नर्मद | कवि नर्मद | Narmad
गुजरात की एक पाठशाला के एक साधारण शिक्षक ने पाठशाला से घर लौटने पर अश्रु भरे नयनों से संकल्प किया : लेखनी! अब मै तेरी शरण हूं और केवल तुझ पर निर्भर रहूंगा। वह शिक्षक थे – नर्मद | आगे चलकर आधुनिक गुजराती साहित्य को प्रकार से सजाया-संवारा और उसकी श्रीवृद्धि की | गुजराती साहित्य के इतिहास में नर्मद का आविर्भाव एक युगांतकारी घटना है। वह आधुनिक गुजरात की संस्कृति के निर्माताओं में थे।
संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
पूरा नाम | नर्मदार शंकर दुबे |
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जन्म तारीख | २४ अगस्त १८३३ |
जन्म स्थान | सूरत (गुजरात) |
पिता का नाम | लालशंकर |
माता का नाम | नवदुर्गा |
धर्म | हिन्दू |
शिक्षा | सूरत में आरंभिक शिक्षा, एलफिस्टन इंस्टीट्यूट बंबई |
कार्य | समाजसेवक, साहित्य रचना, काव्य रचना, निबंधकार, आत्मकथा लेखक, कोशकार, चरित्रलेखन |
रचनाए | जय जय गरबी गुजरात, देशाभिमान, सहुं चलो जीतवा जंग, सांझ-शोभा, अवसा संदेश, आ ते शा तुज हाल, कबीर-वड, वीरसिंह, रुदन-रसिक |
मृत्यु तारीख | २६ फरवरी १८८६ |
उम्र | ५३ वर्ष |
कवि नर्मद का जन्म
कवि नर्मद का पूरा नाम नर्मदार शंकर दुबे था, किंतु वह नर्मद नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका जन्म गुजरात राज्य के सूरत शहर में २४ अगस्त १८३३ को बड़नगरा नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ।
पिता का नाम लालशंकर और माता का नाम नवदुर्गा था।
कवि नर्मद की शिक्षा
नर्मदाशंकर दुबे की प्राथमिक शिक्षा सूरत में ही हुई। माध्यमिक शिक्षा के लिए वह बंबई के एलफिस्टन इंस्टीट्यूट में पढ़ने चले गए। इसके पूर्व ११ वर्ष की आयु में ही उनका विवाह हो गया। उन दिनों बाल विवाह की प्रथा थी। लड़के-लडकियों का बहुत छोटी उम्र में विवाह कर दिया जाता था। विवाह की जिम्मेदारी के कारण नर्मद की पढाई में बाधा हुई। वह अधिक नहीं पढ़ सके और सूरत लोट आए।
कवि नर्मद के कार्य
सूरत के पास रांदेर नाम का एक स्थान है। वहां उन्होंने १८५२ में १५ रुपये मासिक के अल्प वेतन पर अध्यापक की नौकरी कर ली। अध्यापन का काम भी वह अधिक दिनों तक नहीं कर सके, क्योंकि वह स्वाभिमानी और भावुक व्यक्ति थे। उन्होंने साहित्य का क्षेत्र अपनाया और काव्य रचना आरंभ की। काव्य रचना उनके लिए सहज स्वाभाविक थी। उसमें उन्हें बहुत आनंद आता था। काव्य रचना की शक्ति मुझमें मौजूद है, ऐसा आत्म विश्वास भी उनको था। इसी से छंद, रस, अलंकार आदि का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया। जैसे-जैसे उनकी कविताएं लोगों तक पहुंचने लगी, उनको लोकप्रियता मिलने लगी। देखते ही देखते नर्मद की गणना अच्छे कवियों में होने लगी।
जिस समय नर्मद ने काव्य रचना आरंभ की, उस समय उनकी आयु केवल २५ वर्ष की थी। उनका युवक हृदय उत्साह से भरा हुआ था और उसमें साहित्य प्रेम हिलोरे ले रहा था। नौकरी को लात मारकर काव्य रचना को जीवन का आधार बनाना तलवार की धार पर चलने के बराबर था, लेकिन नर्मद ने पूरे आत्मविश्वास के साथ उसे अपनाया था। एक तरह से साधारण जनों की सुख चैन की जिंदगी को छोड़कर उन्होंने कठोर तपस्या का मार्ग अपनाया था, लेकिन भविष्य ने बताया कि उनका निर्णय गलत नहीं था और उनकी तपस्या अंत में फलवती हुई। समय आने पर नर्मद को आधुनिक गुजराती संस्कृति का विधाता माना गया।
नर्मद आधुनिक गुजराती कविता के जनक
नर्मद आधुनिक गुजराती कविता के जनक ही नहीं थे, वह गुजराती के प्रथम गद्यकार भी थे | उन्हीं को गुजराती का प्रथम निबंधकार, प्रथम आलोचक, प्रथम आत्मकथा लेखक और प्रथम कोशकार होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने ही लोगों को गुजरात की गरिमा का ज्ञान कराया। उनका अमर काव्य “जय जय गरबी गुजरात” गुजरात का गौरव गीत बन गया है। “देशाभिमान” शब्द उन्होंने ही गुजरात को दिया।
कवि के रूप में नर्मद ने पहला काम यह किया कि गुजराती भाषा में नए-नए विषयों पर काव्य रचना की। मध्यकाल के गुजराती कवि प्रधानतः पौराणिक कथाओं, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, श्रृंगार आदि विषयों पर ही काव्य रचना करते थे। नर्मद ने कविता का क्षेत्र विस्तृत किया। अंग्रेज़ी साहित्य के अध्ययन से प्रेरणा प्राप्त कर उन्होंने स्वतंत्रता, प्रकृति, आदि विषयों पर गुजराती में कविताएं लिखीं।
उन्होंने अंग्रेज़ी के ढंग पर व्यक्ति प्रधान कविताएं लिखीं। इस प्रकार उन्होंने गुजराती कविता में नई पगडंडियां बनाई। उनकी कितनी ही कविताएं उदाहरणार्थ, “सहुं चलो जीतवा जंग”, “आ ते शा तुज हाल”, “अवसा संदेश”, “सांझ-शोभा”, “कबीर-वड” आदि कविताएं कभी भुलाई नहीं जा सकेंगी। गुजराती भाषा में महाकाव्य लिखने की उनकी इच्छा थी। “वीरसिंह” और “रुदन-रसिक” नामक दो महाकाव्य उन्होंने लिखने आरंभ किए थे, लेकिन वह अधूरे ही रह गए। काव्य के उच्च शिखरों तक नर्मद नहीं पहुंच पाए, लेकिन नवीन पथ के अन्वेषी के रूप में और नवीन धारा के प्रवाहक के रूप में उन्हें सदा याद किया जाएगा।
कवि नर्मद एक समाज सुधारक
नर्मद कवि होने के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उनके काव्य पर इसकी छाप स्पष्ट थी। १८६९ के आसपास उनकी कविता को “सुधार की बाइबल” समझा गया। गुजराती के प्रथम गद्यकार के रूप में नर्मद ने निबंध विवेचन, चरित्रलेखन, नाटक, इतिहास आदि साहित्य के विविध प्रकारों को अपनाया। कुछ लोगों का कहना है कि नर्मद की कविता की अपेक्षा उनका गद्य अधिक पुष्ट है। गुजराती भाषा का पहला निबंध शास्त्री उनको ही माना जाता है। उन्होंने स्वतंत्रता, समाज-सुधार, इतिहास, शिक्षा, धर्म, उद्योग एवं स्वदेशाभिमान आदि विषयों पर निबंध लिखे। इन निबंधों की भाषा सरल है | नर्मद के व्यक्तित्व के सभी लक्षण उनके निबंधों में प्रकट होते हैं।
वैसे तो गुजराती साहित्य के प्रथम आलोचक नवलराम लक्ष्मीराम पांडया माने जाते हैं, लेकिन कुछ लोगों का विचार है कि वह स्थान नर्मद को ही मिलना चाहिए। नर्मद आलोचक तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने साहित्य के मर्म की पहचान के संबंध में लेख लिखे। नर्मद गुजराती भाषा के पहले कोशकार भी थे, उनके पहले एक मुसलमान सज्जन तथा दूसरे करसनदास मूलजी ने शब्दकोश तैयार किए थे लेकिन वे बहुत छोटे थे। नर्मद का शब्दकोश इन सबसे बहुत बड़ा है। उन्होंने अकेले अदम्य उत्साह के साथ १२ वर्ष के अथक परिश्रम के बाद इस कोश को तैयार किया। कोशकार के रूप में अंग्रेजी भाषा में जो स्थान डा. जॉनसन का है, वही नर्मद का गुजराती में है। इस कोश को पूरा करने के काम में नर्मद को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा लेकिन गुजरात और गुजराती भाषा के प्रति अगाध प्रेम रखने वाले नर्मद के सामने उनका कोई मूल्य नहीं था। उन्होंने ऋण लेकर भी कोश संपूर्ण किया और उसे गुजरात और गुजराती भाषा को अर्पित किया। नर्मद का यह कोश जिसका नाम नर्मदकोश है, उनकी एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता है।
नर्मद ने केवल साहित्य सेवा ही नहीं की, वह गुजरात में अपने युग के एक बड़े समाज- सुधारक भी हुए। उन दिनों समाज सुधार की लहरें सारे भारतवर्ष में फैली हुई थीं। नर्मद ने उसे फैलाया। अपनी लगन के कारण वह १८५८ में बुद्धि-वर्धक सभा के मंत्री और बुद्धि-वरधक ग्रंथ के संपादक बनाए गए। नर्मद ने जाति-पाति के बंधन तोड़े, पुरानी रूढ़ियों का खंडन किया| अज्ञान, अंधविश्वास, और पुरानी लकीर पर चलने की प्रवृत्ति का उन्होंने उग्र विरोध किया |
उन्होंने एक ब्राह्मण विधवा का पुनर्विवाह कराया था, एक निराधार विधवा को अपने घर में आश्रय दिया था और एक अन्य विधवा के साथ विवाह किया था। उन्होंने “दांडियो” नामक एक पाक्षिक पत्र निकालना आरंभ किया और इसमें पुरानी सड़ी-गली रूढ़ियों का जोरदार खंडन किया। अपने समाज-सुधार के कार्यों के कारण वह “प्रबोधकाल के मंगल नेता” कहलाए।
कवि नर्मद की मृत्यु
नर्मद का अवसान २६ फरवरी १८८६ में हुआ। समाज और साहित्य के कितने ही क्षेत्रों मंं उन्होंने सबसे पहले कदम उठाया। उन्होंने गुजराती की अमूल्य सेवा की और लोगों को जनहित, देशप्रेम और उत्कर्ष का पाठ पढ़ाया।