गोविंद बल्लभ पंत | Govind Ballabh Pant
यदि हम जवाहरलाल नेहरू के सहयोगी राष्ट्र नेताओं की बात करें, तो पंडित गोविंद बल्लभ पंत का नाम सहज ही हमें याद आ जाएगा। पंतजी १९५४ से १९६१ तक भारत के गृहमंत्री थे और उससे पहले कई वर्षों तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पंतजी लगभग ५० वर्ष तक देश के सार्वजनिक जीवन में चोटी के नेताओं में गिने जाते रहे, फिर भी उन्हें अभिमान छू तक न गया था। वह कर्तव्यपरायणता और देशहित को सर्वोपरि मानते थे।
गोविंद बल्लभ पंत का जन्म
पंडित गोविंद बल्लभ पंत (Govind Ballabh Pant) का जन्म १० सितंबर १८८७ को अल्मोड़ा जिले के एक छोटे से पर्वतीय गांव खूंट में हुआ था। उनके पिता श्री मनोरथ पंत गढ़वाल जिले में सरकारी नौकर थे । उनके लिए यह संभव नहीं था, कि वह अपने परिवार को गढ़वाल में अपने साथ रख सकें। अतः चार वर्षीय गोविंद को लेकर उनकी मां अपने पिता राय बहादुर बद्री दत्त जोशी के पास अल्मोड़ा आ गई। राय बहादुर कुमाऊँ के जुडिशियल अफसर के पद पर थे।
गोविंद बल्लभ पंत की शिक्षा
बालक गोविंद की विद्यालयी शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा में ही हुई और उसने पढ़ाई में खूब मन लगाया। आठवीं और दसवीं कक्षा में उसने प्रथम श्रेणी प्राप्त की। १९०५ में रेम्जे कालेज, अल्मोड़ा से पंतजी ने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की। यही नहीं, उन्हें छात्रवृत्ति मिलने लगी और आगे पढाई के लिए उन्हें इलाहाबाद भेजने का निश्चय किया गया। उनकी प्रतिभा से प्रभावित उनके सहपाठी उन्हें गोविंद बल्लभ “महाराष्ट्र” कहा करते थे।
लगभग १८ वर्ष की आयु में पंतजी ने म्योर सेंट्रल कालेज, इलाहाबाद में प्रवेश किया। यह वह समय था जबकि २०वीं सदी के उदय के साथ-साथ भारत में भी नवजागरण आ चुका था। इन्हीं दिनों “बंग-भंग आंदोलन” से भारतीय राष्ट्रवाद को बल मिला। पंडित पंत, जो उन दिनों मैक्डानल हिंदू बोर्डिंग हाउस में रह रहे थे, इन सब बातों के प्रति जागरूक थे यह बोर्डिंग हाउस महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के अथक प्रयत्नो से स्थापित हुआ था और इसके छात्रों को उनसे सीधा संपर्क था। अतः पंडितजी के ऊंचे आदर्शों, परिष्कृत विचारों और चरित्र से पंतजी का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था।
मालवीयजी स्वराज्य और स्वतंत्रता के लिए सदा लड़ते रहे। कोई आश्चर्य नहीं यदि समय आने पर पंडित पंत भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
फरवरी १९०७ में गोपाल कृष्ण गोखले के इलाहाबाद आने पर आम सभा का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता पंडित मोतीलाल नेहरू ने की। गोखले एक घंटे से अधिक समय तक बोले और उन्होंने देशवासियों से मातृभूमि के लिए सब कुछ न्यौछावर करने के लिए कहा। इस ओजपूर्ण वक्तृता का छात्र पंत के संवेदनशील मन पर गहरा असर पड़ा। उन्होंने सोचा कि देशसेवा के लिए नौकरी करना उचित न होगा। उनके घर वाले उन्हें डिप्टी कलेक्टर देखना चाहते थे किंतु पंतजी ने वकालत का स्वतंत्र व्यवसाय अपनाने की सोची। साथ ही उन्होंने विश्वविद्यालय के बाहर तथा कुंभ मेले में देशभक्ति से ओत-प्रोत भाषण देने आरंभ कर दिए। इससे विश्वविद्यालय के अधिकारी बहुत अप्रसन्न हुए और पंतजी को बी.ए. फाइनल परीक्षा में बैठने की अनुमति न दी, किंतु कुछ गणमान्य व्यक्तियों के बीच-बचाव के कारण उनको अंततः अनुमति मिल गई।
सन् १९०९ में गोविंद बल्लभ पंत ने एल.एल.बी. की परीक्षा पास की। वह विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम रहे और उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। अपने विद्यार्थी जीवन में उन्होंने वाद-विवाद आदि में खूब भाग लिया। वह कभी बोलते हुए घबराते नहीं थे और उनके तर्क युक्तिसंगत होते थे। उनकी स्मरण शक्ति भी बहुत तेज थी। एक बार बहस का विषय था कि अंग्रेजी शासन के अधीन भारत की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई है। पंडित पंत ने इतना सुंदर भाषण दिया कि उनके प्रधानाचार्य प्रोफेसर आर.के. सोराबजी ने कहा कि पंत एक दिन भारत का प्रधानमंत्री बनेगा। यह भविष्यवाणी आने वाले वर्षों में लगभग ठीक ही निकली।
गोविंद बल्लभ पंत के कार्य
पाठ्यक्रम के अलावा भी छात्र पंत को पुस्तकों से प्रेम था। उन्होंने रमेशचंद दत्त, रानडे, स्पेंसर, मेज़िनी व जान स्टुअर्ट की पुस्तकों का गहन अध्ययन किया। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास “आनंद मठ” ने भी उनमें देशप्रेम की ज्वाला जागृत की। इस तरह से पढाई समाप्त होने तक पंडित पंत की देशसेवा की भावना दृढ़ निश्चय बन चुकी थी।
पंडित पंत ने नैनीताल में वकालत शुरू की और शीघ्र ही वह कुमाऊ क्षेत्र के अग्रणी वकील बन गए। उनमें किसी भी बात की तह तक पहुंच जाने की क्षमता थी। यह गुण उनके राजनैतिक जीवन में भी काम आया। उनकी आय बहुत होती थी और उनका हृदय भी विशाल था। उन्होंने भरसक दूसरों की मदद की।
अगस्त १९१७ में लायड जार्ज ने इंग्लैंड में नई सरकार बनाई। इसी सरकार ने सर्वप्रथम भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। इस सिलसिले में लार्ड साउथबरी के नेतृत्व में दो कमेटियां भारत आई। पंडित पंत ने इन समितियों के सामने लखनऊ में गवाही दी। जून १९१८ में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड ने भारतीय संवैधानिक सुधारों के बारे में जो रिपोर्ट तैयार की थी उसमें कुमाऊ क्षेत्र को ध्यान में नहीं रखा गया था | कुमाऊं को पिछड़ा इलाका माना गया था। पंतजी ने कुमाऊँ को मताधिकार दिलाने के लिए जोरदार वकालत की। उन्हीं के प्रयत्नों से कुमाऊं को पिछड़े इलाको की सूची से हटाया गया। इससे पहले १९१६ में पंतजी लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में भी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कुमाऊं प्रतिनिधि के रूप में गए थे। इस तरह से वकालत के साथ-साथ उनका राजनैतिक जीवन भी आरंभ हो गया। १९२६ में जब काकोरी कांड के अमर देशभक्तों पर मुकदमा चलाया गया, तो पंडित पंत ने बचाव पक्ष के मुख्य वकील के रूप में अपनी निर्भीकता तथा देशप्रेम का परिचय दिया।
मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के फलस्वरूप विधान मंडलों के लिए नवंबर १९२९ में चुनाव हुए। पंडित पंत नैनीताल जिले से उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए चुने गए। ८ नवंबर, १९२७ को जब अंग्रेज सरकार ने भारत के लिए संविधान बनाने के हेतु साइमन कमीशन की नियुक्ति की तो पंडित पंत ने कहा था कि कांग्रेस किसी बाहरी एजेंसी के इस अधिकार को नहीं मानती कि वह भारत के लिए संविधान बना सकती है। कांग्रेस का दावा है कि संविधान बनाना हर देश का अपना निजी मामला है। मद्रास में कांग्रेस के ४२वें अधिवेशन में भी साइमन कमीशन की नियुक्ति की | पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती ऐनीबेसेंट, पंडित मदन मोहन मालवीय और पंडित पंत ने कठोर आलोचना की। पंडित नेहरू का प्रस्ताव कि हमारा लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता है स्वीकार किया गया। एक दूसरे प्रस्ताव द्वारा साइमन कमीशन के बहिष्कार का निश्चय किया गया। परिणामस्वरूप हर जगह साइमन कमीशन का बहिष्कार किया गया और कमीशन को ३१ मार्च १९२८ को वापिस इंग्लैंड लौटना पड़ा। ११ अक्तूबर १९२८ को साइमन कमीशन फिर भारत आया और ३० नवंबर को लखनऊ पहुंचा। इसके बायकाट के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू और पंतजी के नेतृत्व में बड़े उत्साह से तैयारियां की गई। पुलिस ने निहत्थे विरोधियों पर लाठियां बरसाई। नेहरू और पंत शायद बच न पाते यदि लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र उनके इर्द गिर्द घेरा न बना लेते। नेहरूजी के अनुसार उन्हें तो कोई ज्यादा चोट न आई कितु छः फुट से ऊंचे पंतजी पुलिस की लाठियों के आसान शिकार बने। इससे उन्हें इतनी गंभीर चोट आई कि वह लंबे समय तक न तो अपनी कमर सीधी कर पाए और न ही क्रियाशील जीवन बिता सके।
जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राज्यों में मंत्रिमंडल बनाना स्वीकार किया तो पंतजी सन् १९३७ उत्तर प्रदेश के कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए और इस तरह उत्तर प्रदेश में पहला कांग्रेसी मंत्रिमंडल बना। १९३९ तक, जब सारे मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया, पंतजी ने अनोखी सूझ-बुझ और दूरदर्शिता से शासन चलाया | १९४० में पंतजी व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण एक वर्ष के लिए बंदी बना दिए गए और बाद में १९४२ के असहयोग आंदोलन के सिलसिले में कांग्रेस कार्यकारिणी परिषद् के अन्य सदस्यों के साथ अहमदनगर में कैद रखे गए। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर वह केंद्रीय संसदीय बोर्ड के सदस्य चुन लिए गए और साथ ही उत्तर प्रदेश संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए।
सन् १९४६ में पंतजी पुनः उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए निर्वाचित हुए और मुख्यमंत्री बने। पंतजी ने अपने लगभग आठ वर्ष के कार्यकाल में जनसाधारण की दशा सुधारने का यथाशक्ति प्रयास किया। उन्होंने जमीदारी की प्रथा समाप्त की, तराई के विस्तृत क्षेत्र के विकास के लिए वहां पर कर्मठ और परिश्रमी किसानों को बसाया। कुमाऊं से जुड़े हुए तराई के इलाके में जंगली जानवर रहा करते थे, बीहड़ जंगल थे और यह क्षेत्र मलेरिया आदि कई बीमारियों का घर था। केवल जमीन ही उपजाऊ थी। पंतजी ने मुख्यमंत्री बनने पर इस क्षेत्र के विकास की ओर ध्यान दिया। उन्हीं के अथक प्रयास के फलस्वरूप आज वहां १६,५०० एकड़ का फार्म है। यह उचित ही है कि यह फार्म “पंतनगर” के नाम से जाना जाता है। मुख्यमंत्री के रूप में पंतजी के कुशल शासन का ज्वलंत प्रमाण था।
१९४७ के हिंदू मुस्लिम दंगों के दौरान उत्तर प्रदेश में शांति बनाए रखना जब कि पूरे देश में सांप्रदायिकता का विष फैल रहा था।
दिसंबर १९५४ में पंडित नेहरू ने पंतजी को दिल्ली बुला लिया और उन्हें गृह मंत्रालय का भार सौंप दिया। पंतजी ७ मार्च १९६१ को अपने देहांत तक इस पद का कार्य सुचारु रूप से चलाते रहे। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप पंतजी ने भारतीय राज्यों का पुनर्गठन करने के लिए समुचित विधेयक पास कराने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। संसद की राजभाषा समिति के अध्यक्ष के रूप में भी पंतजी की परिपक्व सूझ-बूझ और अनुभव से देश को लाभ हुआ। एक और बात, जिसकी ओर बेहद व्यस्त रहने के बावजूद पंतजी का ध्यान गया, वह थी संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाएं।
उन दिनों परीक्षार्थियों के लिए लिखित तथा मौखिक दोनों परीक्षाओं में अलग-अलग उत्तीर्ण होना अनिवार्य था | पंतजी ने आयोग के नियमों में परिवर्तन कराया और अब लिखित और मौखिक परीक्षाओं के पूर्णांक पर ही परीक्षार्थी चुने जाते हैं। इससे निष्पक्ष चुनाव की अधिक संभावना है। भारत सरकार ने पंतजी की असाधारण सेवाओं के सम्मानार्थ उन्हें १९५७ में सर्वोच्च पदक “भारत रत्न” से विभूषित किया था।
७ मार्च १९६१ मे दिल्ली मे गोविंद बल्लभ पंत का देहांत हो गया |