सभी महापुरुष वर्तमान के लाड़ले, भूतकाल की विरासत
और भविष्य काल के मार्ग दर्शक हुआ करते हैं।
यह बालाजी जनार्दन भानू (नाना फडणवीस)
के संबंध में भी सच है। जिन प्रभावशाली और चतुर राजनीतिज्ञों को “मराठा शासन” ने जन्म दिया, नाना भी उन्ही
में से थे।
नाना का जन्म १२ फरवरी १७४२ को हुआ । नाना के पिता का नाम
जनार्दन पंत और मां का नाम रुकमणीबाई था। नाना की मां मेहेंदले के परिवार की कन्या
थी। चार वर्ष की छोटी उम्र में नाना का यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ था। बचपन में
नाना मंदिरों में जिन देव मूर्तियों के दर्शन करते थे, उन्हीं की
प्रकृतियां मिट्टी के लौंदे से निर्मित किया करते थे । उन्हें इसका एक अजीब सा शौक हो गया था। इन
मूर्तियों की वह पूजा अर्चना करते हैं, चढ़ोत्री चढ़ाते हैं उन्हें भोग भी लगाते । दस
वर्ष की अवस्था में नाना का विवाह “गद्र” परिवार की कन्या यशोदाबाई से हुआ। नाना
जब चौदह वर्ष के थे, तब घोड़े पर से
गिर पड़े और संयोगवश मौत से बचे ।
नाना की जीवन की महान घटना ३० मार्च १७५६ के दिन घटी, जब वह बालाजी बाजीराव (नाना साहब) पेशवा के
साथ “कोंकण” की चढ़ाई के लिए रवाना
हुए। इसी साल नाना के पिता का स्वर्गवास हुआ। नियम पूर्वक नाना पिता की पद पर
नियुक्त किए गए और उन्हें फडणवीस पद के वस्त्र समर्पित हुए हैं। नाना में नियमितता, दृढ़ता, पाबंदी यह महान
गुण थे ,जो जन्मजात
चतुराई में पगे थे।
इसके बाद बालाजी बाजीराव पेशवा नाना को अपने साथ
श्रीरंगपट्टम ले गए। वहां से लौट आने पर लगभग १ वर्ष बाद उनके पुत्र हुआ और कुछ ही महीने बाद
उनकी मृत्यु भी हो गई। इस घटना के चंद दिनों बाद नाना अपनी माता और पत्नी को साथ
लेकर गोदावरी तीर पर बसे पुण्य क्षेत्रों की यात्रा करने निकल पड़े । वह गंगा जी
भी जाने का इरादा कर रहे थे कि उन्हें पेशवा के चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के साथ
पानीपत के युद्ध क्षेत्र के लिए कूच करना पड़ा। वह
अपने साथ अपनी माता और पत्नी को भी युद्ध क्षेत्र ले गए। इससे यह स्पष्ट है कि
नाना के मन में धर्म के संबंध में जितनी प्रबल श्रद्धा थी उतनी प्रखर
कर्तव्यनिष्ठा भी उनमें थी। नाना ने अपना जो आत्मवृत्त लिखा है उसमें १७६१ के
युद्ध का और उसमें हुई अनर्थकारी हार का वर्णन विस्तार पूर्वक अंकित किया है।
नाना जब युद्ध क्षेत्र से पानीपत ग्राम को लौट आए तब उन्हें
मालूम हुआ कि उनकी पत्नी और माता का कहीं पता नहीं चल रहा है । इससे नाना दुख में डूब गए। पुणे की ओर लौटते
हुए उन्होंने मार्ग में उनका पता लगाने का निश्चय कर लिया। उन्हें मालूम हुआ कि
उनकी पत्नी वैरोजिराव बरुनकर की सहायता से सुरक्षित जिंजी पहुंची हैं। फिर उन्हें खबर मिली कि उनकी माता
भी अन्य कैदियों के साथ अबदाली की छावनी में कैद हैं। नाना अपनी माता की आबरू और
प्राण बचाकर उन्हें सुरक्षित लौट लाने के लिए स्वयं अपने प्राण भी समर्पित करने के
लिए तैयार थे। किंतु शीघ्र ही उन्हें मालूम हुआ कि उनकी माता स्वर्ग सिधार गई।
दुख से बोझिल हृदय लेकर नाना पुणे की ओर लौटे और बुरहानपुर
आ पहुंचे। यहां पर उनकी पेशवा बालाजी राव से भेंट हुई, जो बड़ी भारी सेना को साथ लेकर सदाशिव राव भाऊ
की सहायता के लिए पानीपत की ओर जा रहे थे। युद्ध क्षेत्र में मराठा सेना की तबाही
और प्रचंड प्राण हानि के विस्तृत समाचार नाना से सुनकर वह पुणे लौट पड़े।
पेशवा बालाजी राव का शरीरांत पुणे में २४ जून १७६१ को हो गया।
बालाजी राव के पुत्र माधवराव को सतारा के राजा छत्रपति ने वारिस घोषित करके पेशवा
पद के अधिकार सौंपे और उस पद पर उनकी नियुक्ति की। इस समय माधवराव की अवस्था १७ वर्ष की और नाना की अवस्था १९ वर्ष की थी। बहुत छोटी उम्र से ही दोनों में
बड़ी घनिष्ठ मित्रता थी। इस बदली हुई परिस्थिति के कारण नाना बड़ी नाजुक स्थिति
में घिर गए। माधवराव के काका रघुनाथ राव पुणे पर अधिकार जमाना चाहते थे। सत्ता
हथियाने की इस दौड़ में रघुनाथ राव ने नाना को फडणवीस पद से हटा दिया। किंतु शीघ्र
ही माधवराव ने रघुनाथ राव की इस कार्यवाही को खारिज किया और नाना को फिर से फडणवीस
पद पर नियुक्त किया।
किंतु इस प्रकार फडणवीस पद की पुणे प्राप्ति के बाद नाना को
जो नया काम सौंपा गया, वह उनके पुराने
कामकाज से बहुत कुछ भी न था। पहले उन्हें शासन और सत्ता संबंधी अधिकार मिले हुए
थे। अब उनका कामकाज २ विभागों में बंट
गया था। एक तो पेशवा की राजधानी पुणे में चलने वाले आय-व्यय का हिसाब-किताब रखना, उसकी जांच पड़ताल करना, आय-व्यय का अनुमान पत्र बनाना और राजधानी में
चलने वाले शासकीय कामकाज की देखरेख करना आदि सारा फडणवीसी कामकाज और दूसरे पेशवा
जब किसी मुहिम के लिए जाएं तब उनकी फौजी छावनी में चलने वाला इसी प्रकार का
कामकाज। इस प्रकार अब इस नई नियुक्ति से नाना के हाथों में अधिक व्यापक शासनाधिकार
आ गए। पेशवा और उनके काका रघुनाथराव के बीच प्रायः अनबन और मतभेद होने की प्रसंग
उठा करते । ऐसे समय पर नाना को अपनी योग्यता स्थापित करने का अवसर मिलता। नाना के
साहस पूर्ण जीवन और शासन कार्य की दृढ़ता को देख पेशवा बहुत संतुष्ट हुए और
उन्होंने नाना को अपने राज्य में शासनाधिकार चलाने के समग्र अधिकार सौंप दिए। ऐसी
दशा में आगामी दस वर्ष के अंदर ही नाना फडणवीस, पेशवा के प्रधानमंत्री बन गए | नाना की वफादारी ने पूर्णतया यह साबित कर
दिखाया की पेशवा का उन पर जो विश्वास था, उसके वह हर तरह
से पात्र थे।
पेशवा माधवराव की मृत्यु १७७२ में हो गई और उनके छोटे भाई नारायण राव उनके
उत्तराधिकारी बने। किंतु नारायण राव की अवस्था बहुत छोटी थी और उन्हें कामकाज का
अनुभव भी नहीं के बराबर था। राज्य शासन की सारी जिम्मेदारी नाना और सखाराम बापू पर
आ पड़ी थी। सखाराम बापू उम्र में नाना की अपेक्षा बहुत बड़े थे। कई अवसर ऐसे भी
आते थे कि पेशवा अपनी माता के कहने में आकर ऐसे निर्णय ले बैठते थे जिनके कारण
जनता में असंतोष के लक्षण दिखाई देते । नारायण राव ने काका रघुनाथ राव पेशवा पद पर
आरूढ़ होना चाहते थे। उन्होंने इस असंतोष का फायदा उठाया और पेशवा नारायण राव की
हत्या करवाई। नाना ने तुरंत ही
परिस्थिति पर काबू कर पूना को लूट-खसोट और
अग्निकांड से बचाने के उचित उपाय किए । इससे नाना की सामयिक सूझबूझ का पता चलता
है। आगे क्या किया जाए इसका निर्णय करने के लिए नाना ने तुरंत शहर के प्रमुख
व्यक्तियों और शासन अधिकारियों की एक सभा बुलवाई। इस सभा के निर्णय अनुसार नाना और
बापू ने राज्य के महत्वपूर्ण १२ नेताओं का एक
संगठन कायम किया, जो आगे चलकर “बारभाई”
के नाम से मशहूर हुआ। फिर नाना ने सातारा की राजा पर दबाव डाला कि वह पेशवा पद पर
रघुनाथ राव की नियुक्ति को नियम विरुद्ध घोषित कर दें। दरमियान में नाना ने निजाम
आदि सारे महत्वपूर्ण राज्यों की राजाओं और नवाबों को बार भाइयों की वश में कर
लिया। अंत में नारायण राव के बेटे सवाई माधवराव को नारायणराव का उत्तराधिकारी
घोषित कराने और पेशवा पद पर आरूढ़ कराने में नाना को सफलता प्राप्त हुई। पेशवा
शासन में मची हुई इस धांधली से लाभ उठाने के लिए अंग्रेजों ने मराठा राज्य पर धावा
बोल दिया। किंतु नाना ने उन्हें करारी शिकस्त दी और उनसे सुलह कर शांति स्थापित
की। यह सुलह “पुरंदर सुलह” कहलाई। फिर एक बार अंग्रेजों ने अपना सिर ऊंचा
उठाकर रघुनाथ राव को पेशवा के पद पर आरूढ़ कराने की कोशिश की, लेकिन नाना ने बड़गांव में उन्हें फिर से
हराकर उनके सारे मंसूबे मिट्टी में मिला दिए ।
उन दिनों यूरोप में अंग्रेजो की हालत बहुत नाज़ुक थीं।
अमेरिका का स्वाधीनता संग्राम चल रहा था और फ्रांसीसियों की किस्मत का सितारा
बुलंद था । फ्रांसीसियों का राजदूत सेंट लूबिन भारत आया था । नाना का फ्रांसीसियों
के साथ पत्र व्यवहार जारी था ही । नाना ने आदरपूर्वक सेंट लूबिन का स्वागत किया ।
फ्रांसीसियों के साथ नाना मित्रता का संबंध स्थापित करना चाहते थे ।
नाना की कूटनीति से उत्तेजित होकर अंग्रेजो ने मराठों को
वशीभूत करने और नाना को अपदस्थ करने देने की ठानी । किंतु नाना ने हैदर अली, निज़ाम, पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी, दिल्ली के मुगल
बादशाह और जंजीरा से सिद्दी को भी अपने साथ मिला कर एक प्रबल राज्य संघ कायम किया, जिससे अंग्रेज़
बिल्कुल अकेले पड़ गए । इस मामले में नाना की
राजशासन संबंधी अद्वितीय योग्यता स्थापित हो गई । अंग्रेजो ने मराठा
सरदारों को फुसलाने की हरचंद कोशिशे की, किंतु उनकी एक न चली और आखिरकार हार मानकर
उन्हें सालबाई की सुलह करने पर मजबुर होना पड़ा ।
इन्हीं दिनों दिल्ली का मामला बिगाड़कर होकर दिनोदिन बद से बद्तर
होता जा रहा था | किन्तु नाना और
महादजी शिंदे ने इस बिगड़ती बाजी को बड़ी
निपुणता से संभाला और मुगल बादशाह को संरक्षण देकर शाही सल्तनत पर मराठों का
प्रभाव जमा दिया । इस मामले में बादशाह शाह-आलम को अंग्रेजो के चंगुल से सुरक्षित
रखने के लिए जों सतर्कता पूर्वक उपाय नाना ने किया, उससे उनकी
राजनीतिक दूरदर्शिता का खासा परिचय मिलता है।
नाना को अब एक नए ही संघर्ष का सामना करना पड़ा । मैसूर के
टीपू सुल्तान ने मराठा प्रदेश का अतिक्रमण करना शुरू किया था । नाना ने सोचा कि
अंग्रेज़ यदि टीपू से जा मिलेंगे तो उससे मराठों को अधिक हानि उठानी पड़ेगी ।
इसीलिए बड़ी चतुराई से नाना ने अंग्रजों से यह आश्वासन प्राप्त किया कि वे टीपू पर
चढ़ाई करने में मराठों को मदद देंगे । किंतु अंततोगत्वा अंग्रेजो ने अपना वचन नहीं
निभाया । युद्ध में टीपू की हार हुई और गजेंद्रगढ़ से सुलह होकर शांति स्थापित हुई
। इस प्रकार नाना ने केवल टीपू को ही नहीं हराया, बल्कि अंग्रेजो
के विश्वासघात का भी पर्दाफाश कर दिया । इसी बीच अंग्रजों और टीपू के बीच फिर
झगड़ा शुरू हुआ, क्युकी टीपू स्पस्ठ रूप से फ्रांसीसियों की
मदद करता था। अंग्रेजो ने नाना से प्रार्थना की कि वह टीपू के विरुद्ध उनकी मदद
करे । बहुत समय तक आनाकानी करने के बाद नाना ने अंग्रेज़ो की मदद करना स्वीकार कर
लिया, क्युकी अभी बहुत
सारा मराठा प्रदेश टीपू के कब्जे में रह गया था, जिसे उसके चंगुल से छुड़ाने जरूरी था । फिर भी
नाना की स्पष्टतया यह नीति थी कि अंग्रेज़ टीपू को पूर्णतया परास्त ना कर पाए ।
आखिरकार मैसूर राज्य के साथ अंग्रेजो का युद्ध छिड़ गया और टीपू की उसमें हार हुई
। मराठा प्रदेश फिर से प्राप्त करने में नाना कामयाब हुए ।
इस युद्ध से नाना अभी विमुक्त नहीं हो पाए थे कि इतने में
निज़ाम ने मराठा प्रदेश में ऊधम मचाना शुरू कर दिया खर्डा की लड़ाई में उनकी हार हुई और १७९५ में शांति
स्थापित हुई ।
इस मराठा-निज़ाम युद्ध से नाना के विमुक्त होते न होते
पेशवा सवाई माधवराव ने आत्महत्या कर ली । अब फिर हमेशा की तरह उत्तराधिकारी के
झगड़े शुरू हुए | अंत में बाजीराव
द्वितीय पेशवा हुए । इसी समय महादजी शिंदे भी स्वर्ग सिधारे और उनके पद पर दौलतराव
शिंदे आरुढ़ हुए । बाजीराव द्वितीय और दौलतराव शिंदे किसी भी एक सिद्धांत या नीति
के पाबंद नहीं थे । नाना से उनकी नहीं पटी और अनबन यहां तक बढ़ी कि उन्होंने नाना
को बंदी बनाया, पर बाद में मुक्त
कर दिया। इससे नाना का दिल पूर्णतया टूट गया। फिर भी नाना पेशवा शासन के प्रति
राजनिष्ठ रहे । शासन में मची इस अव्यवस्था और धांधली से लाभ उठाकर अंग्रेज़ पेशवा
के गले में “सब्सिडीयरी मित्रता-संधि” का फंदा अटकाना चाहते थे । किन्तु जब तक नाना जीवित रहे, तब तक अंग्रेज़ो
के इस प्रकार की संधि के फंदे में पेशवाओं को उन्होंने फसने नहीं दिया । बाजीराव
द्वितीय तथा दौलतराव के हाथो तरह-तरह से अपमानित होकर और हथप्रभ होने के बाद नाना
१३ मार्च १८०० को इहलोक में चल बसे ।
शासन में चलने वाले हर मामले की खबर पाने के लिए नाना ने जो
गुप्तचर दल कायम किया था, उसी पर नाना ने राजशासन की सफलता का दारोमदार था। नाना
कट्टर राष्ट्रवादी ही नहीं थे, उनकी कार्यक्षमता भी बहुत प्रचंड थी ।
अंग्रेजो की नीति को सही-सही परखने में नाना ने जो अलौकिक
सूझबूझ दिखाई, उसी से उनकी
राजनीतिक महानता की सच्ची कीमत आंकी जा सकती हैं। इस संबंध में नाना का कथन है – “प्रारंभ
में तो अंग्रेज़ो के संभाषण और लेख इतने मधुर हुआ करते हैं कि हर कोई व्यक्ति उनके
उदारतापूर्वक विश्व बंधुत्व के शब्द जाल के भुलावे में आ जाता हैं और विश्वास करने
लगता कि संसार की समूची साधुवृत्ति और सच्चाई का खज़ाना भगवान ने इन्हीं लोगों के
पल्ले में डाल दिया है। इन लोगो की बातचीत का ढंग भी बहुत ही विनयपुर्ण और लुभावना
हुआ करता है। किंतु प्रत्यक्ष अनुभव करने पर ही इस बिल्ली के स्वार्थ भरे नाखून
निकल पड़ते हैं। एक को लुभाकर दूसरे को धर दबाना, यह तो इन लोगो का
स्वाभाविक गुण है। झूठे, फरेब फैलाकर
शासन करना इनकी नीति है ।“
सभी बातो को देखने पर स्पष्टतया यह साबित होती हैं कि नाना
के मन में वास करने वाली ईश्वर शक्ति, राष्ट्र भक्ति , मातृ भक्ति, अपने देश बांधवो
के प्रति निष्ठा और कर्तव्य प्रेम के बल-बूते पर ही उनका नाम इस देश के इतिहास में
अमिट और अमर हो गया ।