तेज बहादुर सप्रू | Tej Bahadur Sapru

तेज बहादुर सप्रू की जीवनी

Tej Bahadur Sapru Biography

पहले-पहल जब अंग्रेज अपने ढंग से अदालतें लगाने लगे, तो उन्हें भी पता नहीं चलता था कि कैसे फैसले करें इसलिए वे अनोखे तरीके काम में लाते थे कई बार पुराने राजा-महाराजाओं के दीवान लोग भी ऐसा ही करते थे। कहते हैं कि एक बार एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने मिसरी की दो डलियां सामने रखीं और जिस डली पर पहले मक्खी बैठी, उसी के हक में फैसला कर दिया। एक दीवान साहब ने भी रुपये को हवा में उछाल कर, चित्त और पट्ट करके, यानी टास द्वारा फैसला किया था।

Tej Bahadur Sapru

संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
तेज बहादुर सप्रू जीवन परिचय
पूरा नाम तेज बहादुर सप्रू
जन्म तारीख ८ दिसंबर १८७५
जन्म स्थान अलीगढ़
धर्म हिन्दू
पिता का नाम अंबिका प्रसाद
पिता का कार्य जमीन-जायदाद की देखभाल
शिक्षा मैट्रिक,
बी॰ए॰ आनर्स,
एम०ए०, एल० एल॰ बी०
कार्य स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी,
वकालत, हाईकोटों के वकील,
“इलाहाबाद ला जर्नल”के संपादक,
“ला मेंबर”, होमरूल लीग
के सदस्य,“सह-इ-अदब”
की स्थापना, नरम
दल के सदस्य
मृत्यु तारीख २० जनवरी १९४९
मृत्यु स्थान इलाहाबाद
उम्र ७४ वर्ष
भाषा हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू, फारसी

अंग्रेजों ने अपने ही ढंग की दंड-संहिता(पीनल कोड) भारत के लिए बनाई। यह झगड़ों के फैसले और अपराधी को सजा देने का तरीका था। इससे पहले भारत में कभी ऐसा न हुआ था। यह तरीका सरल और सीधे भारतवासियों को चक्कर में डालने वाला था। पहली बात तो यह कि इतने लंबे-चौड़े कानून का ज्ञान प्राप्त करना कोई आसान काम नहीं था और दूसरी बात यह कि उसमें समय तो बहुत लगता ही था, पैसे भी बहुत खर्च होते थे। पर सर तेजबहादुर सप्रू जैसे कानून के पंडितों ने यह स्पष्ट कर दिया | आगे चक्र तेजबहादुर सप्रू की कोटि के लोगों के ही हाथों में देश की बागडोर भी आई और वे देश के कर्णधार बने।

तेजबहादुर सप्रू की युक्तियों, दलीलों और कानून के ज्ञान की तूती एक बार सारे भारत में खूब जोरों से बोली। अपनी योग्यता, ज्ञान और वाक्चातुर्य का सिक्का उन्होंने इंग्लैंड में भी जमाया। भारत की स्वतंत्रता से संबंधित मामलों पर विचार करने के लिए इंग्लैंड में जो ग़ोलमेज कांफ्रेस (Round Table Conference) हुई, उन सब में सप्रू साहब ने बड़ी योग्यता के साथ काम किया। उनके काम की उन दिनों इंग्लैंड में काफी चर्चा हुई थी।

दक्षिण अफ्रीका के जनरल स्मट्स का नाम एक जमाने में बहुत मशहूर था और वह अंग्रेजी साम्राज्य के एक महान स्तंभ समझे जाते थे, पर इन्हीं कांफ्रेंसों में एक बार स्मट्स महोदय ने भारत की शान के खिलाफ कुछ बात कह दी। बस, फिर क्या था! सप्रू साहब की आंखें अंगारे बन गईं और ब्रिटिश साम्राज्य के कर्णधारों के सामने ही उन्होंने जनरल स्मट्स को वह करारा उत्तर दिया कि सब देखते ही रह गए। इंग्लैंड के एक अखबार “डेली मेल” ने, जो उन दिनों बीस लाख के करीब छपता था, इस घटना को जोरदार शीर्षक देकर छापा। दूसरे अखबारों में भी कई दिनों तक इस बात की बड़ी चर्चा रही।

भारत भूमि का स्वर्ग कश्मीर अनेक प्रसिद्ध परिवारों का स्रोत रहा है। तेजबहादुर सप्रू भी एक कश्मीरी परिवार की ही देन थे। वह कश्मीरी पंडित थे | तेजबहादुर का जन्म अलीगढ़ में ८ दिसंबर १८७५ को हुआ था। उनके दादा उत्तर प्रदेश में एक सरकारी अफसर थे और उनके पिता अंबिका प्रसाद घर पर ही रह कर जमीन-जायदाद की देखभाल करते थे। मतलब यह कि सप्रू साहब का जन्म एक अच्छे संपंन परिवार में हुआ था।

पंद्रह साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और आगरा कालेज में दाखिल हुए। पढ़ाई-लिखाई में वह बहुत तेज थे | बी॰ए॰ आनर्स में तो वह प्रथम रहे ही, एम०ए० में भी प्रथम आए। कानून की परीक्षा एल० एल॰ बी० में भी प्रथम आए। कानून की परीक्षा एल॰एल॰बी॰ भी उन्होंने शान से पास की इसके बाद उनका कार्यक्षेत्र में कुदने का समय आया।

यों तो, तेजबहादुर कालेज के दिनों से ही वाद-विवाद में काफी तेज थे, पर जब मुरादाबाद में उन्होंने वकालत आरंभ की, तो कुछ खास कामयाबी हासिल नहीं हुई। उन्हीं दिनों मदनमोहन मालवीय मुरादाबाद आए। उनकी पैनी दृष्टि युवक सप्रू पर पड़ी। वह उन्हें अपने साथ इलाहाबाद ले गए। मालवीय जी इलाहाबाद के नामी वकीलों में थे। उनके पास मुकदमों की क्या कमी थी। अतः उन्होंने कुछ मुकदमे सप्रू साहब को भी देने आरंभ किए। यहीं सप्रू साहब के उत्थान का श्रीगणेश हुआ। फिर क्या था? एक बार उनकी प्रतिभा जो चमकी, तो अंत तक चमकती ही रही। कुछ ही काल बाद वह मोतीलाल नेहरू आदि की बराबरी के वकील हो गए। कानून के महापंडितों में उनका नाम आ गया। सभी हाईकोटों में उन्होंने अपनी धाक जमा ली। कई नामी मुकदमों में उन्होंने अपनी असाधारण योग्यता का परिचय दिया।

सप्रू साहब को बहस करने और अपने पक्ष को उपस्थित करने का ढंग इतना सुंदर था कि न्यायाधीश प्रभावित तो होते ही थे, बार बार उनकी तारीफ भी करते थे। उसके लिए नमी-तुली भाषा शैली, जोरदार दलीलें और प्रसन्न मुद्रा आदि का होना बहुत जरूरी होता है। ये सब गुण तेजबहादुर सप्रू में पर्याप्त मात्रा में थे।

इलाहाबाद में उनकी वकालत थोड़ी जम गई, तो उन्होंने सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना प्रारंभ किया। कुछ अखबारों में वह लेख भी लिखने लगे। फिर १९०४ से १९१७ तक वह “इलाहाबाद ला जर्नल” के संपादक रहे। वह उत्तर प्रदेश की असेंबली के सदस्य १९१३ में चुने गए और १९१६ में केंद्रीय असेंबली में निर्वाचित होकर आए। केंद्रीय असेंबली में आने पर उन्हें अपने वाकचातुर्य और बुद्धिमत्ता के प्रदर्शन का व्यापक क्षेत्र मिला। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर १९२० में भारत के तत्कालीन वायसराय ला्ड इरविन ने उन्हें अपनी कौसिल का “ला मेंबर” बनाया, यानी वह उस समय की भारत सरकार के कानून मंत्री बने ।

भारत की आजादी की लड़ाई उस समय जोरों पर थी। असहयोग आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था। उन्हीं दिनों “प्रिंस आफ वेल्स” भारत आए, पर उन्हें काली झंडियां या सुनसान बाजार ही देखने को मिले। ऐसे अवसर पर भारत सरकार का विरुद्ध होना सरकारी दृष्टि से जायज-सा था, पर भारत के वायसराय लार्ड इरविन चाहते थे कि हड़तालें न हों ओर गांधी जी से कोई समझौता हो जाए। उस समय की परिस्थितियों की नब्ज़ समझना सप्रू साहब के ही बस की बात थी। उन्होंने चतुराई-पूर्वक वायसराय को अपनी मुट्ठी में कर लिया, पर चूंकि कांग्रेस पूरी आजादी चाहती थी, इसलिए कोई समझौता न हो सका। उस समय के उनके प्रयत्नों की सराहना देशबंधु चित्तरंजन दास आदि नेताओं ने की थी।

यो तो तेजबहादुर सप्रू बराबर सरकार के प्रमुख स्तंभ बने रहे, पर सरकार के पिट्ठू वह बने। यही कारण था कि कौंसिल के दूसरे मेंबरों, असेंबली के सदस्यों और जनता में उनका सम्मान सदा बना रहा। वस्ततः राजा और प्रजा, दोनों में उनका समान रूप से सम्मान था। दोनों उन्हें एक-सा मानते थे।

सन १९२७ की बात है। साइमन कमीशन भारत आनेवाला था। इसमें ब्रिटिश सरकार द्वारा नियत किए गए सात व्यक्ति थे, जो यह देखने आ रहे थे कि भारत को किस हद तक आजादी जाए| उस समय सप्रू साहब न तो कानून मंत्री थे और न असेंबली के सदस्य | पर जब अरसेबली में साइमन कमीशन से सहयोग अथवा असहयोग के प्रश्न पर विचार हो रहा था, तब दर्शकों की गैलरी में वह भी उपस्थित थे। कमीशन का विरोध करने वाले सदस्य बार-बार सप्रू का नाम लेते थे और कहते थे कि वह साइमन कमीशन के विरोधी हैं। इस बहस के दौरान सप्रू साहब का नाम पचास बार आया और साइमन कमीशन का केवल पांच बार। इसी से इस बात का अंदाजा मिल जाता है कि उस समय भी उनकी राय का कितना मूल्य था।

तेजबहादुर सप्रू पैदाईशी रईस थे । जनता की शक्ति और उसके द्वारा क्रांति होने में शायद उन्हें अधिक विश्वास न था, इसीलिए वह नरम दल वालों के हामी थे। पर नरम दल में होने का यह मतलय नहीं था कि उनकी गरम दल, अर्थात पूरी आजादी चाहने वालों के साथ कोई सहानुभूति ही न थी। जिन दिनों जेलें कांग्रेसियों से भरी जा रही थीं और उन पर काफी अत्याचार किए जा रहे थे, उन दिनों सप्रू साहब की हालत देखने योग्य थी। अत्याचार की कहानियां सुन कर वह बेबस पंछी की भांति फड़फडाते थे। कई बार तो उनकी आंखें भी भर आती थीं, बाद मे जब श्रीमती एनी बेसेंट ने होमरूल लीग की स्थापना की, तो वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर उनके साथ हो गए।

सप्रू साहब कानून के पंडित तो थे, पर नीरसता उनके पास नहीं फटकती थी। उनका साहित्य प्रेम विलक्षण था। उर्दू साहित्य के वह अच्छे मर्मज्ञ और फारसी के विद्वान थे उर्दू साहित्य के विकास के लिए उन्होंने “सह-इ-अदब” नामक संस्था बनाई और वह “उर्दू साहित्य परिषद” के दिल्ली अधिवेशन के सभापति बने ।

धर्म और हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रति उनके विचार गांधी जी से मिलते थे। वह खुद कहते थे – जो धर्म अछूतों के साथ न्याय नहीं करता, सार्वजनिक मामलों में उन्हें बराबरी का स्थान नहीं देता, उसका मैं हामी नहीं हूं। यदि कोई धर्मशास्त्र ऐसा है, तो वह भी मुझे मान्य नहीं है। यदि आप हरिजनों को बराबरी का अधिकार नहीं देते, तो स्वराज्य का भी कोई अर्थ नहीं है।

अपने शानदार जीवन के अंतिम क्षणों में सप्रू साहब ने टंडन जी से कहा था – “जा रहा हूं, रोग-शोक से रहित उस स्थान पर जा रहा हूं, जहां गांधी जी गए हैं।“ इस एक वाक्य से ही उनके जीवन की सारी विचारधारा का पता चलता है।

२० जनवरी १९४९ में वह हमसे जुदा हुए, पर आज भी उनकी विद्वत्ता, योग्यता और कार्य कुशलता की कहानी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है।

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