गुरु गोविन्द सिंह की जीवनी | गुरु गोविंद सिंह का इतिहास | गुरु गोविंद सिंह जीवन परिचय | Shri Guru Gobind Singh Ji Essay

गुरु गोविन्द सिंह की जीवनी | गुरु गोविंद सिंह का इतिहास | गुरु गोविंद सिंह जीवन परिचय | Shri Guru Gobind Singh Ji Essay

बालक गोविन्द का जन्म २६ दिसम्बर, १६६६ को पटना में हुआ, उस समय उनके पिता, गुरु तेग बहादुर, आसाम के लम्बे दौरे पर थे । अपनी बाल्यावस्था में ही, उन्होंने अपने श्रद्धालुओं के मन मोह लिए और वे उनके लिए प्रेम के नये केन्द्र बन गए ।

आरम्भ में ही उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा के लक्षण प्रतीत होते थे । पटना के लोगों की इच्छाओं की पूर्ति के लिए वे कई बार राम अथवा कृष्ण का रूप बनाकर बाहर निकलते । सारा पटना गोविन्द का अपना था । जब लोग उन्हें देखते, उनका स्पर्श करते, अथवा वे खेल-खेल में लोगों को चिढ़ाते तो वे बहुत हर्षित होते । वे अभूतपूर्व हर्ष तथा प्रकाश बिखेरते फिरते । अपने पिता के समान ही वे सिख जनता के लिए हर्ष के नये विषय बन गए ।

आठ वर्ष की अवस्था में उन्हें आनन्दपुर साहिब लाया गया तथा वहां उन्होंने संस्कृत एवं अरबी का अपना अध्ययन जारी रखा । जब औरंगज़ेब ने उनके पिता पर अत्याचार किए तथा उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया तो वे केवल नौ वर्ष के थे । अनेक कठिनाइयों के बावजूद गुरु जी ने दृढ़ निश्चय कर रखा था कि मुगलों के राजनीतिक तथा धार्मिक अत्याचारों का प्रतिरोध करेंगे, और इसके लिए देशवाशियों में उत्साह फूंकेंगे ।

गुरू जी ने कुछ वर्षों के लिए यमुना के तट पर एकान्तवास किया, कुछ अवधि अध्ययन तथा चिन्तन में व्यतीत की, सिखों को संगठित किया, और एक दुर्ग का निर्माण किया, इसे पौंटा साहिब कहा जाता है, और यह सिखों के लिए तीर्थ-स्थान है ।

शस्त्र एकत्र किए जाते रहे। पौंटा शस्त्रागार बन गया । सिखों की बढ़ती हुई शक्ति के प्रति पड़ोसी पहाड़ी राजा ईर्ष्या करने लगे, और परिस्थितियां ऐसी विकसित हो गईं कि सन् १६८६, के आरम्भ में पौंटा से छ: मील की दूरी पर भंगनी के स्थान पर डटकर लड़ाई लड़ी गई, जिसमें गुरुजी ने पहाड़ी राजाओं की सेनाओं को पूर्णतः पराजित किया । विजयोत्सव मनाने के लिए गुरू जी आनन्दपुर लौट आए, तथा आनन्दगढ़ के दुर्ग की नींव रखी तथा लोहगढ़, केसगढ़ और फतेहगढ़ नामक तीन और दुर्गों का निर्माण करवाया।

कवि, चित्रकार तथा विद्वान् आकर गुरु जी के पास रहने लगे । उन्होंने अपने अनुयायियों में कला तथा ज्ञान के विकास को प्रोत्साहित किया । आनन्दपुर में साहित्य तथा कला का पुनरुत्थान हुआ । उन्होंने रणजीत नगाड़ा नामक एक बड़ा ढोल बनवाया, जिसे प्रतिदिन प्रातः तथा सायंकाल प्रार्थना के समय बजाकर यह घोषणा की जाती थी कि सिख राजनीतिक तथा धार्मिक अत्याचार का प्रतिरोध करते हैं, और स्वतन्त्रता के लिए कृतसंकल्प हैं । उन्होंने सभी सिखों को शस्त्रों के प्रयोग की शिक्षा दी । १६६५ तक सभी प्रेक्षकों को यह स्पष्ट प्रतीत होने लगा था कि मुगलों के शक्तिशाली साम्राज्य का विनाश आरम्भ हो चुका है ।

इसे भी पढ़े :   शंकरदेव |Sankardev | ShankarDev

१७०१ तथा १७०३-४ में आनन्दपुर की लड़ाइयों और दिसम्बर, १७०४ में चमकौर की लड़ाई के पश्चात् उन्होंने वर्तमान जिला फीरोजपुर में खिदराना के स्थान पर मुगलों से अन्तिम लड़ाई लड़ी और उन्हें पराजित किया । तत्पश्चात् वे तलवण्डी साबो (दमदमा) में बस गए और धर्म-प्रचार आरम्भ कर उन्होंने भीरु एवं निर्जीव मानव-समूह में नया जीवन फूंकने का महान कार्य किया, तथा सरल एवं भोले उपासकों को आत्म सम्मानी नागरिकों में परिवर्तित कर दिया । उनमें नम्र एवं साधारण मनुष्य को साहसी वीर में परिवर्तित करने की क्षमता थी । उन्होंने अपने अनुयायियों के धार्मिक जीवन में आमूल-परिवर्तन किया । उन्होंने मानव-जाति की सेवा के लिए सिखों के समूचे आचरण को विनियमित करने पर बल दिया, और एकता तथा सहनशीलता की आवश्यकता को महत्त्वपूर्ण माना । उन्होंने लोगों से अनुरोध किया कि भारत में स्थिर आधार पर धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना की जाए । स्त्रियों तथा अस्पृश्य जातियों को समानता का दर्जा दिया गया ।

“रंगरेटा गुरु का बेटा है”, और कलाल गुरु का लाल है”, ऐसा प्रचार किया । उनका सिद्धान्त वाक्य था । समस्त मानव-जाति को एक जाति मानो । गुरु जी हिन्दू संस्कृति के महान संरक्षक थे, और उन्होंने सभी मनुष्यों की समानता का प्रचार किया । उन्होंने जाति-पांति पर आधारित भेद-भावों को अस्वीकार कर दिया, और विभिन्न जातियों के लिए, विभिन्न निम्न तथा उच्च सभी जातियों के लिए एक समान आचार-संहिता का प्रचार किया । वे राष्ट्रीय एकता का प्रचार करते थे । उन्होंने सभी जातियों को एक भ्रातृत्व-समूह में पिरोया । निम्न तथा उच्च, धनी तथा निर्धन सभी को मिलाकर एक समुदाय की रचना की । वे सर्वदा निर्धन, निर्बल तथा दलित वर्गों को प्रेम करते थे । इस आदर्श को यथार्थ में परिवर्तित करने के लिए उन्होंने संगत तथा पंगत को परम्पराएं प्रचलित कीं । उन्होंने समूची मानवता के गुणों पर बल दिया, और समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करने वाली हिन्दुओं की जाति-पांति की परम्परा की निन्दा की ।

उन्होंने सभी सामाजिक भेद-भावों को समाप्त कर दिया । संन्यासियों का एक समूह आनन्दपुर आया और उन्होंने गुरु जी से शिकायत की कि वे संन्यास के गुणों पर पर्याप्त बल नहीं देते । उन्होंने उत्तर दिया, “मेरे शिष्य सभी सच्चे संन्यासी हैं । उनका आनन्द अनन्त है तथा उन्हें और वस्तुओं की इच्छा नहीं है । वे अपनी वस्तुओं का आवश्यकतानुसार प्रयोग करते हैं । मित्रो ! आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् संन्यास का क्या महत्त्व है ?” जब वे और तर्क-वितर्क करते रहे, तो गुरु जी ने विनोद में सिखों को कहा कि संन्यासियों के नारियल के कमण्डलुओं के बन्द ढकनों पर जलते हुए कोयले रखो। जब जोड़ों को मिलाने वाली लाख पिघली तो कमण्डलुओं को हिलाने पर उनमें से सोने की मुहरें नीचे गिरीं । यह संन्यासियों के पाखण्ड का प्रमाण था ।

इसे भी पढ़े :   सर फ्रांसिस ड्रेक | फ्रांसिस ड्रेक का जीवन परिचय | Sir Francis Drake in Hindi | Sir Francis Drake Discover

आनन्दपुर में गुरु गोविन्दसिंह जी के जीवन के दृश्य हंसी तथा हर्ष से पूर्ण हैं । वे मुस्कान से अपने शिष्यों का स्वागत करते, अथवा उनके कन्धे का स्पर्श करते, तथा विनोदपूर्ण बातों से उन्हें हर्षित एवं चकित करते । गुरु गोविन्दसिंह गुरु नानक ही हैं, किन्तु वे नीले रंग के घोड़े की सवारी करते हैं, धनुष-बाण धारण करते हैं, उनके कमर में कृपाण लटकती है उनके हाथ पर एक बाज़ बैठा होता है, तथा उनकी आंखें हर्ष एवं आत्मा के पराक्रम से चमकती हैं । हर्ष के न समाने के कारण उनका हृदय प्रसन्न है।

एक बार वे दमदमा नामक स्थान पर रुके । किन्तु वे नीले रंगे वस्त्र पहने हुए थे। एक दिन आग जलाई गई और उन्होंने अपने वस्त्र फाड़कर एक-एक लोर करके जला दिए । उन्होंने मुगल साम्राज्य को इसी प्रकार टुकड़े-टुकड़े करके जला दिया । एक दिन जब खालसा की माता आई, तो उसने गुरु गोविन्द सिंह को अपने शिष्यों की भरी सभा में बैठे पाया, जो अमर गीत गा रहे थे । उन्हें सम्बोधित करके उसने कहा, मेरे चार कहां हैं ? मेरे चार कहां हैं ?”

उन्होंने उत्तर दिया – तुम्हारे चारों का क्या, हे मां, तुम्हारे चारों का क्या, जब सभी लोग, खालसा ! यहां रहते हैं, तुम्हारे चार चले गए हैं,

तुम्हारे इन लाखों पुत्रों के लिए बलिदान के रूप में हे मां क्या हुआ यदि तुम्हारे चार चले गए हैं । गुरु गोविन्दसिंह ने चमकौर (जो अब तहसील रोपड़, पंजाब में है) में एक छोटे दुर्ग पर कब्जा कर लिया था । वहां उनके दोनों पुत्र अजीतसिंह तथा जुझारसिंह थे, जिनकी आयु क्रमशः १५ तथा १३ वर्ष की थी । उनके अतिरिक्त वहां चालीस सिख और थे । दुर्ग पर शत्रु का घेरा पड़ा हुआ था, तथा मरने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था । इस अवसर पर अजीतसिंह ने अपने पिता को इस प्रकार सम्बोधित किया ।

“हे पिता ! मुझे भी मृत्यु की इच्छा है तथा मैं अपने भाइयों के साथ यह सम्मान प्राप्त करना चाहता हूं।”

“मेरे बच्चे जाओ, अकाल पुरुष की यही इच्छा है।” अजीतसिंह लड़ाई में कूद पड़ा और शहीद हो गया । उस समय पिता अपने पुत्र को आत्मा के लिए प्रार्थना कर रहा था । जब उन्होंने आंखें खोलीं तो देखा कि तेरह वर्षीय जुझारसिंह उनके सामने हाथ बांधे खड़ा कह रहा है । “मैं भी अपने भाई के साथ जाना चाहता हूं ।”

इसे भी पढ़े :   ज्योतिबा फुले का जीवन परिचय | ज्योतिबा फुले कौन थे | ज्योतिबा फुले के सामाजिक विचार | Jyotiba Phule

“तुम बहुत छोटे हो ।”

“पिता, क्या मैंने पवित्र अमृत नहीं पिया है ? मुझे आशीष दो पिता।”

“मेरे बच्चे, जाओ, हमारा पृथ्वी से सम्बन्ध नहीं है।”

किन्तु वह लौट आया, कहने लगा कि वह प्यासा है । पिता ने उत्तर दिया, “मेरे बच्चे जाओ, इस पृथ्वी पर तुम्हारे लिए पानी नहीं है । देखो, दूसरी ओर अमृत का प्याला लिए तुम्हारा भाई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।”

गुरु गोविन्दसिंह जी ने सार्वभौम धर्म का प्रचार किया । अपनी रचना ‘अकाल उस्तत’ में उनका कथन है । सारी मानव-जाति को एक मानो । मन्दिर तथा मस्जिद एक हैं, हिन्दुओं तथा मुसलमानों की उपासना की पद्धतियां एक हैं; सभी मनुष्य समान हैं, यद्यपि विभिन्न स्थानीय प्रभावों के कारण वे भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं । सभी के समान आंखें हैं, समान कान हैं, समान शरीर है तथा समान रचना है । सभी उन्हीं चार तत्त्वों का मिश्रण हैं ।

उन्होंने आगे कहा – “मैं चाहता हूं कि तुम सभी एक धर्म अपनाओ तथा एक पथ पर चलो, धर्म की सभी भिन्नताओं को मिटा दो । हिन्दुओं के चारों वर्ग, जिनके लिए शास्त्रों में भिन्न-भिन्न नियम निर्धारित हैं, उन नियमों को छोड़कर, मिल जाएँ, परस्पर सहयोग करें, और स्वतन्त्रता से मिलें । कोई भी अपने को दूसरे से प्रवर न समझे……??

इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गुरु किसी सम्प्रदाय अथवा वर्ग के शत्रु नहीं, अपितु मानव-जाति की समानता में उनका विश्वास था । अन्ततः एक दिन आया जब गुरु जी ने एक नारियल तथा पाँच पैसे मँगवाए और उन्हें ग्रन्थ साहिब के सामने भेंट करके उन्होंने कहा – “अकाल पुरुष का यही आदेश है, मैंने ढंग बता दिया है सिख पदार्थ को पवित्र ग्रन्थ में से ढूंढ़े ।”

सैनिक वस्त्र धारण करके वह अपने नीले घोड़े पर चढ़े और सन् १७०८ ई॰ में इस संसार से अलोप हो गए ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *