तानसेन | Tansen

 %25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25A8
तानसेन – Tansen

महान गायनाचार्य तानसेन का नाम भारत में बहुत अधिक प्रसिद्ध
है । इनके पुरखे लाहौर (पंजाब)
से आकर दिल्ली व
ग्वालियर में बसे थे ।

तानसेन का जन्म १५०६ में ग्वालियर में सात मिल दूर बेहट
नामक गांव में हुआ था । उनके पिता का नाम मकरंद पांडे था ।
पांडेजी को कुछ लोग मिश्र जी भी कहते थे ।
तानसेन के बचपन के कई नाम थे जैसे- रमतनू
, त्रिलोचन, तन्ना मिश्र, तनसुख आदि । बाद
में वह अताअली खा और मिया तानसेन के नाम से प्रसिद्ध हुए । तानसेन के ताऊ बाबा
रामदास एक महान गायक तथा कवि थे और वृंदावन वासी स्वामी हरिदास जी के शिष्य थे ।
तानसेन बचपन में उन्हीं के पास ग्वालियर में रहकर गाना सीखते रहे । ग्वालियर वासी पीर
गौस मोहम्मद तथा रामदास जी में बहुत मेल
जोल था । पीर
साहब बड़े संगीत प्रेमी थे और स्वामी हरिदास से भलीभांति परिचित थे । वह बालक
तनसुख की अद्भुत प्रतिभा पर बहुत मुग्ध थे । उन्हीं के सुझाव पर रामदास जी ने
तनसुख को वृंदावन भेजा
, जहां पर तनसुख ने बारह वर्ष नाद ब्रमह्योगी स्वामी हरिदास
जी से गायन सीखा और संगीत शास्त्र व साहित्य का अध्ययन भी किया ।

स्वामी हरिदास अपने समय के सर्वश्रेष्ठ गायानाचार्य कवि थे वह श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे । वृंदावन नगरी
में उनका आश्रम था । वही पर वह प्रतिभाशाली पात्रों को शास्त्रीय गायन सिखलाया
करते थे ।

बारह वर्ष तक निरंतर साधना करने के बाद गुरु से आज्ञा लेकर तानसेन देश के प्रसिद्ध संगीत
केंद्रों की यात्रा को निकल पड़े। अनेक स्थानों के संगीतज्ञों से गुण चर्चा करते
हुए
, बसंत ऋतू में
बुंदेलखंड की राजधानी रीवा नगर पहुंचे
यहां के महराजाधिराज रामचंद्र, स्वामी हरिदास जी
के भक्त थे । तानसेन उनसे मिलने राजमहल में गए तो महराजाधिराज पूजागृह में थे
द्वारपाल ने महाराजाधिराज को तानसेन के आगमन की
सूचना देने में संकोच से काम लिया । तब तानसेन ने राजभवन के पीछे फुलवाड़ी में
बैठकर अपने गुरु का रचा हुआ
 “ध्रुपद” गाना शुरू
कर दिया। आवाज़ का राजभवन में पहुंचना था कि महराजाधिराज नंगे पांव फुलवाड़ी आ
पहुंचे । तब महराजाधिराज ने तानसेन को प्रिय बंधु कहकर गले से लगा लिया ।
महाराजाधिराज की खुशी का ठिकाना न था । नेत्रों में प्रेमाश्रु भर आए। दोनों को
बीते हुए दिनों कि याद हो आई जब वे वृंदावन में हरिदास जी के आश्रम में मिले थे।
तानसेन को सम्मान पूर्वक राजभवन में ठहराया गया ।
राजभवन मानो संगीत भवन बन गया । महाराजाधिराज के आग्रह पर
तानसेन ने रीवा को अपना केंद्र स्थान बनना स्वीकार कर
लिया । पचास वर्ष की आयु तक तानसेन सुख शांति पूर्वक रीवा में ही रहे । राज सम्मान
और सुख पाकर भी तानसेन की संगीत आराधना में किसी प्रकार अंतर नहीं आने पाया । स्वामी
हरिदास जी की सेवा में रहने के कारण उन पर देवपुजा और ईश्वर भक्ति का रंग चढ़ चुका
था
| तानसेन देव-मंदिरों में
जाकर भक्तजनों को अपना मनोहर गान सुनाया करते थे । देव स्तुति पर उन्होंने अनेक
ध्रुपद रचे ।

यद्यपि पचास वर्ष की आयु तक तानसेन रीवा में ही रहे, परंतु उनके मनोहर
गायन की चर्चा चारों तरफ फैल चुकी थी । जब सम्राट अकबर ने उनकी तारीफ सुनी तो
उन्होंने रीवा नरेश को
पत्र भेजा – “तानसेन
जैसा अद्भुत प्रतिभाशाली गायक पचास वर्ष की आयु तक आपके दरबार का प्रमुख गायक रहा
है। आपने उनका मनोहर गायन बरसो सुना है। ऐसे महान कलाकार को सम्राट का दरबारी गायक
होना चाहिए । इसमें ही उसकी शोभा है । तानसेन को ज़रूर भेज दीजिए ।“

इस पत्र को पढ़ते ही तानसेन व रीवा नरेश पर मानो वज्र घात
हो गया । प्रजा में भी इस समाचार से घोर निराशा छा गई । बुंदेलखंड की राजधानी का
मंगलमय वातावरण शोकमय बन गया । तानसेन के अचानक अस्वस्थ हो जाने का अशुभ समाचार भी
नगर में दूसरे ही दिन फैल गया । राजवैद्य ने सम्राट अकबर के संदेश लाने वाले को यह
कहकर सम्मानपूर्वक विदा कर दिया कि तानसेन का स्वास्थ्य कुछ समय से बिगड़ा हुआ है।
मैं उनका इलाज करवा रहा हूं। स्वास्थ में सुधार होने पर रीवा नरेश तानसेन को तुरंत
सम्राट की सेवा में आगरा भेज देंगे ।

संदेशवाहक ने आगरा पहुंचकर सम्राट अकबर को रीवा नरेश के
उत्तर तथा रीवा नगर के प्रजाजनो को शोकाकुल हालत में सूचित किया । राजहठ तो बड़ा
प्रबल होता है। अकबर ने अपने चतुर मंत्री बीरबल के सुझाव पर कुछ समय बाद रीवा नरेश
के नाम एक बड़े सैनिक अधिकारी के हाथ दूसरा पत्र भेजा
, जिसमें लिखा था –
“तानसेन का गाना सुनने के लिए सम्राट तथा सभी दरबारी बड़े उत्सुक हैं। आशा है उनका
स्वास्थ्य अब ठीक हो गया होगा । यदि कुछ कमी होगी तो आगरा के शाही हकीम (राजवैद्य)
शीघ्र ही उनको पूर्णतया स्वस्थ बना देंगे । हम समझते हैं कि रीवा नरेश तथा उनकी
प्रजा तानसेन को बहुत चाहते हैं। तानसेन को रीवा आने जाने की स्वतंत्रता रहेगी ।
तानसेन को भारत सम्राट का “दरबारी गायक” कहलाने में गौरव मानना चाहिए ।
रीवा नरेश को हिंदुस्तान के शहंशाह की शोभा बढ़ा कर प्रसन्नता प्राप्त करना ही
उचित है ।“

        

सम्राट अकबर का यह आज्ञापत्र पढ़ने के बाद रीवा नरेश ने
तानसेन तथा मंत्रिमंडल से देर तक विचार विमर्श किया । तब तानसेन ने रीवा नरेश तथा
प्रजाजनों को संकट से बचाने के लिए आगरा जाना स्वीकार कर लिया ।

कहते हैं कि तानसेन की विदाई के समय का दृश्य बड़ा ही हृदय
विदारक था । बुंदेलखंडपति तथा राजधानी की जनता ऐसे रो रही थी
, जैसे प्रिय पुत्री की डोली को विदा करते समय
माता-पिता तथा ग्रामवासी रोने लगते हैं। पालकी में बैठे तानसेन यह सब सहन न कर पाए
, आंखे मूंद ली ।
थोड़ी देर बाद पलभर के लिए पालकी रुकी। तानसेन ने बाहर झांका तो क्या देखते है कि
भावुक संगीत भक्त रीवा नरेश पालकी को दाहिने कंधे पर लिए हुए हैं। पालकी से नीचे
कूदकर तानसेन ने रीवा नरेश से आग्रहपूर्वक राजभवन लौट जाने की प्रार्थना कि और वचन
दिया – “महाराजाधिराज ! रामचन्द्र ने मेरी पालकी को दाहिना कंधा देकर मेरा अकथनीय
सम्मान किया है
, अतः मै दाहिने
हाथ से किसी सम्राट को कभी सलाम नहीं करूंगा ।“

फतेहपुर सीकरी पहुंचने पर गुलाम वृत्ति के एक सैनिक अधिकारी
ने अकबर से तानसेन के इस प्रण की शिकायत दूसरे ही ढंग से कर दी । शाही दरबार में
पहुंचने पर तानसेन ने अकबर को दाहिने हाथ से सलाम ना करके बाए हाथ से ही किया । इस
पर अकबर ने मुस्कुराकर कहा  – “तानसेन नए
आए हैं
, परंतु है बड़े रोशन दिमाग । बहुत जल्द शाही दरबार के तरीके
सीख जाएंगे । अब गाना शुरू हो।“

तब एक अधिकारी ने तानसेन को फर्श पर बैठकर गाने के लिए कहा
। तानसेन ने इसे अपना निरादर और संगीत विद्या का अपमान समझा। मन से न चाहते हुए भी
उन्होंने एक ध्रुपद गाना शुरू किया । उसकी अंतिम तुक यह थी – “तानसेन कहे सुनो शाह
अकबर
, प्रथम राग भैरव में
गायो।

उनकी सुरीली तथा गंभीर आवाज और मनोहर गायन को सुनकर,  सभी दरबारी झूम उठे । सभा
विसर्जन होने पर तानसेन अपने डेरे पर आए और बीमारी का बहाना करके ले
टे रहे। दूसरे ही दिन उनकी बीमारी का समाचार फैल
गया । एक दिन राजा बीरबल ने आकर बड़े सहानुभूति सूचक शब्दों में सम्राट की
ओर से बीमारी का कारण पूछा तो तानसेन ने कहा – “यहां
पर मेरा मन नहीं लग रहा
, अतः मेरा स्वस्थ
भी गिरने लगा है । रीवा नरेश मुझे बंधु कहकर दरबार में भी उचा स्थान देते थे ।
दरबार में फर्श पर बैठकर गाने से मेरा ही निरादर नहीं हुआ
, संगीत जैसी
सर्वश्रेष्ठ कला का भी अपमान हुआ है। भगवान के लिए मुझे यहां से विदा दिलवाए ।“

बीरबल बोले  – “अकबर बड़े गुण
ग्राहक है । आपके गान और सभा चातुर्य पर मुग्ध है । आप जैसे कलाकार राजधानी में ही
रहना चाहिए। आपका अद्भुत गान प्रभु की देन हैं। प्रभु कृपा से ही
,  अकबर हिंदुस्तान के
शहंशाह बन पाए है । मैं उनसे प्रार्थना करूंगा कि आपको भी दरबार में “
रत्न” का स्थान
दिया जाय । वह मेरी बात सदा मानते हैं
, बड़ी उदार वृत्ति
के है ।“

बीरबल के सुझाव पर अकबर ने तानसेन को अपने दरबार का रत्न
बनाना स्वीकार कर लिया । परंतु एक शर्त यह लगा दी की दरबार में अकबर के शालगिरह के
मौके पर तानसेन फिर गाए ।

यह खबर ज्यो ही आगरा में फैली, तानसेन के
गुरूबंधू चांद खां (भूतपूर्व सोमनाथ) तथा सूरज खा (भूतपूर्व पंडित दिवाकर) तथा
अन्य अनेक दरबारी कलावंत जल भुन से गए । उन्होंने शेख अफ़ज़ल तथा अन्य मंत्रियों
के द्वारा
, अकबर को इस बात पर सहमत
करा लिया कि दरबार में सब गायकों के सम्मुख तानसेन यदि चांद खा और सूरज खा को
मुकाबले में परास्त कर दे
, तभी उन्हें शाही
दरबार में रत्न कि पदवी तथा भारी ईनाम दिया जाएगा ।

अकबर की सालगिरह के मौके पर तीन दिन तक गाना बजाना होता
रहा। चांद खा तथा सूरज खा ने दरबार में यह घोषणा कर दी की तानसेन कोई ऐसा राग
सुनाए जो हम दोनों भाई न गा सके
|

                        

उत्तर में तानसेन ने गंभीर आवाज में कहा – “ये दोनों कलावंत
मेरे गुरुजी हरिदास के ही शिष्य हैं। गुरुजी ने हमको निष्कपट भाव से विद्या सिखलाई
है। यदि ये मुझसे अधिक जानते है तो कोई ऐसा राग सुनाए जो मै न गा सकू।“

यह सुनते ही दोनों भाइयों का रंग फिका पड़ गया । तब तानसेन
ने सभा मंच पर बैठकर एक दो ऐसे राग सुनाए जो किसी को भी याद न थे । इस पर चांद खा
तथा विरोधी दल ने कहा कि यह मनगढ़ंत राग है । परंतु तानसेन ने अपने रागों कों
शास्त्रोक्त सिद्ध करके सबको निरुत्तर कर दिया । तब दरबार में तानसेन को नव रत्न
तथा एक लाख मुद्रा ईनाम के रूप में दी गई । तानसेन ने यह एक लाख मुद्रा आगरा की
गरीब जनता में बांट दी । जब बीरबल ने पूछा तो उन्होंने कहा – “सम्राट ने इतना भारी
दान कभी किसी कलाकार को नहीं दिया था और न ही इससे पहले इतना भारी दान किसी कलाकार
ने किया था ।“

दरबार में ठाकुर संमुख सिंह जी बीनकार का सब कलाकारों से
अधिक प्रभाव था। इनके मधुर वीणावादन पर मुग्ध होकर इनका उपनाम मिसरी सिंह रख दिया
गया था । तानसेन से हार खाने के बाद विरोधी दल ने ठाकुर मिसरीसिंह के कान भरे। तब
ठाकुर जी तानसेन के विरोधी बन गए । एक दिन अकबर के दीवान-ए-ख़ास में ठाकुर जी ने
वीणा बजाते हुए तानसेन को मुकाबले के लिए ललकारा । तानसेन ने तुरंत उनकी स्व लहरी
को गाकर उत्तर दिया । ठाकुर जी जोश में आकर अपशब्द कह बैठे । अकबर ने ठाकुर जी को
बाहर निकल जाने की आज्ञा दी । कुछ दिन बाद तानसेन और ठाकुर जी में मेल कराने के
लिए अकबर तथा बीरबल ने उन दोनों में समधी का रिश्ता करा दिया
|

ख्याल गीतों के सर्वप्रथम रचयिता सदरगजी ठाकुर मिसरी सिंह
के वंशज थे । अब्दुल फाज़ल ने “आईने अकबरी” में लिखा है कि ३६ कलावंत थे
| जिनमें भारती, इरानी, तूरानी, अरबी वगैरह सभी
थे। परंतु तानसेन ने इन सबको मात दे रखी थी
, जिसने भी तानसेन
से लोहा लिया । वह अंत में परास्त ही हुआ। सबकी यह धारणा है कि पिछले एक हजार वर्ष
में ऐसा अद्भुत गायक पैदा नहीं हुआ । जहांगीर ने भी इस बात का उल्लेख अपनी किताब “तुजुक-ए-जहांगीरी”
में किया है।

एक बार अकबर ने तानसेन से पूछा – “तुम से अच्छा गायक कौन हो
सकता है
?
 

तानसेन ने उत्तर दिया – “मेरे गायन गुरु स्वामी हरिदास जी
सबसे अच्छे गायक है ।“

तब अकबर ने स्वामी जी का गायन सुनने की इच्छा प्रकट की ।
परंतु तानसेन ने कहा – “मेरे गुरु किसी बादशाह के दरबार में नहीं गाते
, केवल श्री कृष्ण
की मूर्ति के सम्मुख बैठकर गाते हैं ।“

एक बार अकबर आगरा से दिल्ली जाते हुए रास्ते में वृंदावन
रुक गए । अकबर साधारण वेश में तानसेन के साथ संध्या आरती के समय स्वामी जी के
आश्रम में पहुंचे । स्वामी जी मंदिर में राग कल्याण का यह ध्रुपद गा रहे थे ।
तानसेन और अकबर बाहर बैठकर ही सुनने लगे । जब गायन समाप्त हुआ तो अकबर आंखे बंद
किए मग्न बैठे थे । स्वामी जी ने तानसेन से कहा कि – “सम्राट अकबर को आश्रम में ले
जाओ” । अकबर और तानसेन स्वामी जी के अनुमान पर चकित रह गए । अकबर और तानसेन के
नम्रता पूर्वक आग्रह पर स्वामी जी ने गाना शुरू किया । तंबूरे पर तानसेन अपने
गुरुदेव की संगत करते रहे ।

वहां से विदा हुए तो अकबर ने तानसेन से विनोदपुर्वक कहा – “स्वामी
जी के आवाज के मुकाबले में तुम्हारा गाना फीका क्यों है
?

तानसेन ने उत्तर दिया – “मैं मानव समाज की प्रसन्नता
प्राप्त करने के लिए गाता हूं और पूज्य स्वामी परमानंद की प्राप्ति के लिए गाते
हैं ।“

तानसेन को अकबर के दरबार में बहुत सम्मान मिला और देश
देशान्तर में उनकी प्रसिद्धि भी खूब हुई
, परंतु अकबर के
दरबार में उन्हें वैसी शांति न मिल पाई जैसा की रीवा राज्य में मिलती थी । अपनी
धर्मपत्नी के देहांत के बाद तो वह साधु बनकर वृंदावन जाने को तैयार हो गए । परंतु
बीरबल के समझाने पर फिर रुक गए।

अनेक कारण वश उन्हें धर्म परिवर्तन करना पड़ा था, परंतु इससे उनकी
संगीतकला में किसी प्रकार का अंतर नहीं आने पाया ।

उनका देहांत १५८९ में हुआ । उनकी इच्छा के अनुसार उनकी
समाधि भी ग्वालियर पीर गौस मुहम्मद साहब के मकबरे के पास बना दी गई । तानसेन के
समकालीन गायकों में सूरदास व वैजू-बावरा (बैजनाथ) भी बड़े प्रसिद्ध थे । उनमें बड़ी
मित्रता थी । 
        

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *