जगदीश चन्द्र बसु | जगदीश
चन्द्र बोस |
Jagdish Chandra Basu | Jagdish Chandra Bose
डाक्टर
जगदीशचन्द्र बसु का जन्म ३० नवम्बर १८५८ को ढाका के एक नामी घराने में हुआ था।
उनके पिता विद्वान तथा अनुभवी थे। वह धार्मिक विचारों के थे, परंतु
उनकी धार्मिकता देशभक्ति तथा समाज सेवा की भावना से युक्त थी। समाज में उनका बड़ा मान
था। वह स्वभाव से ही परोपकारी तथा उदार थे। इसी प्रकार जगदीशचन्द्र की माता भी
बहुत ही दयालु तथा अपने पति के बताए हुए मार्ग पर चलने वाली सच्ची सहधर्मिणी थीं।
बाल्यकाल में बड़े लाड़ से जगदीशचन्द्र का लालन-पालन हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा
एक ग्रामीण पाठशाला में हुई। पाठशाला में अधिकांश बच्चे किसानों तथा धीवरों के थे।
जगदीशचन्द्र इन बालकों के साथ बड़े प्रेम से खेलते, उन्हें
अपने घर ले आते, जहां उनकी माता उनको प्रेम से
भोजन खिलाती। अपनी मातृभाषा में ही उनकी विचार-शक्ति का विकास हुआ। परंतु उनके
चरित्र-निर्माण का श्रेय उनकी घरेलू शिक्षा को है। उन्होंने आदर्श चरित्र का पाठ
अपनी बुढ़ी
नानी या बड़े नौकर के द्वारा कही हुई पौराणिक कथाओं को सुनकर सीखा।
उनके पिता ने अपने गांव में औद्योगिक
प्रशिक्षण का एक स्कूल खोला था। जगदीशचन्द्र जब कभी वहां पर जाते और कारीगरों को
काम करते देखते तो उनके दिल में भी कुछ करने का विचार आता। इस प्रकार बचपन में ही
उन गुणों का जिन्होंने जगदीशचन्द्र को एक महान वैज्ञानिक बना दिया, अंकुर
फूट चुका था।
पाठशाला की पढ़ाई खत्म कर जगदीशचन्द्र बसु
कलकत्ता में सेंट जेवियर कालेज में पढ़ने लगे। इस कालेज के सभी अध्यापक और प्रोफेसर
बड़े ही चरित्रवान और कर्तव्यशील थे। इनकी संगति का जगदीशचन्द्र पर बड़ा
प्रभाव पड़ा। सबसे
अधिक प्रभाव जगदीशचन्द्र पर पादरी लेफोंट का पड़ा, जो
कि एक अच्छे वैज्ञानिक तथा कालेज में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर थे। जगदीशचन्द्र बसु घंटो भौतिक
विज्ञान के संग्रहालय में जाकर बैठते, वहां के
बारीक-बारीक औजारों को देखते। धीरे-ध्रोरे उनके हृदय में विज्ञान की ओर एक विशेष रचि
जागृत हो गई।
जेवियर कालेज के स्नातक होने के पश्चात
जगदीशचन्द्र बसु विलायत गए। वहां जाकर विज्ञान में उनकी रुचि और बढ़ी। उन्होंने न
केवल कैंब्रिज से बी०ए० पास किया, बल्कि लंदन
विश्वविद्यालय से बी०एस०सी० की डिग्री भी ली। वहां पर रहकर उन्हें कुछ ऐसे वैज्ञानिकों के साथ कार्य करने का अवसर मिला जो
अनुसंधान कार्यों में लगे थे। इससे उनकी भी आविष्कार करने की इच्छा और प्रबल हो
उठी।
पढ़ाई समाप्त कर जगदीशचन्द्र विलायत से लौट
आए। यहां आते ही वह प्रेसीडेंसी कालेज, कलकत्ता
में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर नियुक्त हुए। परंतु इस कालेज में गोरों और कालों
में बड़ा भेद किया जाता था। यूरोपीय से भारतीय को तनख्वाह भी एक तिहाई कम मिलती थी
क्योंकि बसु की नियुक्ति स्थायी तौर पर नहीं हुई थी। इसलिए उन्हें मंजूर की गई
तनख्वाह में से आधी ही देने का निश्चय हुआ। बसू के आत्म सम्मान को इससे बहुत धक्का
लगा,
उन्होंने तनख्वाह न लेने का निश्चय किया। कुछ
कर दिखाने की लगन ने उन्हें आर्थिक लाभ की उपेक्षा सिखा दी। तीन साल तक बिना
तनख्वाह काम करके उन्होंने अपनी योग्यता साबित कर दी। अब तो जगदीशचन्द्र की
असाधारण प्रतिभा का सिक्का न केवल कालेज के प्रिंसिपल पर, परंतु
बड़े-बड़े वैज्ञानिकों पर भी जम गया। शीघ्र ही उन्हें पूरी तनख्वाह
पर स्थायी
बना दिया गया तथा पिछले तीन साल की पूरी तनख्वाह भी दी गई।
प्रारम्भ में
तो कालेज मे कोई
प्रयोगशाला ही नहीं थी, अतएव जगदीशचन्द्र अपनी निजी प्रयोगशाला
में काम करते थे । परंतु कुछ साल बाद एक छोटी-सी प्रयोगशाला की सुविधा हो
गई। बसु के लिए यह मानो एक वरदान था। अथक परिश्रम और चेष्टा से १० साल उस
प्रयोगशाला को अपने अनुसंधान कार्य के योग्य बना सके।
समय-समय पर उन्होंने जो महत्वपूर्ण खोजें की, उनसे
वह
ब्रिटेन की रायल
सोसायटी
को सूचित
करते रहे, जो कि उनको सर्वदा प्रोत्साहन
देती रही। बहुत
परिश्रम
के बाद उन्होंने विद्युत
किरण के ऊपर जो खोजपूर्ण निबंध लिखे, उसके
कारण विज्ञान जगत् में उनका बहुत स्वागत
हुआ। रायल सोसाइटी ने न केवल उनके निबंधों को छापा बल्कि उन्हें सोसाइटी की ओर से
अपने प्रयोग पर पूर्ण रूप से कार्य करने के लिए अनुदान भी मिला।
रायल सोसाइटी
से सम्मानित होने पर उन्हें बंगाल सरकार का सहयोग भी प्राप्त हुआ। किसी भी विध्न बाधा
या आलोचना से वह हतोत्साह नहीं हुए। यही असल में उनकी सफलता की कुंजी थी ।
बहुत शीघ्र ही लंदन विश्वविद्यालय ने भी बसु को डाक्टर आफ़ साईंस की डिग्री से सम्मानित
किया।
अब तक डाक्टर बसु जगत् प्रसिद्ध हो चुके थे
इन्ही दिनों में डाक्टर बसु ने विद्युत किरण के द्वारा बेतार के तार का आविष्कार
किया। जिन दिनो डा॰ बसु बेतार
के तार भेजने के आविष्कार में लगे थे, उन्हीं
दिनों अमेरिका तथा इटली में भी दो वैज्ञानिक इसी तरह की खोज में जुटे थे। परंतु इस
क्रिया का सफलतापूर्णं प्रदर्शन सबसे पहले डा०बसु ने ही १८९५ में कलकत्ता के टाउन
हाल में जनता और गवर्नर के सामने किया था, लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ जब विद्युत किरण
के द्वारा उन्होंने एक दूसरे कमरे में घंटी बजबा दी।
विदेशों में डा० बसु की धाक जम गई। रायल
सोसाइटी ने उनको अपने महत्वपूर्ण आविष्कार का प्रदर्शन करने तथा व्याख्यान देने के
लिए तीन बार
बुलाया। १८९७ में डा०बसु का पहली बार व्याख्यान हुआ, जिसमें
उन्होंने यह साबित किया कि विद्युत किरण किस प्रकार से भावों और मनोभावों को प्रकट
करती है दुबारा १०
मई १९०१ को उन्होंने अपने व्याख्यान में यह साबित किया कि पशु और पौधों में समान
रूप से सुख और दुःख अनुभव करने की शक्ति है। इसे उन्होंने अपने बनाए हुए बिजली के
एक यंत्र द्वारा प्रयोग करके बताया। इस नए सिद्धांत को जब बसु ने प्रमाणित कर
दिखाया तब लोग आश्चर्य में पड़ गए। कई विदेशी वैज्ञानिकों ने डा०बसु
के सिद्धांत की खिल्ली उड़ाई, उसे
निरर्थक साबित करना चाहा। फलस्वरूप डॉ०बसु ने इस विषय में लेख लिखा, पर
निबंध रायल सोसाइटी से स्वीकृत नहीं हुआ। इतने पर भी डा॰बसु
ने हिम्मत नहीं हारी। बाद में कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने उनके सिद्धांतों का समर्थन
किया।डा०
बसु फिर इंग्लैंड गए। वहां जाकर उन्हें पता लगा कि एक अंग्रेज ने उनके सिद्धांतों को
अपनी सूझ बताकर खुद उनका अन्वेषक होने का दावा किया है परंतु बसु
के पास उनका
झूठा हक खंडन करने के लिए साक्ष्य और प्रमाण थे। उनके निबंध की एक प्रति रायल
सोसाइटी के पास थी और इसके अलावा ६ महीने पूर्व डा०बसु ने अपने सिद्धांत का
प्रदर्शन किया था। अन्ततः वैज्ञानिकों को बसू को ही उस सिद्धांत का मूल अन्वेषक मानना
पड़ा।
इसके पश्चात् रायल सोसाइटी ने उन्हें तीसरी
बार व्याख्यान देने को बुलाया। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने भी बसु से कई व्याख्यान
देने का अनुरोध किया| जब पैरिस में साइंस कांग्रेस हुई, तब
भारत सरकार ने बसु को
अपना प्रतिनिधि बना कर भेजा। इस बार की यात्रा में उन्होंने तमाम यूरोप और अमरीका
का भ्रमण किया। बसु जहां-जहां भी गए जनता ने उनका दिल खोल कर स्वागत किया। वैज्ञानिकों
ने उन्हें सभा कर के सम्मानित किया। पशु तथा पेड़-पौधों के अनुभव की समानता का
प्रमाण उन्होंने सभी जगह प्रदर्शन करके प्रमाणित किया। वहां लोग उनके सूक्ष्म
यंत्र की कारनामे देख
कर बहुत चकित रह गए और जब कोई उनसे उस यंत्र के विषय में पुछता तो
वह बड़े गौरव के साथ कहते कि यह भारतवर्ष में बना है।
इस यात्रा के बाद जब बसु भारत लौटे तब
कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टर आफ साइंस की उपाधि से सुशोभित किया। पंजाब
विश्व-विद्यालय ने उनको अपने यहां भाषण देने के लिए निमंत्रित किया उनके लिए जब
उन्होंने १२०० रुपये पारिश्रमिक के रूप में देना चाहा तब उदार मन विद्वान बसु ने
उन्हें यह कह कर लौटा दिया कि इस धन को किसी योग्य विद्यार्थी को दिया जाए जो
विज्ञान के अध्ययन में दिलचस्पी रखता हो। उन्होंने न केवल अपना समय ही परंतु धन भी
विज्ञान की उन्नति के लिए दिया।
बसु ने पेड़ पौधों के विषय में जो अनेक नई
बातें खोज निकाली उनमें यह भी था कि पेड़-पौधे प्राणियों के सदृश ही सोते-जागते
हैं। प्रेम और क्रोध के भावों को समझते तथा प्रकट करते हैं। उनमें भी नर और मादा
होते हैं। परस्पर आदान-प्रदान से वे रचना करते हैं।
५५ वर्ष की आयु में डा० बसु का नौकरी से
रिटायर होने का समय आ गया परतु सरकार ने उन्हें दो साल के लिए और रोक लिया। रिटायर
होने के बाद भी उन्हें कालेज का सम्मानित प्रोफेसर मानते रहने का निर्णय किया गया
उन्हें पेंशन की बजाय पुरा वेतन देने की व्यवस्था की गई। देश की शिक्षा के इतिहास
में इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। कालेज को जब कभी डा० बसु
की सहायता और सलाह की आवश्यकता पढ़ती थी, ये
सहज ही प्राप्य थे।
प्रेसीडेंसी कालेज से रिटायर हो कर उन्होंने
अनुसंधान संस्थान की स्थापना की। उनकी यह हार्दिक इच्छा थी कि भारतवर्ष में ऐसी
अनेक विज्ञान संस्थाएं खुल जाएं जो अपने ढंग की अनूठी
हों,
ताकि यहां के विद्यार्थीयों
को उनके लिए विदेश जाने की आवश्यकता न पड़े । १९२०
में डा०बसु फिर यूरोप गए। वहां से लौटने पर भारत में वह एक आचार्यों
के समान पूजे जाने लगे।
१९२८ में डा० बसु पुनः यूरोप गए। उनकी
नई खोजों के कारण कृषि शास्त्र और शरीर विज्ञान में जो लाभ हुआ, उसके
लिए वैज्ञानिकों ने उनका आभार माना। अपनी इस यात्रा में जगदीशचन्द्र बसु
मिश्र
भी गए,
जहां उनका बहुत सम्मान हुआ। मिश्र
सरकार ने अपने देश के नवयुवकों को डा० बसु के संस्थान में अध्ययन करने के लिए डा०बसु
के साथ कर दिया।
डा॰
जगदीशचंद्र बसु ने १९३७ में नश्वर शरीर को त्याग दिया, परंतु
उनका नाम संसार में अमर रहेगा।