गुरु रामदास जी की जीवनी | गुरु रामदास जी के शब्द | Guru Ramdas Ji History in Hindi | Guru Ramdas Ji History

गुरु रामदास जी की जीवनी | गुरु रामदास जी के शब्द | Guru Ramdas Ji History in Hindi | Guru Ramdas Ji History

हे ईश्वर यदि लोग मेरी प्रशंसा करें, तो यह तुम्हारी प्रशंसा है, यदि वे मेरी निन्दा करें तो भी मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा । जब तुम मेरी रक्षा करते हो तो कोई मुझे कैसे हानि पहुंचा सकता है । – -गुरु रामदास : राग सूही

गुरु नानक की गद्दी के उत्तराधिकारी सिखों के चौथे गुरु श्री रामदास का जन्म १५३४ ई॰ में लाहौर में एक सोढी परिवार में हुआ था । उनका मन ईश्वर की भक्ति की ओर प्रवृत्त था ।

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एक बार गुरु अमरदास जी के दर्शन के लिए वे गोइन्दवाल गए । वहां वे उनके शिष्य बन गए । उनकी धर्मनिष्ठा देखकर तथा गुरु की आज्ञाओं का कठोरता से पालन करते देखकर गुरु जी उन पर प्रसन्न हो गए और उन्होंने अपनी पुत्री बीबी भानी का विवाह उनसे कर दिया ।

१५७७ ई॰ में सम्राट् अकबर ने कुछ गांवों की जागीर, गुरु अमरदास द्वारा लेने से अस्वीकार करने पर, इसी बीबी भानी को प्रदान की थी । गुरु रामदास (अथवा जेठा, जो इनका पहला नाम था) को उन गांवों का प्रबन्ध सौंपा गया । इनमें से ही एक गांव आगे चलकर अमृतसर के नगर के रूप में विकसित हुआ ।

इसका आरम्भिक नाम रामदासपुर था, किन्तु यह नाम अधिक समय नहीं चला । पवित्र सरोवर की खुदाई का श्रेय भी इन्हीं को प्राप्त है । इसी सरोवर के नाम पर नगर का नाम अमृत + सरस् अर्थात् अमृतसर पड़ा । इस सरोवर के मध्य में एक लघु द्वीप पर उन्होंने हरि मन्दिर साहिब का निर्माण कार्य आरम्भ किया, यह सिखों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक केन्द्र बना और आज भी सिखों की धार्मिक राजधानी है ।

गुरु जी के अनेक अनुयायियों में कुछ पहाड़ी राजा भी थे, उन्होंने उनके कोष के लिए हजारों रुपये दान दिए । सर्वाधिक दान सम्राट् अकबर ने दिया और उसने उनके उपदेशों को और अधिक लोकप्रिय बनाकर उनका सम्मान भी बढ़ाया । गुरु जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए तथा अपने अनुयायियों से धन-संग्रह करने के लिए अपने प्रतिनिधि (मसन्द) भी भेजे । इन मसन्दों ने हरिमन्दिर साहिब के निर्माण के लिए बहुत धन प्राप्त किया ।

इस प्रकार गुरु रामदास जी को सिक्खों के पवित्र नगर अमृतसर में हरिमन्दिर साहिब, जिसे प्रायः स्वर्ण मन्दिर भी कहा जाता है, के निर्माण का श्रेय प्राप्त है । अब यह सभी सिक्खों के लिए तीर्थ यात्रा का सर्वप्रिय केन्द्र है, इसके परिवर्ती पवित्र सरोवर में स्नान के लिए दूर-दूर से सिक्ख यात्री आते हैं । यह सिक्ख संस्कृति का सबसे बड़ा केन्द्र है, और सभी जातियों नामतः ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों के प्रवेश के लिए खुला है ।

चारों दिशाओं में निर्मित इसके चार प्रवेश-द्वार जाति-पांति पर आधारित सभी भेद-भावों की समाप्ति के प्रतीक हैं । यह प्रत्येक व्यक्ति के प्रवेश के लिए खुला है । यहां दिन-रात हरिकीर्तन होता रहता है, और सभी आगन्तुकों को गुरु के लंगर से निःशुल्क भोजन दिया जाता है । कहा जाता है कि गुरु जी के जीवन-काल में इस सरोवर में स्नान करने से एक कोढ़ी का कोढ़ मिट गया । इस घटना से गुरु जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और सिख धर्म का प्रचार एवं प्रसार हुआ ।

जब गरु जी अपने अनुयायियों सहित हरिद्वार गए तो उन्होंने कर नहीं दिया तथा अधिकारियों ने भी उनकी साधुता के कारण इसके लिए आग्रह नहीं किया । एक बार जब पंजाब के निर्धन किसान अकाल के कारण पीड़ित हुए तो गुरु जी ने सम्राट् अकबर को भूराजस्व की छूट देने का अनुरोध किया, और सम्राट् ने उनका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया । भू-राजस्व छूट मिलने से गुरु जी के सम्मान में बहुत वृद्धि हुई ।

‘आदिग्रन्थ’ में गुरु रामदास जी के ६७९ पद सम्मिलित हैं । उनकी रचनाओं में भावों की अतीव गहनता तथा छन्दों का अपूर्व सौन्दर्य लक्षित होता है । उन्होंने अलग हुए सिक्खों को साथ मिलाने के लिए हार्दिक प्रयास किया, और सिख समुदाय को एकता प्रदान की ।

गुरु रामदास जी के शब्द


‘वारगौड़ी’ में उन्होंने कहा है, “ईश्वर जिन्हें महान् बनाता है, सभी लोग उनका सम्मान करते हैं।”

उन्होंने इस बात पर बहुत बल दिया कि पूर्ण गुरु के उदाहरण के अनुसरण से प्राप्त आध्यात्मिक प्रशिक्षण से व्यक्ति बहुत लाभ उठा सकता है।”

आगे उनका कथन है – “गुरु पारस पत्थर के समान तथा हम लोहे के समान हैं । उससे मिलने पर हम स्वर्ण में परिवर्तित हो जाते हैं । गुरु मन के प्रकाश को दैवी प्रकाश में मिला देता है, और मनुष्य दैवी बन जाता है ।” — (गुरु रामदास राग तुखारी)

उनका मत है कि यदि व्यक्ति तीर्थ यात्रा करने निकले तो भी केवल ईश्वर के नाम की प्रशंसा की जानी चाहिए । ज्ञान के प्रकाश तथा विवेक के अभाव में मनुष्य भटक जाता है, और तीर्थ यात्रा निष्फल जाती है ।

ईश्वर पर अपना विश्वास गुरु जी ने निम्न प्रकार अभिव्यक्त किया –

कुछ व्यक्ति अपने पुत्रों तथा भाइयों पर विश्वास करते हैं, कुछ व्यक्ति अपने वैवाहिक सम्बन्धियों, अपने जामाताओं पर विश्वास करते हैं, कुछ व्यक्ति किसी विशेष उद्देश्य के लिए अपने राजा अथवा मुखिया पर विश्वास करते हैं, किन्तु मैं केवल उस ईश्वर पर विश्वास करता हूं जो सर्वत्र विद्यमान है ।

मेरा विश्वास ईश्वर पर है, ईश्वर मेरा अवलम्बन है । आगे उन्होंने कहा – “ईश्वर का नाम जपो, वह अनन्त तथा असीम है, उसके स्मरण करने से सारे पाप दूर हो जाते हैं, और व्यक्ति के पूर्वजों की रक्षा होती है । हे मेरे पुत्र, ईश्वर का नाम जपो, तथा उसका ध्यान करो । ईश्वर ही हमें सभी पदार्थ देता है । ईश्वर की भक्ति करो । हे मेरी आत्मा, तुम इसी प्रकार इस भयानक सागर को पार कर सकती हो (जन्म-मरण के चक्कर से छूट सकते हो)। ”

गुरु रामदास जी ने सिख के लिए निम्न नित्यचर्या निर्धारित की –

“जो अपने आपको सच्चे गुरु का सिख कहता है, वह प्रातः काल जल्दी उठता है, और भगवान् के नाम का स्मरण करता है । “वह अमृतवेला में उठता है, और पवित्र सरोवर (अमृतसर) में स्नान करता है । तब वह गुरु के निर्देशानुसार हरि का नाम जपता है । इस प्रकार वह अपने सभी पापों को उतार फेंकता है । तब पौ फटने पर वह गुरु की वाणी का गान करता है, तब बैठे अथवा खड़े ईश्वर का नाम जपता है ।”

जो प्रत्येक सांस के साथ ईश्वर के नाम का स्मरण करता है, तथा भोजन करते समय भी ईश्वर का नाम लेता है, वह सिख गुरु का प्यारा होता है ।

जिस पर ईश्वर की कृपा होती है, गुरु उसे ही उपदेश देता है । मैं ऐसे सिक्ख की पदधूलि प्राप्त करना चाहता हूं । जो स्वयं ईश्वर का नाम जपता है, तथा औरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है ।

आगे उनका कथन है –

तुम सभी युगों में अपने उपासकों को उपहार देते हो, हे सर्वशक्तिमान ईश्वर यह सभी तुम्हारी अनुकम्पा है । ईश्वर अनन्त है, अमर है, कोई उसका मूल नहीं जानता । उसने अनेक ब्रह्मा तथा विष्णु रचे, किन्तु वे सभी अहंकार के माया जाल में खो गए । तुमने प्राणियों की चौरासी लाख योनियों को उत्पन्न किया, तथा उन सभी के लिए आजीविका की व्यवस्था की है ।

गुरु रामदास जी बड़े योग्य व्यक्ति थे तथा उनके गुरुत्व काल में सिक्खों की भेंट में बहुत वृद्धि हुई । अमृतसर नगर की स्थापना करके उन्होंने महान् राष्ट्र के रूप में सिखों को भावी महत्ता की नींव डाली । उनके तीन पुत्र थे – पहला, महादेव फकीर बन गया, दूसरा, पिरथीदास बहुत अधिक सांसारिक व्यक्ति था, तथा तीसरा अर्जुन नम्रता, सद्गुणों तथा आत्म-बलिदान का प्रतीक था, गुरु-गद्दी के लिए उत्तराधिकारी बना । इस प्रकार गुरु के परिवार में आनुवंशिक उत्तराधिकार की परम्परा चली और सिक्ख धर्म के प्रचार के अपने उद्देश्य में पर्याप्त सफलता प्राप्त करने के पश्चात् सितम्बर, १५८१ में गुरु रामदास जी परलोक सिधार गए । वे १५७५ से लेकर १५८२ तक सात वर्ष की अवधि के लिए बाबा नानक की गद्दी पर गुरु के पद पर आसीन रहे, तथा आज भी सभी सिक्ख श्रद्धा तथा आभार के साथ उनका स्मरण करते हैं ।

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