुरुजी ने इन्हें पुस्तक के रूप में जिल्दबन्द करवा दिया । इसके तैयार हो जाने पर गरु जी ने इसका नाम आदिग्रन्थ रखा । आदिग्रन्थ में छ: भाषाएं प्रयुक्त की गई हैं । अनेक उपभाषाएँ प्रयुक्त की गई हैं। इसमें उनके चारों पूर्ववर्ती गुरुओं की रचनाएं, तथा उत्तरी भारत के सभी भागों से अनेक हिन्दू तथा मुसलमान सन्त कवियों और अनेक अस्पृश्य सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई । इसमें उनके पद भी सम्मिलित किए गए हैं, इनकी संख्या २, २१८ है और ये ग्रन्थ साहिब के सुन्दर काव्य में बहुमूल्य योगदान हैं । उनके पद बड़े कोमल, काव्य-सौन्दर्य-युक्त तथा दार्शनिक ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं ।

एक बार सम्राट् अकबर ने पवित्र ग्रन्थ को ५१ स्वर्ण मुहरें भेंट की । उसने भाई बुद्धा, भाई गुरदास और गुरु जी को भी सम्मानार्थ वस्त्र भेंट किए । मैकाले (Macauliffe) ने अपनी पुस्तक ‘Sikh Religion’ (पांचवां तथा छठा खण्ड) की भूमिका में आदिग्रन्थ को समझने में निम्न कठिनाइयों का उल्लेख किया है –

“शायद ही कोई ऐसा सिख होगा जो उसकी पवित्र रचनाओं का अनुवाद करने में समर्थ हो । जो व्यक्ति अच्छी संस्कृत जानता होगा, वह अरबी तथा फारसी नहीं जानता होगा, और जो अरबी तथा फारसी जानता होगा, वे संस्कृत के मूल शब्दों को नहीं समझेगा । जो व्यक्ति हिन्दी जानता है, उसे मराठी का ज्ञान नहीं होगा; जो व्यक्ति मराठी जानता है, उसे पंजाबी तथा मुलतानी का ज्ञान नहीं होगा, तथा इसी प्रकार अन्य भाषाओं की स्थिति है । इसके अतिरिक्त सिखों की धार्मिक रचनाओं में कुछ ऐसे विचित्र शब्द भी हैं, जो अन्य किसी ज्ञात भाषा में नहीं मिलते । इनके सम्बन्ध में व्यक्ति को पारम्परिक अर्थ को ही स्वीकार करना पड़ेगा । इस प्रकार विद्यमान धार्मिक अथवा नास्तिक ग्रन्थों में ग्रन्थ साहिब सर्वाधिक कठिन रचना है, तथा इसकी अन्तर्वस्तु के सम्बन्ध में सामान्य अज्ञान का यही कारण है ।”

‘सुखमणी’ साहिब भक्ति-काव्य की उनकी उत्कृष्ट रचना है, और यह अनुपम दार्शनिक सिद्धान्तों से परिपूर्ण है । इसमें अनन्त ईश्वर के स्वरूप का अतीव व्यापक आदर्श प्रस्तुत किया गया है, और यह आत्मा को शान्ति देने वाली है । पद रागों के क्रम से रखे गए हैं, और रचना ईश्वर का नाम जपने के रूप में है, तथा सत्य की खोज में सहायता करती है । यह किसी भी प्रकार के सम्प्रदायवाद से मुक्त है ।

“वे ही ईश्वर का चिन्तन करते हैं जिन्हें वह स्वयं ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है।” (सुखमणी १,३)

गुरुजी ने ग्रन्थ साहिब में मानव-जीवन का ऐसा उद्देश्य निम्नलिखित बताया है –

तुमने अपने भगवान् से मानव-शरीर प्राप्त किया है, अपने ईश्वर को प्राप्त करने का यही समय है, तुम्हारे अन्य कार्य किसी अर्थ के नहीं, पवित्र लोगों की संगति में सम्मिलित हो जाओ, तथा केवल ईश्वर का नाम जपो । (प्रासा)

जब सन् १६०५ में जहांगीर अकबर का उत्तराधिकारी बना तो उसके पुत्र खुसरो ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया । खुसरो गुरु जी के पास आ गया और उन्होंने उसका साधारण आतिथ्य सत्कार किया और उसका सम्मान किया । इस घटना के आधार पर गुरु जी पर यह दोष आरोपित किया गया कि उन्होंने विद्रोही को शरण दी है । गुरु जी पर दो लाख रुपये जुर्माना किया गया, किन्तु उन्होंने यह अनुचित जुर्माना देने से इन्कार कर दिया ।

इसके अतिरिक्त, गुरु जी के पुत्र हरगोविन्द के साथ चन्द्र शाह की पुत्री की सगाई न होने के कारण जनता की दृष्टि में वह बहुत अपमानित हो गया । उस दिन से उसने गुरु जी के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार अपना लिया । शाहजादा खुसरो की सहायता करने और लाहौर के दीवान की पुत्री से अपने पुत्र का विवाह करने से इन्कार करने के कारण गुरु जी को बन्दी बनाकर बड़े कष्ट दिए गए और अन्ततः उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया गया ।

अपनी इच्छा से कष्ट सहन करने की आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास करने वालों के लिए गुरु जी के बलिदान की दुःखान्त घटना प्रकाश-स्तम्भ के समान है । मोहसिन सानी का कथन है। कि धूप की गर्मी तथा शारीरिक कष्टों के कारण गुरु जी की मृत्यु हुई । गुरु जी पर किए गए अत्याचारों का और विवरण ‘पन्थ प्रकाश’ के पृष्ठ १७ पर उपलब्ध है ।

गुरु जी की विपदा के समय उनसे सहानुभूति प्रकट करने के लिए अनेक योगी, तथा धार्मिक व्यक्ति पहुँचे । लाहौर का मुसलमान सन्त मियां मीर भी उनमें से एक था । चन्द्र की पुत्रवधू, जो एक सिख की पुत्री थी, जब गुरु जी की मृत्यु का समाचार मिला तो उसने भी प्राण त्याग दिए ।

गुरु अर्जुनदेव जी पर जब सभी प्रकार के अत्याचार किए गए, तो वे व्याकुल नहीं हुए । वास्तव में यह आत्म-बलिदान तथा सत्य की रक्षा के लिए कष्ट-सहन का उच्च कोटि का उदाहरण है । वे धमकियों के आगे नहीं झुके | वे बिल्कुल घबराए नहीं । मेकाले के अनुसार उन्होंने ग्राह नहीं भरी, अपितु एक पद कहा जिसका भावार्थ निम्नलिखित है ।

अन्धविश्वास का पर्दा फट गया है, बुद्धि प्रकाशित हो गई है । गुरु ने बेड़ियां काट दी हैं, और बन्दी मुक्त हो गया है । मेरा देहान्तरण समाप्त हो गया है । मेरे कर्मों का भार समाप्त हो गया है । मैं उससे मुक्त हो गया हूं। समुद्र के तट पर पहुँच गया हूँ । गुरु ने मेरे ऊपर कृपा की है । मेरा स्थान सत्य है, मेरा आसन सत्य है, तथा सच्चाई को मैंने अपना विशेष लक्ष्य बना लिया है । सत्य ही पूंजी है, सत्य ही व्यापार का माल है जिसे नानक ने उसके घर में रखा है । फिर जब अत्याचारी ने उन पर और अत्याचार करने की धमकी दी तो उन्होंने उसे सम्बोधित करके जो पद कहा, उसका भावार्थ निम्नलिखित है –

पृथ्वी, नभमण्डल तथा तारे भय के प्रभाव में हैं । उनके सिरों पर अपरिवर्तनीय नियम हैं । वायु, जल, तथा अग्नि भी भय के प्रभाव में हैं, ऐसा मैंने सुना है । जो गुरु से भेंट होने पर प्रशंसा के गीत गाता है, वह सर्वदा प्रसन्न तथा शान्त रहता है । सभी चीजें भय के प्रभाव में हैं । केवल स्रष्टा इससे ऊपर है । नानक कहते हैं, ईश्वर सन्तों का साथी है, सन्त ही उसके दरबार को शोभायमान करते हैं, इसीलिए वे भी भय-रहित हैं ।

गुरु जी को रावी नदी के निकट ले जाया गया, ताकि उन्हें इसके ठण्डे जल में स्नान करवाया जा सके । किन्तु उनका छालों से भरा शरीर यह सहन नहीं कर सकता था । सन् १६०६ ई. में ईश्वर के ध्यान में निरत गुरु जी ने शान्तिपूर्वक शरीर त्याग दिया । अपने कष्टों के बीच में भी उन्होंने कहा, हे दयामय ईश्वर ! मुझे तुम जहां भी बिठाओगे वही स्थान मेरे लिए स्वर्ग है । उन्हें मुसलमान सम्राट् की धर्मान्धता तथा अमानुषिकता के कारण पीड़ित किया गया, किन्तु अपने ऊपर अत्याचार करने वालों के प्रति उन्होंने कोई दुर्भावना अभिव्यक्त नहीं की । अपनी अग्नि परीक्षा के समय भी उन्होंने समभाव का त्याग नहीं किया ।

उन पर किए गए इन अमानुषिक अत्याचारों के कारण सिखों में प्रबल रोष उत्पन्न हो गया । वास्तव में उनके बलिदान ने ही सिखों में सैनिकीकरण का बीज बोया । गुरु अर्जुनदेव जी ने सोलहवीं शताब्दी में अपने जीवन काल में हिन्दू-भक्ति तथा मुस्लिम रहस्यवाद का सामंजस्य देखा । अपने जीवन में उन्होंने प्रदर्शित किया कि ईश्वर से प्रेम करने के लिए निर्धन तथा निम्न वर्गों से प्रेम करना आवश्यक है । वे बहुत क्षमाशील तथा उदार थे । वे सत्य के समर्थक तथा ईश्वर के संदेशवाहक थे । वे धर्मनिष्ठ सन्त तथा उच्च विद्वान् थे । हम गुरुजी के उपदेशों, ईश्वर के प्रति उनकी भक्ति, तथा सत्य की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान के उदाहरण से प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं ।

लाहौर में गुरु जी की स्मृति में निर्मित गुरुद्वारे पर अंकित उनकी रचना का भावार्थ निम्नलिखित है –

पापमोचन करो, तथा अपने भगवान् का स्मरण करो, तथा तुम्हारे मन और शरीर रोग से मुक्त होंगे । ईश्वर की रक्षा से लाखों बाधाएं दूर हो जाएंगी, तथा तुम्हारा भाग्य उदय होगा । मैंने ईश्वर के भजन गाए हैं । हे मेरे भाइयो, इन्हें हमेशा गाओ, सुनो तथा पढ़ो, तो पूर्ण गुरु तुम्हारी रक्षा करेगा ।

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