प्रसिद्ध लेखक अरूण कुमार शर्मा द्वारा लिखित
चमत्कारी मूर्ति की कहानी : अद्भुत शक्ति थी उस माला में गुथी हुई मूर्ति में । वह आगामी घटनाओं के बारे में सूचना देती थी । उसी की शक्ति से क्या से क्या हो गया, लेकिन सफलता के मद में एक ऐसा भूल हो गयी, जिसने सब कुछ उलट-पुलट कर दिया |
प्रस्तुत रचना मेरे जीवन की अविस्मरणीय, अद्भुत कहानी है । वैसे तो मेरा सारा जीवन ही अविश्वसनीय और अलौकिक घटनाओं से भरा है, किन्तु जो घटना आज आपको बताने जा रहा हूँ, वह सबसे ज्यादा विलक्षण है ।
उन दिनों मैं रंगून विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म और दर्शन का प्रवक्ता था । वहाँ कार्य करते कुछ ही दिन हुये थे कि लड़ाई छिड़ गयी और मुझे वापस लौटने के लिए बाध्य होना पड़ा । जब मेरा स्टीमर ईरावदी नदी के मुहाने के पास पहुँचा तो अचानक उसमें खराबी आ गयी । स्टीमर के इंजीनियरों के काफी कोशिशों के बावजूद भी मशीन ठीक नहीं हुई । अन्त में कलकत्ता से दूसरा स्टीमर भेजने की सूचना दी गयी, किन्तु उसे भी आने में दो दिन की देर थी ।
स्टीमर में भेड़-बकरी की तरह भरे हुए यात्री ऊबने लगे । समय काटने के लिए कुछ लोग समुद्र तट पर घूमने-टहलने निकल गये । मैं भी उन्हीं लोगों में से था । ईरावदी नदी से मीलों तक फैला हुआ घना जंगल है । वह लम्बे-लम्बे बाँसों के वृक्षों, आदमकद घासों और विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों से भरा है । घना तो इतना है कि दोपहर के समय भी सूरज की रोशनी धरती का स्पर्श नहीं कर पाती ।
सबेरे का समय था । मौसम काफी सुहावना था । आकाश में बादल घिरे हुए थे । समुद्री हवा के स्पर्श से तन-मन पुलकित हो रहा था । मैं विचारों में खोया हुआ नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ने लगा । लगभग एक मील चलने के बाद नदी के दोनों ओर जंगल का सिलसिला शुरू हो गया । मैं वापस लौटने की सोच ही रहा था कि घनी झाड़ियों के पीछे से अचानक तीस-चालीस जंगली निकल पड़े और उन्होंने चारों तरफ से मुझे घेर लिया । उनके काले तन पर केवल कमर में काले रंग की खाल लिपटी हुई थी । । इसके अलावा बाकी सारा शरीर बिल्कुल नग्न था । उन सबके बाल बड़े-बड़े थे और हाथों में उन्होंने भाले ले रखे थे ।
आप मेरी मुसीबत का अंदाजा लगाइये मै बुरी तरह से घबड़ा गया था पसीना छूटने लगा । वे सब बर्मी भाषा बोल रहे थे, जिसे थोड़ा-बहुत मैं समझ रहा था । एक जंगली उनका मुखिया-सा लग रहा था, उसे मैंने अपनी स्थिति समझाई और रास्ता छोड़ देने का आग्रह किया, लेकिन वे नहीं माने और मुझे ले जाकर अपने सरदार के सामने खड़ा कर दिया ।
मैंने सुना था कि उस जंगल में आदमखोर जंगली रहते हैं, जो इन्सानों को मारकर, नोच-नोच कर उनका कच्चा मांस खाते हैं । मैंने अब अपने जीवन की उम्मीद छोड़ दी । जब वे मुझे पकड़ कर ले जा रहे थे, तो मेरी हालत उस बकरे की तरह थी, जिसे काटने के लिए ले जाया जा रहा हो । मैंने समझा था कि उनका सरदार भी खूँखार और जानवर की तरह भयानक होगा तथा मुझे देखते ही वह नोच-नोच कर खाना शुरू कर देगा, लेकिन वह तो फरिश्ता जैसा निकला । उसने मुझे सांत्वना दी कि वे लोग हमेशा आदमी नहीं खाते, सिर्फ खास-खास त्योहारों पर अपने देवता के सामने आदमियों की बलि देते थे और बलि भी उन आदमियों की दी जाती जो साठ साल के ऊपर के हों या उन औरतों की, जो बाँझ हों ।
उस नेकबख्त सरदार ने बन्दर का मांस परोस कर मेरा स्वागत किया और अपनी ह्री झोपड़ी में मेरे ठहरने की व्यवस्था कर दी ।
मैं समझ गया कि अब छुटकारा मिलने वाला नहीं है । मेरे एक सहयात्री मित्र थे । मेरे सामानों को वे कलकत्ता पहुँचा देंगे, इसलिए मुझे उसकी चिन्ता नहीं थी, चिन्ता तो मुझे अपनी थी कि अब मैं कैसे वापस लौटूंगा ? मैंने ध्यान दिया कि सरदार मेरी कलाई में बँधी सुनहरी कीमती घड़ी को बड़ी ललचायी आँखों से देख रहा था । एकाध बार उसने उसे अपने हाथों में भी लेकर देखा । और मैंने जुआ खेल डाला । घड़ी उतार कर मैंन सरदार को दे दी । बस, उसकी खुशी का ठिकाना न रहा । बदले में उसने अपनी बस्ती की जवान, सुन्दर और कम उम्र की लड़कियाँ और कीमती पत्थर देने का वादा किया, किन्तु मेरी नजर उसके गले में पड़ी हरे मोतियों की कोमती माला पर थी ।
उस माला में लाकेट की जगह स्फटिक जैसे पत्थर की एक विचित्र मूर्ति लगी हुई थी, जिसमें से रात के समय रुपहली किरणें निकलती थीं । फिर भी मैंने उस समय अपनी इच्छा जाहिर नहीं की थी । आखिर जब मैं झोपड़ी में जाकर चुपचाप लेट गया, तो वह अपने आप मेरे पास आया और कहने लगा – “मैं तुम्हारे मन की बात जान गया, तुम मेरे गले मे पड़ी ये माला चाहते हो ना ! ”
‘मैं मैंने सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति प्रकट कर दी ।
वह बोला, ‘हिरे मोतियों से कीमती इसकी मूर्ति है । हीरे-जवाहरातों की कीमत इसके सामने कुछ भी नहीं है । यह मूर्ति तुमको पुर असर और अमीर बना देंगी । इतना ही नहीं, बल्कि खास-खास बातों के अलावा किसी घटना के घटित होने के चौबीस घण्टे पहले ही यह उसके बारे में स्वप्न में बता देगी।’ यह कह कर उसने गले से उतार कर वह माला मुझे थमा दी । मैंने ध्यान से मूर्ति की ओर देखा-चमकते पत्थर पर एक विचित्र खुदी हुई थी, जिसका सिर राक्षस जैसा था ।
सरदार ने बतलाया कि वह चमत्कारी मूर्ति गाँव के इष्ट देवता की है, जिसे चौदह बाँझ औरतों के खून से नहलाया गया है, किन्तु वह असर तभी करेगी, जब गले में रहेगी । उस मूर्ति में दैवी ताकत थी । सरदार के उस तोहफे का पहला करिश्मा दूसरे ही दिन देखने को मिल गया ।
उस रोज सरदार ने मेरी दोस्ती की खुशी में पूरी बस्ती को दावत दी थी । गाँव के सिरे पर इष्ट देवता का ‘थान’ था । दोपहर से ही लोग वहीं जमा होने लगे । मर्दो की तरह जवान, अधेड़, बूढ़ी औरतें भी सिर्फ कमर में काले रंग की खाल लपेटे थीं । सबके हाथ में बाँस का डण्डा था । मैं सरदार के साथ जंगली घास की चटाई पर बैठा हुआ था । ठीक समय पर थान के चबूतरे पर सूअर की बलि दी गयी, फिर एक जंगली भैंसा मारकर उसका मांस भूना गया । सभी ने बड़े चाव से वह मांस खाया और जी-भर कर शराब पीयी ।
मुझे भी मांस और शराब दी गयी मगर मैंने उसे छुआ तक नहीं । मुझे मिचली सी आ रही थी । न जाने किस चीज की बनी थी वह शराब । थोड़ी देर बाद औरत-मर्द सब मिलकर नशे में नाचने लगे । सबसे अन्त में एक विचित्र खेल शुरू हुआ ।
जमीन पर शतरंज जैसा नक्शा बना हुआ था । बीच वाले दायरे में दस सुपाड़ी जैसी छोटी-छोटी कोई चीज रख दी गयी । सरदार ने मुझे उस चीज का नाम ‘टक्की’ बतलाया, फिर खेल के बारे में समझाते हुए कहा, ‘खिलाड़ी अपनी ‘टक्की’ से उन ‘टक्कियों’ पर निशाना लगाता है, जो कम से कम निशाने में दसों टक्कियों को दायरे से बाहर कर देता है, उसी की जीत समझी जाती है।’ फिर सरदार ने मेरा मुकाबला एक ऐसे खूँखार जंगली से करवा दिया जो हमेशा तीन बार में दसों टक्कियों को दायरे से बाहर निकालने में सफल हो जाता था । मैं सकपका गया, लेकिन सरदार ने मुझे हौले से याद दिलाया कि जब चमत्कारी मूर्ति मेरे पास है, तब फिर कैसी चिन्ता सरदार ने मुझे राय दी कि बाजी पर अपनी सूती जाकेट रख दूँ । वहाँ के लोग उसे काफी कीमती समझ रहे थे मगर जब मेरी सूती जाकेट के बदले मुकाबले में खेलने वाले जंगली ने सोने की एक माला रख दी तो मुझे आश्चर्य हुआ । उसका एक-एक दाना अंगूर के बराबर था । खेल शुरू हुआ ।
उस खिलाड़ी ने तीन ही निशाने में दसों टक्कियों को दायरे से बाहर निकाल दिया अब मेरी बारी आयी दँग रह गया मै आपको भी सुन कर हैरान होगी कि मेरी टक्की अपने आप मेरे हाथ से निकल कर तेज गोली की तरह दायरे में पहुंची और चक्कर लगाती हुई उसने सभी टक्कियों को दायरे से बाहर निकाल दिया ।
मेरे जौहर ने सारी बस्ती में तहलका मचा दिया । अब तक एक ही निशाने में कोई भी दसों टक्कियों को निकालने में कामयाब नहीं हुआ था । मैंने यही करिश्मा कर दिखाया था । सब प्रशंसा भरी आँखों से मुझे देख रहे थे ।
जंगल में रहने के बाद मैं वापस कलकत्ता शहर पहुचा ।
अब यहीं से शुरू होती है उस विचित्र मूर्ति की चमत्कारी कहानी । कलकत्ता में उसी चमत्कारी मूर्ति की सहायता से मैंने एक साल के अन्दर ही रेस-कोर्स और शेयर मार्केट के जरिये लाखों रुपये कमाये । रात में सपने में मुझे नम्बर और भाव अपने आप मालूम हो जाया करते थे । इतना ही नहीं, मैं जो कुछ मन में सोचता, वह सब पूरा हो जाता था । जिसका चाहता था, उसके मन की बात जान लेता था । इन अलौकिक शक्ति से मुझे अहंकार हो गया ।
मैं अपने को दैवी शक्ति सम्पन्न समझने लगा । मेरे लिए एक सीमा तक कुछ भी असम्भव नहीं था, लेकिन यही समझना मेरे लिए घातक हो गया । इसी भावना ने मेरी सुख, शान्ति, ऐश्वर्य और ऐशो-आराम की जिन्दगी में कहर ढा दिया । मेरे जीवन का सुनहरा पृष्ठ जल कर सहसा भस्म हो गया । इतना ही नहीं, चन्द्रा भी मुझसे हमेशा-हमेशा के लिए छिन गयी, परिणामस्वरूप मेरा जीवन उजाड़ मरघट जैसा हो गया ।
लड़ाई का जमाना था । उन दिनों मेरी सारी पूँजी शेयर मार्केट में लगी हुई थी । मैं चमत्कारी मूर्ति के बल पर जानता था कि एक हफ्ते के भीतर ही वह पूँजी तिगुनी या चौगुनी हो जायेगी ।
उस रोज सबेरे से ही बारिश हो रही थी । सायं के सात बजे थे । मैं इत्मीनान से एक दिलचस्प उपन्यास पढ़ रहा था । अचानक मुझे ऐसा लगा – जैसे रोशनी और किताब के बीच में कोई चीज आ गयी । किताब के पन्ने पर किसी की छाया पड़ रही थी । मैंने नजर उठाई तो जो कुछ देखा, उसका वर्णन करना असम्भव नहीं, तो कठिन जरूर है । वह एक काली छाया थी जो हवा में प्रकट हो रही थी । धीरे-धीरे उसने विचित्र रूप धारण की वह कुछ मनुष्य की सूरत शक्ल की ही थी, पर भी बिल्कुल छाया । वह रोशनी से काफी दूर खड़ी थी, बिल्कुल अलग और स्पाए । उसका डील-डील दैत्य की तरह था ओर उसका सिर मानो छत को छू रहा था |
मैं आँखे फाड़े उसे देख रहा था । मेरा खून पानी होने लगा और कंपकंपी छूटने लगी ऐसा लगा कि जैसे उस विकराल छाया के सिर से दो भयानक आँखें मुझे घूर रही हैं आँखों की जगह से नीली-पीली रोशनी की दो तेज किरणें मेरे ऊपर पड़ रही थी ।
मैंने चिल्लाने की कोशिश की मगर न चिल्ला सका और न बोल सका । बिस्तर से उठने की कोशिश की, पर बेकार । मुझे लगा, जैसे कोई अदम्य शक्ति मेरे ऊपर जोर डाल रही है और कोई अलौकिक शक्ति मेरे संकल्प का विरोध कर रही है । उस शक्ति का विरोध करना मानव शक्ति के बाहर की बात थी ।
अजीब आतंक की भावना ने मुझे दबोच लिया । वह भयंकर काली छाया अभी भी मेरे सामने खड़ी थी । उसकी शक्ति का मुझे इतना विकट अनुभव हो रहा था कि मेरा रोम-रोम काँप रहा था, लगा जैसे किसी भी क्षण मैं चेतनाहीन हो जाऊँगा और अन्त में मैं अचेत हो ही गया ।
उस समय शायद रात के दस बजे थे । चन्द्रा अपने कमरे में थी । उसको मेरी स्थिति का ज्ञान नहीं था । चेतनाशून्य अवस्था में जैसे मैंने स्वप्न देखा – वह विकराल काली छाया और कुछ नहीं, बल्कि उसी चमत्कारी मूर्ति का दैत्याकार भयानक रूप था । उसका चेहरा भयानक वीभत्स था । सिर पर भैंस जैसे दो सींग थे । माथा काफी चौड़ा और नीचे का जबड़ा भारी था । उसका मुँह खुला हुआ था, जिससे उसके लम्बे-लम्बे पीले दाँत दिखाई पड़ रहे थे । उसकी आँखों में मेरे प्रति घृणा और उपेक्षा की भावना थी ।
सहसा मुझे सुनाई पड़ा – ‘मेरी शक्ति को तुम अपनी शक्ति समझने लगे थे, इसलिए अब मेरी शक्ति तुम्हारे पास नहीं रहेगी।’
यह बात शायद उसी अमानवीय दैत्याकार छाया ने कही थी । इसके साथ ही उसका रोयेंदार खुरदुरा हाथ मेरी ओर बढ़ने लगा । उसकी उँगलियाँ काफी मोटी-मोटी और नाखून बेहद लम्बे थे ! हाथ बढ़ता रहा ‘बढ़ता रहा फिर सहसा उसने एक ही झटके में मेरे गले में पड़ी हरे मोतियों की माला और उसमें लटकी हुई मूर्ति को नोच लिया ।
मैं एकबारगी चीख पड़ा । अपनी चीख के साथ ही मुझे एक आर्तनाद सुनाई पड़ा । मैं चौंक कर उठ बैठा । मेरा रोम-रोम कॉप रहा था । सारा शरीर पसीने से तर था । मैं गले पर हाथ फेरा, मूर्तिसहित वह माला गायब थी । घबरा कर मैंने चन्द्रा को पुकारा, मगर कोई जवाब नहीं मिला । लपक कर उसके कमरे में पहुँचा तो वहाँ का दृश्य देखकर सहसा भय और आतंक से काँप उठा । खून से लथपथ चन्द्रा की लाश फर्श पर पड़ी थी । उसकी छाती के बीचोबीच चोड़े फ़ाल का लंबा सा छूरा मूठ तक घुसा था उस लम्बे फाल वाले छुरे को पहचानने में मुझे देर नहीं लगी ।
मैंने एक बार उसे चन्द्रा के मंगेतर के हाथ में देखा था । वह उसी का छुरा था । तो क्या उसी ने उस रात चन्द्रा का खून किया था जी हाँ । उसी ने चन्द्रा को मारा था । बाद में सब कुछ मालूम हुआ । अपनी होने वाली बीबी का किसी और की बीबी बनना वह नहीं बरदाश्त कर सका । हिंसा और बदले की भावना से जल रहा था उसका हृदय । अपनी प्रेमिका की बेवफाई के कारण वह पागल हो उठा था और उसी पागलपन में वह हम दोनों का पीछा करता हुआ कलकत्ता आ पहुँचा था ।
दुर्भाग्य का कौन-सा क्षण था वह कि एक ही रात में, एक ही समय में, मुझे बुलन्दी पर पहुँचाने वाली वह चमत्कारी मूर्ति, मुझे अपने प्यार में सराबोर करन जिन्दगी देने वाली चन्द्रा – दोनों एक साथ छिन गईं मुझसे अभी मैं इस धक्के को बरदाश्त भी नहीं कर सका था, तभी पता चला कि शेयर मार्केट का भाव बराबर नीचे गिर रहा । दो दिन बाद भाव के साथ-साथ मैं भी हमेशा के लिए नीचे गिर गया बर्बाद हो गया । मेरी सारी पूँजी खत्म हो गयी । अब मेरे पास उस चमत्कारी मूर्ति की शक्ति कहाँ थी कि फिर अपने को उठाता और बुलन्दी के शिखर पर पहुँचाता ।
मेरे जीवन का यही वह क्षण है, जब मुझे पहली बार इस बात का अनुभव हुआ कि मानवीय शक्ति के ऊपर भी एक अदम्य शक्ति है । किन्तु वह कौन-सी शक्ति है ? मनुष्य उसे पा सकता है ? जीवन में उसे कैसे अनुभव किया जा सकता है ?