चाणक्य
ईसा के जन्म से लगभग
४०० साल पहले भारत ने चाणक्य नामक एक महापुरूष ने जन्म लिया था | उन्होंने अपने
बुद्धि के चमत्कार से यूनानी शासको को निकाल बाहर किया | साथ ही उन्होंने
छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक विशाल भारतीय साम्राज्य की नीव रखी | चाणक्य राजनीति
के गहरे से गहरे रहस्यों को समझते थे और कूटनीति के भी जानकार थे | चाणक्य की ही
सुझबुझ का यह फल था की चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के अत्याचारी राजा नन्द का नाश कर के
उसके राजसिंहासन पर बैठ सका | यही नहीं, चाणक्य की ही बदौलत वह बाद में अपने सारे
शत्रुओ का नाश करके विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना कर सका |
चाणक्य की प्रसिद्धि
का एक कारण और है “अर्थशास्त्र” पुस्तक जिसमे उस समय के भारत की आर्थिक और सामाजिक
दशा का पता लगता है | साथ ही उन्होंने उसमे शासन सम्बन्धी अपने जो सिद्धान्त रखे
है, उसे आज भी बेजोड़ माना जाता है | अर्थशास्त्र को पढने पर मालूम होता है की उसका
रचयिता कितना विद्धवान, गहरी सूझ-बुझ वाला और दूरदर्शी था | राजकाज के मामले में चाणक्य
की गहरी और पैनी दृष्टि का जो प्रमाण अर्थशास्त्र में मिलता है, वह उन्हे दुनिया
के योग्य से योग्य राजनीतिज्ञो और कूटनीतिज्ञो की परम्परा में बहुत ऊँचा स्थान
दिलाने में काफी है |
चाणक्य का ह्रदय
कोमल था किन्तु इसके साथ ही उनका एक दुसरा रूप भी था | न तो उन्हें अपना अपमान सहन
होता था और न अपने देश के ऊपर किसी प्रकार का संकट आने पर वह चुप बैठ सकते थे दृण
संकल्प और अद्भुत बुद्धि, ये गुण चाणक्य की सबसे बड़ी विशेषता थी |
उनके दृण संकल्प की
एक कथा प्रचलित है की रास्ते में कटीली झाड़ उगी हुई थी | चलते चलते चाणक्य के पैर
में एक कांटा घुस गया, उनके पैर में घाव हो गया और उन्हें क्रोध आ गया | उन्होंने
वही कसम खाई – मैं जब तक इस कटीली झाड़ को नहीं उखाड़ डालूँगा तब तक चैन नहीं लूंगा
| बस वह बैठ गए और एक एक पौधे को उखाड़ कर उसकी जड़ में मटठा डालने | मटठ इसलिए
डालते जाते थे की पौधा फिर से न उगे |
चाणक्य तक्षशिला के
एक विद्धवान ब्राम्हण होने के साथ ही साथ एक आचार्य भी थे | यह उस समय की बात है
जब यूनानी राजा सिकंदर विश्व विजय के लक्ष्य के साथ भारत की तरफ आ रहा था | इस
संकट को दूर करने के लिए चाणक्य ने पाटलिपुत्र के राजा धनानंद के पास यह अनुरोध
लेकर गए थे की यूनानी राजा सिकंदर को अपने देश से दूर करने के लिए अखंड भारत का
निर्माण करना आवश्यक है | पाटलिपुत्र के राजा धनानंद से आग्रह की वजह यह थी की पाटलिपुत्र
शक्तिशाली होने के साथ ही साथ समृद्ध था और वह सभी छोटे छोटे राज्यों को मिलाने
में सक्षम था |
धनानंद बड़ा लोभी था
और अपने प्रजा पर बहुत ज्यादा कर लगा कर अपने खजाने में बड़ा धन इकटठा किया था | धनानंद
भोग और विलास में मदमस्त रहता था | चाणक्य की इस सुझाओ को उसने अपना अपमान समझा और
उसे क्रोध आ गया | जिससे उसके चाणक्य को चोटी पकडकर अपने दरबार से निकाल बाहर किया
|
चाणक्य भला यह अपमान
कैसे सहन करते ? उन्हे भी बहुत क्रोध आया | मारे गुस्से के उन्होंने अपनी चोटी खोल
दी और राजा की तरफ मुह करके बोले – धन्नानद ! तूने आज जो मेरा भरे दरबार में अपमान
किया है, उसका बदला मैं तुझसे लूंगा | मैं तुझे और तेरे वंश को मटियामेट कर के मगध
के सिहासन पर किसी योग्य व्यक्ति को बैठाउंगा | मैं जब तक ऐसा नहीं कर लूंगा तब तक
अपनी चोटी नहीं बाधूंगा |
यह कहकर चाणक्य
गुस्से से भरे हुए चले गए | वह पाटलीपुत्र जा रहे थे तभी उनकी भेट चन्द्रगुप्त से
हुई | यही बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ | चन्द्रगुप्त
के साथ कुछ समय रहने से चाणक्य को पता लगा की वह बडा होनहार और साहसी है | बस, वह
उसे अपने साथ लेकर तक्षशिला चले गए | यही उन्होंने चन्द्रगुप्त को ७-८ वर्षो तक
शस्त्र विद्या और शास्त्रों की पुरी शिक्षा दी और अपनी देखरेख में उसे सब प्रकार
की विद्या सिखा कर योग्य बना दिया | बाद में चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के द्वारा ही
नन्द वंश का नाश किया |
जिस समय चन्द्रगुप्त
तक्षशिला में चाणक्य के पास रह कर शस्त्र और शास्त्र विद्या का अध्ययन कर रहे थे,
लगभग उसी समय भारत पर मकदूनिया के राजा सिकंदर ने हमला किया था | यह ईसा से ३२७
वर्ष पहले की बात है | सिकंदर सरे यूनान पर अधिकार कर चुका था और फौज यूनान के विशाल साम्राज्य को रौंदते हुए
भारत की तरफ बढ़ रही थी | सिकंदर सारे संसार को जीतने का स्वप्न देख रहा था |
सिकंदर से हमले के
समय भारत के पश्चिमी भाग में सिन्धु नदी की घाटी और पंजाब में अनेक छोटे छोटे राज्य
थे | यूनान की प्रबल और सुसंगठित सेना के सामने ये छोटे छोटे राज्य टिक नहीं सके |
कुछ राजाओ ने सिकंदर का बहादुरी से सामना किया | इनमे राजा पुरू का नाम सबसे ऊपर
है | पुरू युद्ध में पराजित हुआ | लेकिन सिकंदर और उसकी युनानी फौज को मालूम हो
गया की भारतीयों से टकराना बहुत ही मुश्किल है | उसकी हिम्मत व्यास नदी को पार
करके आगे बढ़ने की नहीं पडी और वह भारत के जीते हुए भाग़ पर अपने सूबेदार नियुक्त
करके वापस लौट आया | चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों ने ही देखा की किस तरह आपसी फुट
के कारण भारत के पश्चिमी भाग़ पर यूनानियो का शासन स्थापित हो गया | सिकंदर के लौट
जाने के बाद चाणक्य ने देश को यूनानी शासको से मुक्त करने का बीड़ा उठाया | चाणक्य
की दृष्टि में विदेशी शासक सबसे बड़ी बुराई थी | अत: चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को आगे कर
पंजाब में एक चोटी सेना एकत्र की और चन्द्रगुप्त को इस सेना का सेनापति बनाया | चन्द्रगुप्त
के हाथ मजबूत करने के लिए चाणक्य ने पंजाब के कुछ पहाडी राजाओ और गणों को भी अपने
साथ मिला लिया |
चाणक्य की बुद्धि,
चन्द्रगुप्त के युद्ध कौशल, और पंजाब के लोकतंत्री गणों की वीरता इन तीनो के मिलने
का ही फल था की सिकंदर के हमले के तीन वर्ष के अन्दर ही भारत भूमि से यूनानियो का
सफाया हो गया और विदेशी शासक का कोई निशान तक नहीं रह गया | चाणक्य ने अब अपना
ध्यान मगध की ओर फेरा | उन्हें अपनी प्रतिज्ञा याद थी | वह नन्द वंश का नाश करके
चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बैठने की योजना बनाने में लग गए |
किस तरह चाणक्य ने
अपनी कूटनीति के द्वारा राजा नन्द के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और किस प्रकार अपने
बुद्धि के बल से उन्होंने इस षड़यंत्र को सफल बनाया, इसकी कहानी बहुत लम्बी है |
विशाखदत्त के लिखे संस्कृत नाटक “मुद्राराक्षस” में इसी कथा को विस्तार से बताया
गया है | कुटनीति के सभी डाव लगाकर चाणक्य ने अंत में नन्द वंश का विनाश करने की
अपनी प्रतिज्ञा पुरी की | उन्होंने चन्द्रगुप्त को न केवल मगध के सिहासन पर बैठाया
ही बल्कि बाद में मगध के साम्राज्य को फैलाने में चन्द्रगुप्त की बराबर सहायता की
|
चाणक्य त्यागी थे | उन्होंने
कभी महलो में रहा स्वीकार अही किया | चन्द्रगुप्त जैसे प्रतापशाली सम्राट के
प्रधानमंत्री होकर भी वह कुटीया में ही रहते थे, सादा खाना खाते और सादा ही पहनते
थे | सारे साम्राज्य पर उनका हुक्म चलता था, स्वयं चन्द्रगुप्त सामने सिर झुकाकर
खड़ा होता था |
चाणक्य से समय भारत
में दो प्रकार की राज्य प्रणाली थी – राजतंत्र और गणतंत्र | उस समय भारत में जो
गणतंत्र थे, उसका राजकाज आजकल के गणतत्रो की तरह सारी प्रजा के चुने हुए प्रतिनिधि
के द्वारा ही नहीं होता था | वे प्रायः एक जाति के लोगो के पंचायती राज होते थे |
चाणक्य के सम्मति में इन छोटे छोटे गणों की तुलना में राजतन्त्र, यानी राजा का
शासन अच्छा था | इसलिए उन्होंने अपने समय के छोटे छोटे गणतंत्रो को मिटा कर एक
राजा की अधीनता स्वीकार करने की सम्मति दी |
उनके मत में राजा का
आदर्श प्रजा के कल्याण की चिंता करना होता था | वही राजा अच्छा है जो प्रजा के सुख
के आगे अपने सुख की परवाह न करे | चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में इस बात पर बहुत
जोर दिया | उनका कहना था की प्रजा के सुख में राजा का सुख है, उसकी के हित में
राजा का हित है | उन्होंने यह भी लिखा की राजा की आज्ञा के सामने वेद, धर्मशास्त्र
आदि में दी गयी हिदायते तुच्छ है | राजधर्म, मंत्रियो की परिषद, राज्य व्यवस्था, राज्य
के अर्थ की व्यवस्था, न्याय, वैदेशिक नीति आदि विषयो पर चाणक्य ने अपने
अर्थशास्त्र पर बहुत विस्तार से लिखा है | दूर दूर तक फैले हुए विशाल मौर्य साम्राज्य
में लोगो की क्या हालत है, उनके राज कर्मचारी सताते तो नहीं इसकी खबर रखने के लिए
चाणक्य ने गुप्तचरों का जाल बिछा दिया | ये गुप्तचर आजा के पास किसी भी समय जा
सकते थे और उसे सारे राज्य की पुरी खबर दिया करते थे, जिससे दूर से कर्मचारियों पर
भी राजा की निगाह रहती थी | चाणक्य की सम्मति में तलाक और विधवा विवाह प्रथाए
धर्ममत्त है | उन्होंने इसका समर्थन किया |