दक्षिण के एक महान संगीतकार त्यागराज हुए । उन्होंने
आंध्रप्रदेश की भाषा तेलुगु में रचनाएं की
पर उनका जन्म तमिलनाडु में तिरुवारुर में हुआ और उनका अधिकतर जीवन तमिलनाडु के ही
एक स्थान तिरुवैयारू में बीता । तिरुवैयारू में प्राचीन समय में भगवान राम के एक
भक्त रहते थे । उनका नाम था रामब्रम्हा। बचपन में उन्होंने वेद और शास्त्रों का भी
अच्छा अध्ययन किया था ।उनके तीनों बेटो में से सबसे छोटे का नाम था त्यागराज ।
त्यागराज़ का जीवन काल १७६७ से १८४७ के लगभग माना जाता है। उनका जन्म ४ मई १७६८ को
हुआ था । उनकी माता का नाम सीतांबा था ।
त्यागराज बचपन से ही तीव्र बुद्धि के थे। उन्होंने थोड़ी ही समय में महाभारत, भागवत, पुराण, रामायण आदि ग्रंथ
पढ़ डाले थे, पर उन्हें इनमें
रामायण सबसे अधिक प्रिय थे। अपनी इस आस्था के कारण वह शीघ्र ही राम के भक्त हो गए।
वह सुबह जल्दी उठकर कावेरी में
स्नान करते हैं, पूजा करके
रामायण का पाठ करते और राम नाम लिखकर पिता के पास पढ़ने जाते । शाम को वह भजन गा-गा
कर भक्तों को भगवान की लीलाएं सुनाया करते थे। उनका गला बड़ा सुरीला था, इसलिए लोग उनके
भजनों को बड़े चाव से सुना करते थे।
तंजावुर के दरबार के एक राज गायक थे, जो बहुत सुंदर
वीणा बजाते थे। उनका नाम वेंकटरमण्णया था। उन्हें सोंटी वीण वेंकट रमण दास भी कहते
थे। भाग्य से उनका घर भी उसी गली में था, जिसमें त्यागराज
रहते थे। त्यागराज को संगीत की शिक्षा किसी गुरु से नहीं मिली थी पर संगीत में
उनके शौक और उनके मधुर कंठ से मुक्त होकर वेंकटरमण्णया ने उन्हें अपना शिष्य बना
लिया। १ साल में ही त्याग
राज ने अपने गुरु से सारी विद्याएं सीख ली और स्वयं राग अलापने, तान खींचने और
स्वर-रचना करने लगे।
१८ वर्ष की आयु में उनका विवाह पार्वतम्मा से हुआ।
२ वर्ष पश्चात त्यागराज के पिता का देहांत हो
गया। उनकी पत्नी की मृत्यु, विवाह के ७ वर्ष बाद हो गई।
इसके उपरांत उन्होंने अपनी पत्नी की छोटी बहन कमलांबा से विवाह कर लिया।
त्याग राज भक्त थे इसीलिए दुनियादारी से अंजान बने रहें।
दोनों बड़े भाइयों ने उन्हें सीधा समझकर सारी जायदाद खुद हड़प ली और उन्हें केवल
एक छोटा सा घर, राम की एक
मूर्ति और पूजा की एक पिटारी दे दी। पर त्यागराज इसी में बहुत खुश थे।
त्यागराज के गीत “कीर्तन” कहलाते हैं। कहा जाता
है कि १ दिन देवर्षि नारद
ने सोचा कि जाकर त्यागराज के गीत सुने। वह एक साधु का वेश बनाकर त्याग राज के घर
आए। उस समय त्यागराज तन-मन की सुध-बुध भूल, भगवान का कीर्तन
कर रहे थे। नारद जी ने खुश होकर उनको ताड़ पत्रों की एक पुस्तक दी। जिसका नाम
“स्वरार्णव” था। यह पुस्तक आजकल प्राप्य नहीं है।
त्यागराज इतना अच्छा गाते थे, कि उनके गीत सुनने के लिए दूर-दूर के लोग आया
करते थे। उनकी भक्ति की ख्याति चारों ओर फैल गई थी। संगीत कला के अन्य आचार्यों को
उनकी प्रसिद्धि से बड़ी ईर्ष्या होती थी और वे उन्हें कष्ट पहुंचाने की कोशिश करते
रहते थे। कुछ लोग जो उनकी हितैषी थे वे चाहते थे कि संगीत कला के इस विद्वान की
स्वर लहरी झोपड़ियों से ऊपर उठकर राज महलों में भी गूंजे, इसीलिए त्यागराज
को राज दरबार में जाने की प्रेरणा देते रहते थे।
धीरे-धीरे त्यागराज के संगीत की चर्चा राज दरबार में भी
पहुंच गई। उस समय शरफोजी तंजौर का राजा
था। उसकी भी इच्छा हुई कि इतना बड़ा कलाकार यदि उसके दरबार की शोभा बढ़ाएं तो
कितना अच्छा हो। उसने बहुत साधन और उपहार देकर अपने कुछ कर्मचारियों को त्यागराज
के पास भेजा। परंतु राम के चरणों की प्रेमी को सांसारिक माया भला कब ललचा सकती थी? त्यागराज के
भाइयों ने उन्हें बहुत समझाया पर उन्होंने उनकी बात पर कान ना देकर अपना अभिप्राय
गाकर इस प्रकार प्रकट किया : “निधि चाला सुखमा, रामुनी सन्निधि
चाला सूखमा।“ अर्थात सुख निधि
धन में है या राम की सन्निधि को पाने में? और अपनी इस
निष्ठा के कारण वह राज दरबार में नहीं गए।
भगवान राम का यह प्रेमी अपने परिवार का गुजारा भीख मांग कर
किया करता था। वह राम के भजन गाता और सप्ताह में एक दिन घर-घर जाकर भिक्षा प्राप्त
करता। जो कुछ उस दिन मिल जाता उसी से बाकी दिन गुजारा करता। उसके भाई कुछ अर्थलाभ
ना होने से बहुत नाराज रहते थे।
एक बार रात का समय था। त्यागराज गहरी नींद में सोए हुए थे।
उनके बड़े भाई ने सोचा यदि इनकी मूर्तियों को कावेरी में बहा दूं तो सब ठीक हो
जाएगा। फिर त्यागराज गीत गाकर धन इकट्ठा किया करेंगे। बस इसी आशा से उसने
मूर्तियां चुरा कर कावेरी में फेंक दी। सवेरा हुआ तो त्यागराज को अपने इष्ट देव की
मूर्तियां नहीं मिली। इससे उन्हें बड़ा दुख हुआ और वह फूट-फूट कर रोने लगे।
उन्होंने रो-रो कर भगवान को पुकारा, पर वह तो मानो उस
समय उनकी परीक्षा ले रहे थे।
त्यागराज घर से निकल गए। उन्होंने निश्चय कर लिया कि जब तक
उनकी मूर्तियां नहीं मिलेंगी तब तक वह घर में कदम नहीं रखेंगे। उन्होंने बहुत सी
जगहों की खाक छानी पर मूर्तियों को कुछ पता नहीं चला। निराश होकर वह बहुत उदास
रहने लगे। एक बार आधी रात के समय त्यागराज एक मंदिर में सोए हुए थे, अचानक उन्हें ऐसा
लगा जैसे राम और लक्ष्मण उनके सामने खड़े हो और कह रहे हो – “उठो ! तुम्हारी
मूर्तियां कावेरी नदी में रेत के नीचे दबी पड़ी हैं उन्हें निकाल लो।“ त्यागराज को
ऐसा लगा मानो कुबेर का कोई खजाना मिल गया हो, मूर्तियों को
पाकर खुशी से उनका हृदय नाच उठा, उनकी आंखों से
आनंद के आंसू बहने लगे। प्रतिमाओं को लेकर जब वह अपने घर लौटे तो उनकी पत्नी भी
बहुत प्रसन्न हुई। उनके भाइयों पर भी उनकी भक्ति का इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने
भी श्रद्धा से अपना सिर झुका लिया।
सुंदरेश मुदलियार नाम का एक व्यक्ति त्यागराज का बड़ा भक्त
था। एक दिन त्यागराज को उसने अपने घर बुलाया और खूब आदर सत्कार किया। चलते समय
मुदलियार ने बिना बताए त्यागराज की पालकी में एक हजार रुपए की थैली रख दी। उसी
रास्ते से डाकूओं का एक दल जा रहा था। उन्होंने पालकी पर पत्थर फेंकने शुरू कर
दिए। त्यागराज को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इन डाकूओं को पत्थर फेंकने से भला क्या हाथ
लगेगा? तभी किसी शिष्य ने उन्हें बताया की पालकी में मुदलियार ने
एक हजार रुपए की थैली रख दी हैं। त्याग राज ने सोचा – “मैं इतने रुपयों का क्या
करूंगा? इसे उन्होंने चोरों के सरदार को बुलाकर कहा कि लो, तुम यह रुपए ले
लो।“
सरदार हाथ जोड़कर बोला – “देखिए मेरे शरीर पर कितनी चोटें
लगी हैं। हमने जो पत्थर आपके ऊपर फेंके थे, वे किन्ही दो
वीर राजकुमारों ने वापस हम पर ही मार दिए । इसीलिए हे महाराज, हमें तो आप क्षमा
करें।“
त्याग राज ने सोचा कि स्वयं भगवान राम ने अपने भाई लक्ष्मण
के साथ आकर उनकी रक्षा की हैं। उन्होंने चोरों से कहा – “तुम्हें भगवान के दर्शन
हुए हैं।“
चोर बड़े लज्जित हुए और खुद अपने कंधों पर पालकी उठा कर
त्यागराज को कांची नगर तक पहुंचाने गए।
त्यागराज के जीवन काल में ही उनकी दूसरी पत्नी का स्वर्गवास
हो गया था ।इस दुखद घटना के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया।
उन्होंने अपनी अंतिम समाधि लगाने से पूर्व सन्यास ले लिया। पौष बदी पंचमी का दिन के ग्यारह बजे
उनके सिर से आश्चर्यजनक नाद सुनाई दिया और उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई। अपनी
अंतिम समाधि से दस दिन पूर्व उन्हें एक स्वप्न दिखाई दिया जिसमें भगवान राम ने
उन्हें अपनी शरण में बुलाया था। इसी के आधार पर उन्हें अपनी प्रसिद्ध गीत
“गिरि पे नेलकोन्न” की रचना की जिसमें उन्होंने लिखा है : “गिरि पर राम
के दर्शन हुए, मैं पुलकित हुआ और राम ने
कहा कि दस दिन में तुमको मैं अपनी शरण में ले लूंगा।“
त्यागराज की अंतिम समाधि वाले दिन देशभर में उनकी याद में
अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। उन्होंने अनेक गीतों की रचना की जिनमें से लगभग सात सौ
प्राप्य हैं। उन्होंने दो गेय नाटक भी लिखे थे, जिनमें उन्होंने “प्रहलाद
का चरित्र” और “गोपी-कृष्ण के यमुना विहार” का वर्णन किया है।
त्यागराज के विषय में विद्वानों का यह मत है कावेरी क्षेत्र
ने जिन महान गीतकारो को जन्म दिया उनके नाम हैं : त्यागराज, मुत्तुस्वामी
दीक्षितर, और श्यामा शास्त्री। इन
तीनों को त्रिमूर्ति कहा जाता है। तीनों संगीतकार एक ही समय में हुए थे। तीनों ने
अपने जन्म स्थान की सुंदरता तथा महानता के गीत रचे, अपने यहां की
पांचों नदियों के मंदिरों और उनकी मूर्तियों के गुण गाए।
त्यागराज अपने गीत यश पाने
या धन कमाने के लिए नहीं रचे, बल्कि भगवान के
अनन्य भक्त की हैसियत से लिखे थे। अन्य गीत निर्माताओं की तरह उन्हें राज्य श्रेय
नहीं मिला था। असल में कई राजाओं ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया था मगर उन्होंने
जाने से साफ इनकार कर दिया था। वह अपने समय में ही इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि उनके
आसपास सैकड़ों शिष्य आकर बस गए थे। उनकी रचनाओं में कविता और संगीत दोनों का योग
था।
त्यागराज भगवान राम के भक्त थे और उनके अधिकांश गीत राम पर
रचे हुए हैं यद्यपि कुछ पद अन्य देवों पर भी हैं। कई गीतों में उन्होंने संगीत को
यंत्र, आराध्य की पूजा की सामग्री आदि बताया है और कईयों में नाद
को “नाद सुधा रस” कहां हैं।