चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य – Chandragupta
II
विक्रमादित्य का अर्थ होता है “सूर्य की तरह तेजवान” | गुप्त
वंश का पांचवा सम्राट, चन्द्रगुप्त सचमुच सूर्य की तरह
तेजस्वी और बड़ा ही प्रतिभाशाली था | गुप्तकाल भारतीय इतिहास
का स्वर्ण युग कहा जाता है | समुद्रगुप्त एक महान राजा था | इसी समुद्रगुप्त का लड़का चन्द्रगुप्त द्वीतीय था |
चन्द्रगुप्त द्वीतीय ३०६ ईसवी मे राजगद्दी मे बैठा था | गद्दी
पर बैठते ही चन्द्रगुप्त ने अपने प्रतापी पिता की तरह राज्य विस्तार की तरफ ध्यान
दिया | मालवा और गुजरात के शक राजाओ को समाप्त करने का फैसला
वह बहुत पहले ही कर चुका था | इसलिए उसने पहला काम यही किया
की इन दोनों पर हमला करने की तैयारी की |
चन्द्रगुप्त बड़ा समझदार और नीति-कुशल व्यक्ति था | उसने
साम्राज्य के दक्षिण मे मालवा और गुजरात के पुर्व मे वाकाटक वंश के राजा रुद्रसेन
द्वीतीय का राज्य था | वाकाटको का राज्य बड़ा शक्तिशाली था | चन्द्रगुप्त ने देखा की यदि वह वकाटको से समझौता किए बिना मालवा और
गुजरात पर हमला करेगा तो वकाटक नरेश बीच मे बाधा डाल सकता है | इसलिए चंद्रगुप्त ने वकाटक नरेश से मैत्री करना जरूरी समझा | उसने प्रभावती नामक अपनी लड़की का विवाह वकाटक रूद्रसेन से कर दिया | अब वकाटक नरेश रूद्रसेन उनका संबंधी और मित्र बन गया | इसके बाद निश्चित होकर चन्द्रगुप्त ने मालवा और गुजरात पर हमला किया | उन्होने दोनों ही राज्यो के शक राजाओ को लड़ाई मे बुरी तरह हराया | इस प्रकार भारत भूमि मे कई सदियो के राज करने वाले इन विदेशी शासकों को
उखाड़ फेका |
दिल्ली मे महरोली नामक स्थान पर कुतुबमीनार के निकट लोहे का
एक स्तम्भ है | उस पर खुदे लेख से पता चलता है की चन्द्र नाम के एक राजा ने
पूर्व मे बंगाल के अनेक राजाओ को हराया और उसके बाद पश्चिम मे सिंधु नदी पार करके
अफगानिस्तान तथा हिंदुकुश पर्वत के उस पार वाल्हीक (बैक्ट्रिया) के राजा को भी
हराया | इतिहास मे जो सबूत मिलते है उनके आधार पर यह माना
जाता है की पूर्व मे बंगाल और पश्चिम मे वाल्हीक तक विजय यात्रा करने वाला चन्द्र
नामक यह सम्राट गुप्त वंश का चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही था |
चन्द्रगुप्त ने बंगाल, मालवा, गुजरात तथा
सौराष्ट्र के इलाके को अपने साम्राज्य मे मिला लिया | बंगाल
उस समय का सबसे अधिक उपजाऊ प्रदेश था | बंगाल के मिल जाने से
गुप्त साम्राज्य मे धन-धान्य की कमी नही रह गई |
उधर मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र के मिल जाने से अरब
सागर का व्यापार भी उनके हाथ मे आ गया | यहा के बंदरगाहों से
विदेशो मे माल जाता था और व्यापारी बहुत रूपय कमाकर लाते थे | मालवा की राजधानी उज्जैन व्यापार का एक प्रसिद्ध केन्द्र था | चन्द्रगुप्त ने उज्जैन को अपने साम्राज्य की दूसरी राजधानी बना दिया | असली राजधानी पाटलिपुत्र मे ही रही |
चन्द्रगुप्त के राज्यकाल मे फाहान बौद्ध भिक्षु था और बौद्ध
धर्म ग्रंथो का अध्ययन करने के लिए चीन से पैदाल चल कर गोबी का रेगिस्तान पार करता
हुआ पेशावर होकर भारत आया | वह पेशावर से पंजाब और पंजाब से मथुरा, काशी, कन्नौज, कुशीनगर, वैशाली आदि नगरो का भ्रमण करता हुआ पाटलीपुत्र पहुचा | पाटलीपुत्र मे वह तीन साल तक रहा और वहा उसने संस्कृत भाषा का अध्ययन
किया |
फाहान ने अपने भारत भ्रमण के बारे मे जो लिखा है उससे
चन्द्रगुप्त के समय के भारत की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक अवस्था पर अच्छा
प्रकाश पड़ता है | चन्द्रगुप्त के साम्राज्य मे ब्राम्हण धर्म
का ज़ोर था | स्वयं चन्द्रगुप्त वैष्णव था | लेकिन बौद्ध तथा दूसरे धर्म के अनुयायियों को अपना-अपना धर्म मानने की
पूरी छूट थी | स्वयं चंद्रगुप्त के दो मंत्री ऐसे थे जिनमे
से एक शैव धर्म का मानने वाला और दूसरा बौद्ध धर्म का मानने वाला था | अहिंसा का बोलबाला था | हिन्दू धर्म का ज़ोर बढ़ रहा
था और बौद्ध धर्म का हास होता जा रहा था | केवल पंजाब और
बंगाल मे ही उस समय बौद्ध धर्म का ज़ोर था | लोगो पर ज्यादा
कर नही लगाया जाता था और जनता बड़ी सुखी और सम्पन्न थी |
गुप्त सम्राटों ने सोने, चांदी और तांबे के सिक्के
चलवाए थे | चन्द्रगुप्त केवल वीर और पराक्रमी विजेता ही नही
था बल्कि विद्वान और योग्य शासक भी था | उनके राज्य मे अनेक
विधवान, कवि और विध्याप्रेमी रहते थे |
महाकवि कालिदास चन्द्रगुप्त के नवरत्नो मे से एक थे |
चंद्रगुप्त बड़ा ही धर्मप्रिय और विध्याप्रेमी था | वह
विधवान और गुणी व्यक्तियो का आदर करने वाला तथा प्रजा की सेवा और उनके सुख-दुख की
चिंता करने वाला राजा था | चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य के
अलावा “विक्रमांक”, “नरेन्द्रचन्द्र”,
“सिंह विक्रम” आदि उपाधिया भी धारण के थी |
चन्द्रगुप्त मे भारत भूमि को रहे-सहे विदेशी शासको से भी
मुक्त करने के बाद ३९ वर्ष तक शांतिपूर्वक शासन किया | गुप्त
वंश के इस प्रतापी सम्राट की मृत्यु ४१४ ई॰ के लगभग हुई |
उनके बाद उनका पुत्र कुमारगुप्त सिहासन पर बैठा |