नरसी मेहता की कहानी | नरसिंह मेहता | नरसी मेहता की कथा | नरसी मेहता का इतिहास | Narsinh Mehta ki Katha | Narsinh Mehta ki Kahani

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नरसिंह मेहता – Narsinh Mehta


सुबह होते ही गुजरात का घर
घर प्रभातिया और भक्ति के पदों से गूंज उठता है। विशेष रुप से भक्त नरसिंह के रचे
पदों की गुजरात में बहुत धूम हैं। भक्त नरसिंह गुजराती भाषा की आदि कवि माने जाते
हैं। उनकी रचे पद
, कल्पना और भक्ति रस से परिपूर्ण हैं। भक्ति में आनंद विभोर
हो
कर उन्होंने जो पद रचे थे वह अपनी सरलता और सरसता के
कारण बहुत लोकप्रिय हो गए। वह बड़े अच्छे गायक थे और अपने पदों की रचना उन्होंने
विविध रागों में की। बापू का प्यारा निम्नलिखित भजन नरसिंह का ही रचा है :

वैष्णव जन तो तेने कहिए जो
पीर पराई जाणे रे।

पर दु:खे उपकार करें तोए मन
अभिमान ना आणे‌ रे।

सकल लोकमां सहुने वन्दे,
निंदा न करें केनी ये

वाच काछ मन निश्चल राखे, धन धन जननी तेनी रे।

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी,
परस्त्री जेने मात रे ।

जिह्वा थकी असत्य न बोलें,परधन नव झाले हाथ रे।

मोह माया व्यापे नहिं जेने ,
दृढ़ वैराग्य जैना मनमां रे।

रामनामशुं ताली लागी,सकल तीरथ तैना मनमां रे ।

वण लोभी के कपट रहित छे,
काम क्रोध निवार्या रे ।

भणे नरसैयो तेनुं दरसन
करतां कुल एक तेर तार्या रे ।

 नरसिंह ने
गुजराती भाषा को अपनी सरस कविता से सजाया है। उन्होंने ज्ञान और भक्ति के बहुत से
पद लिखे हैं।
 

सौराष्ट्र के
तलाजा गांव में नरसिंह का जन्म हुआ था। उनका जीवनकाल
१४१४  ई॰ से १४८० ई॰ तक माना जाता है। नरसिंह जाति से नागर ब्राह्मण थे। उनके
पिता का नाम कृष्णदास और माता का नाम दयाकोर था। नरसिंह अभी बालक ही थे कि उनके
माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। बाद में अपने चाचा के घर उनका पालन-पोषण हुआ।
 

बचपन से ही
नरसिंह संत मंडलियों के साथ घूमा करते और देव-मंदिरों में ही अपना अधिकांश समय
गुजार देते । जब वहां १७-१८ वर्ष के हुए उनका विवाह कर दिया गया
, उनकी पत्नी का नाम माणिकबाई था । शादी के बाद
भी वह अपने चचेरे भाई के घर पर ही रहा करते थे। नरसिंह का घर के काम में मन नहीं
लगता था। इसीलिए नरसिंह की भाभी नरसिंह को प्रायः बुरा भला कहा करती थी। कहते हैं
कि एक बार दुखी होकर नरसिंह शिवजी के मंदिर में चले गए। वहां जाकर उन्होंने
दिन तप किया। इस पर शिव
जी प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्होंने कहा—तुम कृष्ण की भक्ति
और उनका गुणगान करना।
 

उसी दिन से
नरसिंह ने जूनागढ़ में अपना अलग घर ले लिया और कृष्ण की भक्ति में तन्मय हो गए। आज
भी जूनागढ़ में नागरवाडा
नामक गली में उनके
मकान की जगह एक चौरा है।वह “नरसिंह मेहता का चौरा”
के नाम से प्रसिद्ध हैं।
 

पुराने जमाने में
लोग हरिजनों को छूना पाप समझते थे पर नरसिंह हरिजनों की बस्तियों में जाकर सबके
साथ बैठ प्रभु कीर्तन करते । वह छुआछूत नहीं मानते थे इसीलिए दूसरे नागर ब्राम्हण
उनकी हंसी उड़ाते थे। उन्होंने बिरादरी से उनका बहिष्कार कर दिया
, लेकिन नरसिंह अपने आदर्श से नहीं हिले। वह तो प्राणी मात्र को ईश्वर का रूप समझते
थे। उनका कहना था कि जहां कृष्ण के भक्ति और गुणगान होगा वहां मैं नि:संकोच
बैठूंगा।
 

इसमें कोई संदेह
नहीं की नरसिंह अपने समय के माने हुए समाज सुधारक थे। यद्यपि उनको इन बातों के
कारण समाज का कोप भाजन बनना पड़ा
, पर वह अपने
निश्चय पर अटल रहे।
 

नरसिंह भक्ति के
अनेक पद लिखे हैं। कृष्ण में उनका अटूट विश्वास था। भक्तों का विश्वास है कि जैसे
द्रौपदी की लाज भरी सभा में बच गई और जैसे मीराबाई का विष का प्याला अमृत बन गया
, वैसे ही चमत्कारिक घटनाएं नरसिंह भक्त की जीवन में भी घटी।
 

एक समय की बात है
कि कुछ भक्तों को द्वारका यात्रा के लिए जाना था वे लोग किसी ऐसे साहूकार से हुंडी
लिखवाना चाहते थे जिसकी साख उस प्रदेश में भी हो। पड़ोस के कुछ लोगों ने मजाक में
नरसिंह का घर बता कर कहा कि वहां जाओ जहां नरसिंह मेहता रहते हैं। उनकी हूंडी सब
जगह चलती हैं भक्तजन वहां पहुंचे और उन्होंने नरसिंह जी से निवेदन किया आपको जितनी
पैसे चाहिए उतनी हम से ले लेकिन हमें द्वारिका में किसी के नाम हुंडी लिख दें।
 

                    

नरसिंह ने सोचा
भक्तजन है इनका काम जरूर करना है
, पर द्वारिका में
उनका कोई परिचित ना था। कुछ सोचकर उन्होंने द्वारिकाधीश
शामलशाह (श्री कृष्ण का एक नाम) सेठ के नाम पर रूपाय ७०० की हुंडी लिख दी। भक्तजन हुंडी लिखवा कर
द्वारिका जी पहुंचे। नहा धोकर खा पीकर वे सेठ
शामलशाह की तलाश में निकले। बहुत तलाश करने के बाद
पता चला कि यहां तो
शामलशाह नाम के कोई सेठ नहीं रहते। भक्तजन घबरा गए और जूनागढ़ की और
वापस जाने लगे। कहते हैं कि भगवान कृष्ण ने भक्त नरसिंह हैं की पीर जाने और
शामलशाह सेठ के रूप में रास्ते में ही भक्तजनों को मिले
और उन्हे हुंडी का पैसा
दिए
|ब नरसिंह को इस
घटना का पता चला तो वह गदगद होकर भगवान की
भक्ति का गुणगान करने लगे ।
 

नरसिंह की दो
संतान थी
, एक लड़की और एक लड़का। लड़की का नाम था कुंवरबाई
और लड़की का नाम था
शामलदास। नरसिंह ने अपनी
लड़की की शादी कर दी और ४ साल के बाद लड़की के घर बच्चे होने वाला हुआ। गुजरात में
ऐसे अवसरों पर नाना के घर से उपहार भेजने का रिवाज है। इसे गुजराती में मामेरू कहा
जाता है। कहते हैं कि लड़की के ससुराल वालों ने नरसिंह है कि गरीबी का मजाक बनाने
के लिए चीजों की बहुत लंबी चौड़ी सूची बनाकर भेज दी। नरसिंह के पास तो एक कौड़ी भी
देने को नहीं थी
, लेकिन उनको भगवान शामल (कृष्ण) पर पूर्ण
विश्वास था कि जरूर मेरा काम कर देंगे। इस अवसर पर नरसिंह साधु मंडली को साथ लेकर
अपनी लड़की की गांव पहुंचे। लड़की अपने बाप से मिलकर खूब रोई और कहने लगी कि आपके
पास पैसे नहीं थे तो इस अवसर पर आप यहां क्यों आए
? नरसिंह ने लड़की को खूब
समझाया और कहा कि जो-जो चीजें चाहिए वह अपनी सास से लिखवा कर ले आओ। सास ने यह
सुनकर जितनी वस्तुओं की जरूरत थी उन से १० गुनी अधिक चीजों की सूची बनवाई। सैकड़ों
जोड़ी कपड़े
,  किस्म-किस्म
की साड़ियां और सामान लिखवा दिया और हंसी-हंसी में यह भी लिखवा दिया कि यदि कुछ
नहीं बन सके तो दो बड़े-बड़े पत्थर ही लेते आना। गरीब भिखारी बाप से और क्या
उम्मीद की जा सकती थी
?
 

कहते हैं, इस नई विपत्ति से उद्धार पाने के लिए नरसिंह तो भगवान की कीर्तन में लीन हो गए
उधर भक्तों की पुकार सुनकर भगवान कृष्ण
शामल शाह सेठ के रूप में ठीक समय पर सब सामान लेकर लड़की के घर
पहुंच गए। जो-जो चीजें लिखवाई गई थी वे सब पहुंचा दी और जो दो पत्थर लिखे थे वह जब
सास को देने लगे तो भगवान के स्पर्श से वह पत्थर
भी सोना बन गए।
 

जब श्यामल दास १२
साल का हुआ तो उसकी मां ने सोचा कि पुत्र अब सयाना हो गया है उसकी शादी होनी
चाहिए। लेकिन पैसे बगैर शादी होनी असंभव थी। पर नरसिंह को तो विश्वास था कि भगवान
श्यामल अवश्य विवाह में पधारेंगे और यह शुभ काम सफलतापूर्वक हो जाएगा।
 

संयोग से उन्हीं
दिनों बड़नगर
मे राजा की वजीर
मदन मेहता की लड़की ८ साल की हो गई थी। प्राचीन रिवाज के अनुसार उसके लिए लड़का
ढूंढने के लिए पुरोहित जी भेजे गए। पुरोहित जी जूनागढ़ गए। उन्होंने अनेक घर देखें
, लेकिन कोई लड़का उन्हें जचा नहीं। वह वापस जाने की सोच रहे
थे
, कि इतनी भी किसी ने मजाक में कन्या के लिए नरसिंह
का लड़का बताया। पुरोहित जी ने नरसिंह की भक्ति और सदाचार से प्रभावित होकर उनके
लड़के को तिलक चढ़ा दिया और ब्याह के लिए वचन दे आए। अब पुरोहित जी बड़नगर लौट आए
और उन्होंने सब हाल मदन मेहता को सुनाया। यह सुनकर लड़की के मां-बाप दुखी हुए
| पुरोहित जी ने सबको समझाया और शादी का दिन पक्का करके
नरसिंह को सूचित कर दिया। तिथि निश्चित हो जाने पर नरसिंह सहायता के लिए द्वारिका
पहुंचे । वहां जाकर प्रभु की बहुत प्रार्थना की और भगवान को विवाह में साथ रहने का
निमंत्रण दे आए। प्रभु जी
शामल शाह सेठ के रूप
में बारात में साथ रहे और १२ दिन के बाद जब बारात बड़नगर पहुंची तब ठाट-बाट से
भक्त के पुत्र की शादी हो गई।
 

                        

जिस तरह मीरा को
अपने विरोधियों के हाथों अनेक कष्ट सहने पड़े
, उसी तरह नरसिंह
को भी अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा था।
 

उनके जीवन में
घटित चमत्कारों की कहानी जूनागढ़ के राजा के कानों में भी पहुंची। कुछ दरबारियों
ने राजा के कान भरे कि
और उसकी परीक्षा लेने को कहा, तब पता चलेगा उसका शामलिया कैसे उसे बचाते हैं।
 

राजा ने नरसिंह
को पकड़ मंगवाया और ललकारा कि यदि तेरे भगवान सच्चे हैं
, तो उन्हें अब अपनी मदद के लिए बुला यदि सुबह तेरी गले में भगवान फूलों की
माला नहीं डाल गए तो समझ लेना तेरी जान की खैर नहीं। नरसिंह भगवान में अटूट
श्रद्धा थी। वह गाते और करताल बजाते हुए हरि कीर्तन करने लगे। भगवान ने इस संकट के
समय भक्तों की लाज रखें और अंतरिक्ष से नरसिंह के गले में फूलों की माला डाल दी।
कहते हैं या चमत्कार देखकर चारों ओर करतल ध्वनि होने लगी।
 

नरसिंह ने मीरा
की तरह अपने जीवन में घटित इसी प्रकार की अन्य चमत्कार पूर्ण घटनाओं का उल्लेख
अपने पदों में किया हैं। उनकी मधुर पद गुजरात में घर-घर गाए जाते हैं और उनकी भक्ति
की कहानी लोग बड़े
उत्साह से सुनते-सुनाते
हैं
             

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