
तरु दत्त | Toru Dutt
हमारे
देश में समय-समय पर अनेक शांतजीवी, प्रतिभाशाली
लेखक,
कवि और साहित्यिक हुए हैं। उन्होंने हमें जो
साहित्य दिया है वह अमर है। परंतु २१ वर्ष के अल्प जीवनकाल में अपनी प्रतिभा की
चकाचौंध से तरु दत्त ने जो यश अर्जित किया वह संसार के बहुत कम अल्पवय साहित्यिकों
को प्राप्त हो पाया है। तरु दत्त ने जन्मना और विचारों में भारतीय होते हुए भी
अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं में काव्य रचना की। परंतु उनकी थोड़ी-सी रचनाओं के कारण
ही अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में उनका स्थान सदा के लिए सुनिश्चित हो गया है।
तरु दत्त का जन्म कलकत्ता के एक समृद्ध
कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज कोई दो सौ वर्ष पूर्व बर्दवान से कलकत्ता
आए थे। उनके परबाबा नीलमणि दत्त को अपने जीवन में बड़ी ख्याति मिली। वे दयालू, सत्यनिष्ठ
और उदारमना व्यक्ति थे । तरु दत्त के बाबा
रसमय दत्त और पिता गोविन्दचन्द्र दत्त पठन-पाठन में बहुत रुचि रखते थे। तरु दत्त के पिता और
कई चाचा और चचेरे भाई
कविता से भी
प्रेम रखते थे । इसका
गहरा प्रभाव तरु
दत्त के जीवन पर भी पड़ा। तरु के पिता गोविंदचन्द्र अपने
समय में अँग्रेजी के बहुत
अच्छे जानकार व
लेखक भी थे। उन्होंने १६७० में अपनी और परिवार के सदस्यो की
कविताओं का संग्रह तैयार
किया | जिसका
नाम उन्होंने दत्त फैमिली
अलबम रखा | तरु को
यह पुस्तक बचपन से ही बहुत प्रिय थी।
तरु दत्त की
माता क्षेत्रमणि मित्र भी सुशिक्षता थी और उन्होंने तरु
के हृदय में भारतीय पौराणिक
कथाओं तथा मातृ भाषा के प्रति प्रेम जाग्रत किया। तरु की माता ने बाद में अँग्रेजी भी
सीख ली और कई धार्मिक
पुस्तकों का अनुवाद किया। गरीबों के प्रति उनकी विशेष दया
दृष्टि रहती थी।
ऐसे परिवार में तरु दत्त का जन्म १८५६ मे हुआ।
तरु के माता-पिता
और परिवार के
अन्य लोग उसके जन्म के पहले ही ईसाई धर्म में दीक्षित हो चुके थे इसलिए तरु की
शिक्षा-दीक्षा आरंभ से ही अंग्रेजी में हुई। तरु अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान थी।
उसका बड़ा
भाई अब्जु था और बड़ी बहन अरु थी। बचपन से ही तरु पढने-लिखने में
बहुत तेज थी। आरंभ में तीनों बच्चो ने घर में रह कर ही शिक्षा प्राप्त की। फिर उनके लिए
एक वयोवृद्ध शिक्षक रखा गया, जिसको सभी
बच्चे बहुत चाहते थे | संगीत
की शिक्षा देने
के लिए एक महिला को भी नियुक्त किया गया।
तरु ने अपने जीवन के आरंभिक सात वर्ष कलकत्ता
में बिताए
और फिर सारा परिवार एक आकर्षक यात्रा पर निकल पड़ा। यह थी कलकता से बम्बई तक
समुद्री मार्ग से यात्रा | इसके बाद दत्त परिवार को एक दुःखद स्थिति का
सामना करना पड़ा। १४ वर्ष की आयु में तरु के भाई की मृत्यु हो गई और सारा
परिवार शोक मग्न हो गया | तरु
के कोमल हृदय पर भी इस घटना का बड़ा प्रभाव पड़ा। कुछ वर्ष और बीते। तरु के जीवन
में फिर एक नया मोड़ आया। १८६९ में तरु के
माता-पिता, अपनी दोनों लड़कियों के साथ
यूरोप की यात्रा पर रवाना हुए। तरु की माता, स्वयं
तरु और उसकी बहन पहली बंगाली स्त्रियां थीं जिन्होंने यूरोप की यात्रा की।
यूरोप यात्रा के दौरान में दत्त परिवार पहले
दक्षिण फ्रांस के नाइस नामक नगर मे रहा, जहां
दोनों लड़कियों को स्कूल भेजा गया। यहां उन्हें फ्रेंच भाषा सीखनी पड़ी, क्योकी वहां
की सारी पढ़ाई उसी भाषा में होती थी। परंतु तरु के लिए यह कोई कठिन काम नहीं
था। तरु ने बहुत ही रुचि से फ्रांसीसी
भाषा सीखनी शुरू की और शीघ्र ही उस पर उसका अच्छा अधिकार हो गया। कुछ समय बाद दत्त
परिवार पेरिस गया और कुछ मास बिताते के बाद वे सब लंदन में जा
बसे। लंदन में तरु दत्त ने फ्रेंच कवितां के अनुवाद आरंभ किए तथा स्वयं भी कविता
लिखना आरंभ किया। लड़कियो की पढ़ाई के लिए दत्त परिवार कुछ दिन कैम्ब्रिज
भी रहा। जहां कहीं भी यह परिवार गया, वहा बड़ी
प्रतिष्ठा प्राप्त की और अनेक विद्वानों से परिचय किया। विशेष रूप से तरु की
प्रतिभा से सभी चमत्कृत रहते थे तरु दत्त की स्मरणशक्ति आश्चर्यजनक थी। पढ़ना ही
उसका सबसे प्रमुख व्यसन था और वह जो कुछ भी पढती थी बहुत ध्यान से पढ़ती थी।
अपने आस-पास के जीवन को भी देखने और वर्णन करने की उसमें अपार थी। लंदन में रहते
हुए तरु दत्त ने अपने चचेरे भाइयों को लिखे गए पत्रों में वहां जीवन का बहुत ही
विस्तृत वर्णन किया है।
चार
वर्ष यूरोप में बिताने के बाद १८७३ में दत्त परिवार फिर कलकत्ता लौट आया | अपने
जीवन के शेष वर्ष तरु दत्त ने कलकत्ता में ही बिताए।
तरु दत्त ने अपने कलकत्ते के जीवन के विषय
में अपने अनेक पत्रों में चर्चा की है। ये पत्र उसने कुमारी मेरी मार्टिन नामक एक
अंग्रेज महिला को लिखे थे जो कैम्ब्रिज में रहती थी और जिसे तरु ने अपनी अभिन्नतम
सहेली बना लिया था। इन पत्रों में भारतीय जीवन के अनेक पक्षों का परिचय बड़े सरल
और सुंदर शब्दों में मिलता है।
तरु और अरु ने मिल-जुल कर हंस, मुर्गियां
और बिल्लियां भी पाल रखी थीं। इन पशु पक्षियों को दोनों स्वयं अपने हाथ से
चारा-दाना खिलाया करती थी। लेकिन सितम्बर १८७४ में अरु की मृत्यु हो गई और तरु
बिलकुल अकेली रह गई | बहन
की मृत्यु का उसे गहरा आघात लगा और शायद इसीलिए उसकी अनेक कविताओं में
विषाद की गहरी छाया
मिलती है।
स्वयं तरु का भी स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता
था और उसे प्रायः खांसी की शिकायत रहा करती थी। फिर भी वह पठन-पाठन में और लिखने
में कठोर परिश्रम किया करती थी।
अपने पिता के साथ मिल कर तरु दत्त ने फ्रेंच, जर्मन
और संस्कृत का अध्ययन जारी रखा। कलकत्ता पब्लिक लाइब्रेरी में उस समय जितनी भी
फ्रेंच में पुस्तकें थीं, उसने सब पढ़ डाली।
उसका संगीत का अध्ययन भी जारी रहा और उसके पिता ने एक पियानो का प्रबंध कर दिया।
बाद में बीमार
होने पर जब वह उस कमरे में जाने में असमर्थ हो गई जहां पियानो रखा था तो पियानो को
उसके बिस्तर के पास ही रख दिया गया जिससे वह जब चाहे स्वर छेड़ सके।
परंतु ये स्वर क्रमशः धीमे पड़ते गए फिर
समाप्त हो गए, क्योंकि इन स्वरों को छेड़ने वाला
लगातार बीमार रहने लगा अपनी बीमारी के विषय में तरु ने अपने एक पत्र में लिखा है, “मैं
कितनी बीमार हूं, यह इसी बात से समझा जा सकता है
कि मुझे कमरे से नीचे कुर्सी
पर बैठा कर ले जाया जाता है। अक्सर मैं बहुत
ही थकान और अकेलापन अनुभव करती हूं और इस बीमारी ने मुझे लगभग तोड़ दिया है।”
कुमारी मार्टिन को तरु दत्त मे अपना अंतिम
पत्र ३० जुलाई १८७७ को भेजी और उसके ठीक एक महीन
बाद २१ वर्ष से कुछ ही अधिक की आयु में अगस्त १८७७
को इस
संसार से विदा
हो गई।