गोपाल गणेश आगरकर | Gopal Ganesh Agarkar
“माँ अगर तुम्हारे मन में यह विचार हो कि मैं अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद बड़े वेतन की नौकरी कर लूगा और तुम्हें अमीरी में रखूंगा, तो यह विचार छोड़ दो। मैंने निश्चय किया है कि शिक्षा पूरी करने के बाद, मैं पैसे के पीछे नहीं दौडूंगा। पेट भरने के लिए जितना धन आवश्यक है, उतना ही मैं कमाऊंगा और बाकी सब समय देश और समाज के कल्याण में व्यतीत करूंगा।“
ये शब्द आज से लगभग १०० वर्ष पहले एक युवक ने अपनी मां को लिखे थे । युवक मेधावी था और उतना ही निर्धन। छोटी-छोटी नौकरी कर, वह पढ़ाई के लिए आवश्यक धन अर्जित करता था और अपने परिश्रम से बी.ए. पास कर एम. ए. में पढ़ रहा था | उन दिनों बहुत थोड़े लोग ही बी.ए. होते थे। पास होते ही उन्हें अच्छा वेतन, सम्मान सब मिल जाता था। पर इन सबको ठुकरा कर इस युवक ने देश-सेवा का व्रत लिया और निर्धनता को अपनाया। इस युवक का नाम था- गोपाल गणेश आगरकर।
महाराष्ट्र में हिंदू समाज के सुधार, विशेषतया स्त्रियों की उन्नति का जो कार्य हुआ, उसमें वह अग्रणी माने जाते है। ३९ वर्ष की छोटी आयु में उन्होंने जो कार्य किया, उसके लिए उनका नाम आज भी आदर से लिया जाता है।
गोपाल गणेश आगरकर का जन्म
आगरकर परिवार किसी जमाने में बहुत संपन्न था । लेकिन आगरकर के पिता गणेश पंत के समय तक परिवार निर्धन हो चुका था। आगरकर का जन्म १४ जुलाई १८५६ को हुआ |
गोपाल गणेश आगरकर की शिक्षा
उनकी प्रारंभिक शिक्षा ननिहाल कहाड़ में हुई। बचपन में आगरकर पढ़ाई और शरारत, दोनों में हमेशा आगे रहते थे। उनकी पढ़ाई जारी रखने की बड़ी इच्छा थी, पर गरीबी के कारण यह असंभव था। लाचार होकर उन्हें कहाड में मुंसिफ की अदालत में क्लर्क की नौकरी करनी पड़़ी।
उनकी बुद्धि और पढ़ने की लालसा से मुंसिफ भी प्रभावित हुए। इसी बीच आगरकर को पता चला कि उनके एक दूर के रिश्तेदार रत्नागिरी में अच्छे पद पर हैं और संभवत: शिक्षा प्राप्त करने में कुछ सहायता करेंगे। फिर वह कहां चुप बैठने वाले थे, वह मुंसिफ के पास गए और उन्हें अपना इरादा बताया। मुंसिफ साहब ने उनका त्यागपत्र तो स्वीकार किया ही, साथ-साथ राह खर्च के लिए उनको ७५ रुपये भी दिए। १६ वर्ष के आगरकर पैदल ३०० मील चलकर रत्नागिरी पहुंचे। पर दुर्भाग्य ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। जिस रिश्तेदार के पास वह इतनी आशा से आए थे, उसकी अचानक मृत्यु हो गई। उनके परिवार के लोगों ने आगरकर को आश्रय तो दिया, लेकिन अधिक कुछ करने में वे भी असमर्थ थे। आगरकर स्कूल जाने लगे। उदर-निर्वाह के लिए वह लोगों के घर पर छोटे-मोटे काम करते थे। इतनी आर्थिक कठिनाई झेलते हुए भी उन्होंने कभी अपना स्वाभिमान न छोड़ा। एक दिन उन्हें किसी कारणवश स्कूल पहुंचने में देर हो गई। उनके अध्यापक ने उनको डांटा और कहा, “तुम नालायक हो। तुम जीवन में क्या कर सकोगे?” बालक आगरकर ने तत्काल उत्तर दिया, “अगर आपकी तरह एम.ए. नहीं हुआ तो मैं नाम बदल दूंगा।“
उनकी स्पष्टवादिता और साहस के लिए उनके अध्यापक भी उनसे बहुत प्रेम करते थे और उनकी यथाशक्ति सहायता भी करते थे।
नवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी कर वह कहाड वापस आ गए। पढ़ना वह चाहते थे, पर कोई रास्ता दिखाई न देता था। उन दिनों कंपाउंडर के काम का कोई प्रशिक्षण न होता था लोग काम करते-करते ही सीख जाते थे। काम उनके मन का न था, पर करते क्या? एक दिन ऊब कर उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
इसी बीच उनके एक मामा की अकोला बदली हुई। वह आगरकर को अपने साथ ले गए। मामी वहां थी नहीं। आगरकर खाना पकाकर मामा को खिलाते थे और स्कूल में पढ़ते थे इस प्रकार उन्होंने १९ वर्ष की आयु में मैट्रिक-परीक्षा पास की।
कोई साधारण विद्यार्थी होता तो इतनी कठिनाई के बाद मैट्रिक पास करने पर अपने-आप का धन्य समझता और आराम से बैठ जाता। कुछ लोगों ने उनसे ऐसा कहा भी। पर आगरकर आगे बढ़ना चाहते थे। उनके अध्यापक भी उनसे प्रभावित थे और उन्होंने कुछ चंदा कर उन्हें पूणे भेज दिया। पुणे का डक्कन कालेज उस समय सारे महाराष्ट्र में विद्या का प्रमुख केंद्र माना जाता था।
जब आगरकर पुणे आए, तो उनके पास केवल ६० रुपये थे | कालेज की चार साल की पढ़ाई पूरी करनी थी और पैसे का कोई प्रबंध न था । उन्होंने अकोला के एक समाचार पत्र को पुणे से समाचार भेजना शुरू किया। वेतन था, पांच रुपया महीना। साथ-साथ उन्होंने ऐसी लेख और भाषण प्रतियोगिताओं में भाग लेना आरंभ किया, जिनमें प्रथम आने वाले को पारितोषिक में रुपये दिए जाते थे। दो प्रतियोगिताओं में वह प्रथम भी आए और उनको पुरस्कार में ९० रुपये मिले। पर सारा पैसा फीस, किताब, कापी, भोजन आदि पर खर्च हो जाता था | कपड़ों के लिए कुछ न बचता था। बहुत दिन तक तो उनके पास एक ही कुर्ता था। वह रात को उसे धोते थे और सबेरे सूखने पर पहनते थे।
गोपाल गणेश आगरकर का विवाह
उन दिनों विवाह छोटी आयु में होते थे। आगरकर जब बी.ए. में पढ़ते थे, तभी उनका विवाह हो गया।
बड़ी मुसीबत झेलकर वह बी.ए. हुए। फिर वही सिलसिला आरंभ हुआ। जब एम.ए. की परीक्षा निकट आई तो उनके पास परीक्षा की फीस के लिए रुपये न थे। उन दिनों महाराष्ट्र में नाटकों की बड़ी धूम थी। उन्होंने भी एक नाटक-मंडली के लिए नाटक लिखना आरंभ किया। उनका विचार था कि नाटक बेचकर जो पैसे मिलें, तो उनसे फीस दी जाए। वह दिन-भर पढ़ते थे और रात में नाटक लिखते थे। जब प्राध्यापक छत्रे को इस बात का पता चला तो उन्होंने फीस जमा करवा दी, जिससे आगरकर मन लगाकर पढ़ सके। स्कूल और कालेज में उनको जो कष्ट सहने पड़े, उसके कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया।
गोपाल गणेश आगरकर और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
कालेज में उनकी एक युवक से मित्रता हुईं। वह भी देश-प्रेम और सेवा की भावना से प्रेरित था। बाद में वह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाम से सारे संसार में प्रसिद्ध हुआ। दोनों का उद्देश्य एक था, पर उनके तरीकों में थोड़ा अंतर था। आगरकर का विचार था कि देश की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि समाज-सुधार पहले हो।
न्यू इंग्लिश हाई स्कूल की स्थापना
तिलक का कहना था कि देश स्वतंत्र होने के बाद समाज सुधार का काम आसान हो जाएगा। पर दोनों मानते थे कि सरकारी स्कूलों में जो शिक्षा दी जाती थी, उससे विद्यार्थियों में देश-प्रेम नहीं, विदेशी सरकार के प्रति स्वामी-भक्ति की भावना को बल मिलता था। इस कारण इन दोनों ने प्रसिद्ध विद्वान विष्णुशास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर पुणे में न्यू इंग्लिश हाई स्कूल स्थापित किया।
शिक्षा-प्रसार के साथ-साथ जनता में जागृति करने के लिए इन तीनों ने दो समाचारपत्र, मराठी में केसरी और अंग्रेजी में मराठा भी प्रकाशित करना आरंभ किया।
इन दोनों में जनता की बात बड़ी दृढ़ता से कही जाती थी। कोल्हापुर के महाराज पर जो अन्याय हो रहा था, उसके विरोध में इन पत्रों में जो लेख प्रकाशित हुए, उनके कारण तिलक और आगरकर मानहानि के अपराध में कारावास का दंड हुआ। यह पहला अवसर था, जब किसी लोकप्रिय संपादक को जनता की बात कहने के लिए जेल जाना पड़ा।
फर्ग्युसन कालेज की स्थापना
छुटने के बाद महाराष्ट्र की जनता ने जिस उत्साह से इन दोनों का स्वागत किया, उससे सिद्ध हो गया कि जनता को इनमें विश्वास था। जेल से छूटने के बाद फिर ये दोनों समाचारपत्र और स्कूल के काम में लग गए। शीघ्र ही इनकी संस्था का फर्ग्युसन कालेज भी खुल गया, जो आज भी देश के प्रमुख महाविद्यालयों में गिना जाता है।
गोपाल गणेश आगरकर और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक मे मतभेद
इस बीच तिलक और आगरकर के मतभेद भी बढ़ गए थे। तिलक चाहते थे कि पहले स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करना चाहिए, तो आगरकर पहले समाज-सुधार के हामी थे | अंत में तिलक कालेज और स्कूल से अलग हो गए और आगरकर केसरी और मराठा समाचारपत्रों से।
इन दो मित्रों के दृष्टिकोण में बड़ा अंतर था। तिलक का दृष्टिकोण व्यावहारिक था। वह सोचते थे कि देश को स्वतंत्र कराए बिना सुधार की बात करना बेकार है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के प्रयास में वह जन-साधारण को, जिनमें अधिकांश रूढ़िवादी थे, साथ लेकर चलना चाहते थे, यही पर अप्रिय और अनावश्यक बात कहने में उनको आपत्ति थी, क्योंकि उनका विचार था कि इससे मतभेद बढ़ेगा और लोगों का ध्यान स्वतंत्रता-प्राप्ति के ध्येय से भटक जाएगा।
आगरकर आदर्शवादी थे और उनका कहना था कि सही पर अप्रिय बात को न कहना, बचना है। उनका विचार था कि समाज-सुधार के बिना स्वतंत्रता भी बेकार सिद्ध होगी। विरोधी विंचारों के ये दो मित्र इतने दिनों तक साथ काम कर सके, इसका कारण यह था कि दोनों में देश-सेवा की तीव्र इच्छा थी और दोनों एक-दूसरे का आदर करते थे।
अब तक आगरकर फर्ग्युसन कालेज के प्रिंसिपल हो चुके थे। पर उनके मन में यह असीम इच्छा थी कि समाज के पीड़ित और उपेक्षित अंग, विशेषतः स्त्रियों की उन्नति के लिए कुछ करना चाहिए।
गोपाल गणेश आगरकर की समाज सेवा
उन दिनों महाराष्ट्र में स्त्रियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। छोटी आयु में विवाह हो जाता था और लड़कियों को पढ़ाना पाप समझा जाता था। ब्राह्मण-घरों में पति के मरते ही स्त्री का, चाहे वह ८ वर्ष की हो या ६० वर्ष की, सिर मुंड़ा दिया जाता था और सारा जीवन रिश्तेदारों की सेवा-चाकरी में बिताना पड़ता था। आगरकर के मन में इनके प्रति असीम करुणा थी। पर जनता इस व्यवहार को धर्म का नाम देती थी और उसके विरुद्ध कोई बात सुनना न चाहती थी। “केसरी” पत्र तो तिलक के हाथ में था, इसलिए जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्होंने “सुधारक” नामक पत्र निकाला।
सुधारक का पहला वर्ष पूरा होते ही उन्होंने आमदनी और खर्च का पूरा हिसाब फैलाया। इससे पता चला कि पत्र को सारे वर्ष में केवल ३० रुपये का लाभ हुआ। संपादक आगरकर को एक वर्ष के कठिन परिश्रम का मुआवजा मिला, ढाई रुपये महीना। महाराष्ट्र में प्रगतिशील पढ़े-लिखे लोग आगरकर को अपना गुरु और सुधारक को अपना मुखपत्र मानने लग गए थे। पर जन-साधारण में इनका विरोध होता था। इसका कारण यह था कि स्त्रियों की शिक्षा, विधवा-विवाह आदि के बारे में आगरकर के विचार उस समय के समाज में बिल्कुल अप्रिय थे। इस कारण उन्हें कड़ा विरोध और निंदा सहन करनी पड़ी।
उनको हत्या की धमकी दी गई, जीते-जी उनकी श्मशान-यात्रा निकाली गई और “सुधारक” की होली जलाई गई। पर वह कहां डरने वाले थे। उनका नारा था – “जो उचित है, वह कहुँगा, और जो संभव है, वह करूंगा।“ इसके अनुरूप ही उनका आचरण था। किसी भी विरोध या निंदा की परवाह किए बगैर वह स्त्रियों को समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए झगड़ते रहे। जब महर्षि घोंडो केशव कर्वे ने विधवा-विवाह किया तो आगरकर ने अपने घर बुलाकर उनका सम्मान किया। उन दिनों विधवा-विवाह करने वाले स्त्री-पुरुषों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता था | ऐसी परिस्थिति में महर्षि कर्वे को घर बुलाना बड़ी हिम्मत की बात थी।
आगरकर का दृष्टिकोण बुद्धिवादी था। जो बात तर्क और बुद्धि के विपरीत हो, उसे धर्म, परंपरा और रूढ़ि के नाम पर उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। वह व्यक्ति-स्वातंत्र्य में विश्वास रखते थे। वह अनीश्वरवादी थे, लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी को कभी भी पूजा करने से नहीं रोका।
गोपाल गणेश आगरकर की मृत्यु
सन् १८९५ में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और १७ जून १८९५ को सवेरे उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर तिलक और गोखले दौड़े आए। आगरकर के सिरहाने एक पुड़िया में कुछ रुपये थे। पुड़िया पर लिखा था, “मेरी अंत्येष्टि के लिए ये रुपये रखे है।“ जीवन-भर गरीबी से झगड़ने के बाद भी यह महान सुधारक यह नहीं चाहता था, कि उसकी अंत्येष्टि के लिए किसी को कठिनाई हो।
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