चैतन्य महाप्रभु | चैतन्य महाप्रभु लीला | चैतन्य महाप्रभु का जीवनी | चैतन्य महाप्रभु इतिहास | चैतन्य महाप्रभु के उपदेश | Chaitanya Mahaprabhu

%25E0%25A4%259A%25E0%25A5%2588%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AF%2B%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25B9%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25AD%25E0%25A5%2581

चैतन्य महाप्रभु – Chaitanya Mahaprabhu 


चैतन्य महाप्रभु का जन्म १४८५ ई॰ में होली के
दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था। उन
के पिता का नाम था पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का
नाम शची देवी।

नामकरण के समय उनका नाम विश्वंभर रखा गया था। वह बहुत
सुंदर और गोरे थे। लोगों ने उनका नाम गौरांग रख दिया परंतु उनकी माता उन्हें प्यार
से “निमाई” कहकर पुकारा करती थी। यह निमाई नाम ही अधिक प्रसिद्ध हुआ।
यही निमाई अंत में चैतन्य महाप्रभु के नाम से सर्वत्र पूजे जाने लगे। उनके एक बड़े
भाई
भी थे, जिनका नाम
विश्वरूप था।

नामकरण के अवसर पर निमाई के स्वभाव की जांच की गई। उनके
सामने कपड़े
, हथियार, रुपए, पुस्तकें(श्रीमद्भागवत)
आदि रख दी गई। नन्हे निमाई ने सरक-सरककर हाथ आगे बढ़ाया और श्रीमद्भागवत
गीता पर रख दिया। इस तरह मानो उन्होंने बचपन में ही
अपने भगवत प्रेम की घोषणा कर दी।

निमाई बचपन से ही नटखट और चंचल थे। उनकी बाल लीलाओं को
देखकर श्री कृष्ण के बचपन की याद ताजा हो जाती थी। कहते हैं कि एक दिन एक काला नाग
उनके घर में निकला। निमाई को देखकर नाग कुंडली मार बैठ गया। निमाई बालक तो थे ही
बिना डरे वह नाग के फन को अपनी नन्ही उंगलियों से सहलाने लगे। नाग झूम रहा था और
बालक निमाई हंस रहे थे
, किलकारियां मार रहे थे। यह दृश्य देखकर उनकी माता और बड़े
भाई जो उसी समय वहां आए थे डर के मारे कांपने लगे। उन्हें कुछ सूझता नहीं था कि
क्या करें। निमाई ने जब माता को देखा तो नाग को छोड़कर माता से जा लिपटे। नाग
ने भी अपनी राह ले ली।

एक दिन एक ब्राम्हण निमाई के यहां आया। उनके पिता ने
ब्राह्मण की बड़ी
ही स्वागत की। माता शची देवी
ने
भी उन्हे निमंत्रण दिया। ब्राह्मण
ने चौका(
रसोई कक्ष) लीप पोतकर भोजन
तैयार किया। खाने से पहले
उन्होने आंख बंद करके
विष्णु भगवान का ध्यान कर भोग लगाना चाहा। ठीक उसी समय नन्हे निमाई कहीं से आ
पहुंचे। उन्होंने आकर भोजन में हाथ डाला और खाना शुरु कर दिया। यह देख कर ब्राम्हण
झुंझला उठा
और कहा – “अरे यह किसका
बालक है
?

उन दिनों चौके, भोजन आदि की
पवित्रता का भी ध्यान रखा जाता था। ब्राम्हण अपने हाथ से भोजन बनाया करते थे। चौकी
में कोई दूसरा घुसा और भोजन अपवित्र हुआ । उस ब्राह्मण का चौका और भोजन निमाई के
छूने से अपवित्र हो गया था। जगन्नाथ मिश्र ने जब
सुना तब वह दौड़े हुए आए और निमाई को पकड़कर पीटना चाहा पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक
दिया।

शची देवी के बहुत कहने-सुनने
पर ब्राह्मण
ने फिर भोजन बनाया।
उस समय निमाई को अलग ले जाकर रस्सी में बांध दिया गया था। ब्राह्मण देवता आंखें
बंद कर फिर भगवान को भोग लगाने लगे। लेकिन ठीक उसी समय निमाई न जाने कैसे बंधन से
छूट कर वहां आ गए और आकर
खाने में हाथ डाल दिए
। कोई नहीं जान पाया कि उन्होंने रस्सी के बंधन कैसे खोल दिए थे। ब्राह्मण का भोजन
फिर अपवित्र हो गया।
उन्हे समझ आ गया की आज उसके भाग्य में भोजन
नहीं लिखा है
, इसीलिए उसने
भूखा ही रहने की ठान ली। किंतु शची देवी और मिश्रा जी के आग्रह पर ब्राह्मण ने फिर
खाना तैयार किया। उधर निमाई को फिर से रस्सी से बांध दिया गया और यह देखने के लिए
की निमाई रस्सी से छूटकर भागने न पाएं उनका बड़ा भाई वही पास बैठ गया। डर था कि
कहीं नटखट निमाई फिर
भोजन के पास
न पहुच जाए

अबकी बार जब ब्राह्मण ने भगवान को भोग लगाने के लिए आंखें
बंद करें तब उसने अपने ध्यान में एक विचित्र दृश्य देखा। उ
से ऐसा जान पड़ा जैसे साक्षात भगवान विष्णु उसके
सामने प्रकट हो गए हैं और कह रहे हैं तुम्हारे
बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तो तुम्हारे पास
आ चुका हूं। पर तुमने पहचाना ही नही
|

अब ब्राह्मण की समझ में बात आई। बालक निमाई के रूप में
स्वयं भगवान ने उसके भोजन का भोग लगाया था। ब्राह्मण ने भगवान से क्षमा मांगी।

निमाई अपनी बचपन की शरारत से हर किसी को मोह लेते थे। पास-पड़ोस
से छीना झपटी कर उन्हें जो कुछ खाने की चीज मिल जाते उसे वह खा जाते। वह जात-पात
का कुछ विचार करते हैं
|

निमाई पढ़ने में बहुत होशियार थे। छोटी सी ही आयु में वह
संस्कृत के अच्छे विद्वान हो गए। ग्यारह वर्ष
की आयु मे उनके पिता का देहांत हो
गया। इसके पहले उनके बड़े भाई विश्वरूप विवाह के डर से घर से भाग चुके थे। उन्होंने
कहीं सन्यास ले लिए हैं। लेकिन
कई बार
ढूंढने पर भी उनका पता नहीं चला।

बालक निमाई के ऊपर घर का सारा बोझ आ पड़ा। उन्होंने अपनी
माता को धैर्य बंधाया और जी जान से उनकी सेवा करने लगे। पढ़ने का समय भी निकाल
लेते । उन्होंने न्याय शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान वासुदेव सार्वभौम की पाठशाला
में न्याय शास्त्र प
ढा |  सोलह वर्ष की उम्र में ही वह न्याय के धुरंधर
विद्वान हो गए। बड़े-बड़े पंडितों को उन्होने शास्त्रार्थ में पछाड़ दिया
था

कुछ दिनों बाद उन्होंने खुद एक पाठशाला खोल ली,  जिसमें बहुत से छात्र पढ़ने आने लगे।

एक बार निमाई पंडित अपने पिता का श्राद्ध करने के लिए गया
गए
थे । श्राद्ध करने
के बाद निमाई
वापस लौटे। लौट तो आए
लेकिन अब वह पहले के निमाई नहीं रहे। उनमें एक अजीब परिवर्तन हो गया था। गया से
आकर उन्होंने कुछ दिन तो पाठशाला चलाई पर जल्दी ही उसे बंद कर दिया। उनको ना जाने
क्या हो गया था की पढ़ाते-पढ़ाते वह एकदम किसी भाव में खो जाते हैं। अक्सर वह
पढ़ाने की बात भूल जाते हैं और उठ कर नाचने लगते । नाचते-नाचते कीर्तन करने लगते ।
भगवान का नाम मधुर संगीत के रूप में उनके गले से बह निकलता। हरे कृष्ण! हरे कृष्ण!
का कीर्तन करते हुए गाते और नाचते समय प्रायः वह बेसुध होकर गिर भी पढ़ते । लेकिन
जैसे ही उन्हें होश आता फिर नाचने लगते । कृष्ण की बिरह में वह तड़प उठते हैं
वह इस तरह रो-रोकर पुकारते कि मनुष्य का हृदय तो
क्या पत्थर भी पिघल जाए। अब उन्हें न खाने की सुधि रही
और न ही पीने की।

देखते-देखते बंगाल के एक सिरे से दूसरे सिरे तक भगवत भक्ति
का एक प्रवाह बह निकला। निमाई का जन्म स्थान नवद्वीप इस प्रवाह का उद्गम था। यहां
घर-घर में हरि नाम का कीर्तन होने लगा। कीर्तन मंडलिया बाजार में निकलती। आगे-आगे
निमाई पंडित नाचते गाते जाते। लोग उनकी राहों में फूल बिछा देते । दूर-दूर से
भक्तजन नवद्वीप आने लगे। उनके लिए भगवान की भक्ति ही सबसे बड़ा धर्म था। उन्होंने
ऐसा धर्म चलाया जिसने ऊंच-नीच
, जात-पात, गरीब-अमीर, हिंदू-मुसलमान के भेदों को मिटा डाला। उनके
भक्ति रस का प्रवाह सबके लिए समान था।

निमाई का यह यश चारों ओर
फैल गया। श्रद्धा वश लोग अब उन्हें गौरांग महाप्रभु कहने लगे थे।

बंगाल में काली की पूजा में
बहुत सारे पशुओं की बलि देने का रिवाज है। गौरांग महाप्रभु पशुओं की बलि देना गलत
मानते थे। उनके प्रभाव से यह और ऐसी ही अन्य बहुत से सामाजिक कुरीतियां दूर हो गई।

एक दिन गौरांग ने संयास ले
लिया। सन्यास लेने के पश्चात वह “चैतन्य” कहलाने लगे। अब चैतन्य
महाप्रभु घूम-घूम कर वैष्णव धर्म अथवा भगवत गीता का प्रचार करने लगे। इसी धुन में
वह जंगलों नदियों को पार करते हुए दक्षिण भारत पहुंचे। उनके संपर्क में आकर बहुत
से खराब लोग भी अच्छे बन गए और नेक जीवन बिताने लगे।

चैतन्य की मृत्यु
जगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा के अवसर पर हुई। उस समय उनकी आयु ४८ वर्ष की थी। उनकी
अद्भुत जीवन का प्रभाव सा
रे  बंगाल पर पड़ा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *