नारायण गुरु का जीवन परिचय | नारायण गुरु की जीवनी | Narayana Guru
उन्नीसवीं शताब्दी में वैसे तो देश-भर में जात-पात, छुआछूत आदि की बुराई फैली हुई थी, परंतु इन सामाजिक बुराइयों की सबसे गहरी जड़ जमी हुई थी केरल में | वहां के हर व्यक्ति को अपनी जाति का घमंड था और वह अपने से नीची जाति वालों से नफरत करता था। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति नायर जाति का हो, तो वह ब्राह्मण से कुछ दूर खड़ा होकर ही बात कर सकता था, परंतु उसे छू बिल्कुल नहीं सकता था, वरना ब्राह्मण भ्रष्ट हो जाता। अपेक्षाकृत नीची जाति इजवा का व्यक्ति, ब्राह्मण से ३६ कदम दूर भी खड़ा होता तो ब्राह्मण की जाति चली जाती। पुलयन जाति का व्यक्ति तो यदि ब्राह्मण के ९६ कदम के फासले पर भी आ जाता तो ब्राह्मण भ्रष्ट हो जाता था। जो व्यवहार ब्राह्मण अपने से नीची जाति वालों से करते, वही व्यवहार नीची जाति वाले अपने से और नीची जाति वालों से करते। इस तरह यह सिलसिला बराबर चलता रहता।
पुरड वन्नन जाति के लोगों को यह आज्ञा थी कि वह अपना मुंह तक किसी को न दिखाएं, क्योकी उनके देखने मात्र से ही दूसरा आदमी अपवित्र हो जाएगा।
अछुत लोग अपने से ऊंची जाति वालीं के मंदिरों में नही जा थे और ही उनके स्कूलों में भी नही पढ़ सकते थे। वे आम कुंआ से पीने के लिए पानी तक नहीं भर सकते थे। उनके लिए अलग कुएं होते थे। उन्हें गांव के अंदर रहने भी नहीं दिया जाता था। वैसे गांव से परे छोटी-छोटी झोपड़िया बनाकर रहते थें। कहने का मतलब यह है कि वहां समाज-सुधार का काम सबसे कठिन था और इसे करने का बीड़ा उठाया था, नारायण गुरु ने।
नारायण गुरु का जन्म
नारायण गुरु का जन्म ३ सितंबर १८५४ को तिरुवांकर से सात मील दूर स्थित चेम्परपंति नामक गांव में इजवा जाति के एक बहुत ही गरीब घर में हुआ था। घर मे उन्हे नानु के नाम से बुलाया जाता था। अपने गांव में रहते हुए भी नानु ने संस्कृत की शिक्षा पाई और आयुर्वेद तथा ज्योतिष का भी अध्ययन किया। उनके इस अध्ययन का महत्व इस बात में है कि उस समय तिरवांकुर में नीची जातियों के लोगों को मामूली अधिकार भी प्राप्त नहीं थे पर उसके बावजूद, उन्होने इन विषयों की अच्छी जानकारी प्राप्त कर ली।
नारायण गुरु की शिक्षा
संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने के बाद कुछ समय उन्होंने अध्यापक के रूप में काम किया। इसी समय उन्होंने कुछ भक्त-गीत भी लिखे। इन दिनों उनके दिल में द्वंद चल रहा था कि सांसारिक बंधनों में पड़ा जाए या कुछ ऊपर उठा जाए। चौबीस-पच्चीस वर्ष की अवस्था में वह अपने घर-बार को छोड़कर किसी अज्ञात स्थान पर चले गए। कई वर्षों तक उनके बारे में कोई पता न चला। पर सुना जाता है कि इस अवधि में उन्होंने अय्यावु नाम के एक तमिल साथक से योग की शिक्षा ली। फिर वह मरुत्व की पहाड़ियों में योग साधना करते रहे। वहां जंगली पशु तक उनके मित्र बन गए थे। साधु के रूप में वह तटवर्ती गाव के मछुओ के बीच घूमा करते थे, कहा जाता है कि एक योगिनी से आशीर्वाद पाकर वह जनता-जनार्दन की सेवा में जुट गए।
नारायण गुरु द्वारा शिव मंदिर का निर्माण
अरुविप्पुरम में उन्होने अपने संदेश का प्रचार शुरू किया। ३० वर्ष के होते-होते योगी के रूप में उनकी ख्याति फैल गई। उस इलाके की नीची कही जाने वाली जातियों में वह समानता और भाईचारे का प्रचार करने लगे । वहां के लोगों के लिए, जिनमें अधिकांश नीची जातियों के थे, उन्होंने एक शिव मंदिर बनवाया। इस मंदिर में पहली बार एक ऐसे व्यक्ति ने पूजा की जो पुजारी वर्ग का नहीं था। यदि और कोई नीची जाति का व्यक्ति यह काम करता तो ऊंची जाति वाले उसे कभी नहीं छोड़ते और उसका जोरदार विरोध करते। परंतु नारायण गुरु इतने प्रसिद्ध हो चुके थे, कि उनका विरोध करने की हिम्मत किसी को भी न हुई। उनके प्रयासों के कारण ही नीची जातियों के लोग भी हिंदुओं की धार्मिक क्रियाओं और अनुष्ठानों मे भाग लेने लगे।
नारायण गुरु का समाज सुधार मे योगदान
समानता का प्रचार उन्होंने अपनी इजवा जाति से ही किया। ऊंची जातियों के लोग इजवा लोगों से बुरा बर्ताव करते थे और इजवा लोग अपने से नीची जातियों से। नारायण गुरु ने कहा कि अपने से नीची जातियों को भी अपने समान समझे और उन्हें नए प्रतिष्ठित मंदिरों में प्रवेश करने दे । यदि सरकार भी ऐसा आदेश देती तो लोग उसे न मानते, पर नारायण गुरु का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि लोगों ने उनकी बातें माननी शुरू कर दी। इस तरह अरुविप्पुरम में एक ऐसी सामाजिक क्रॉंति का सूत्रपात हुआ, जो उससे पहले दक्षिण भारत के और किसी भाग में नहीं देखी गई थी | समाज सुधार और अछूतोद्धार का यह काम १८८८ में शुरू होकर उनके जीवन-पर्यन्त १९२८ तक चलता रहा।
गरीब और पद-दलित लोगों के उत्थान के लिए उन्होंने जो कुछ किया, आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। उन्होंने इन लोगों को समझाया कि पूजा-पाठ के दकियानूसी तरीके और अंधविश्वासों को छोड़ दें। पुराने रीति-रिवाजों का विरोध करने के कारण पुरातन पंथियों ने बहुत शोर मचाया और उनके मार्ग में तरह-तरह की रुकावटें डाली। परंतु वह इन बाधाओं से घबराए नहीं। अंत में सत्य की ही विजय हुई।
नारायण गुरु के विचार
उन्होंने बहुत जल्दी ही यह अनुभव कर लिया था कि जात-पात की प्रथा हमारे समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसलिए उसे मिटाने के लिए उन्होंने पूरा जोर लगाया, अपने भाषणों में वह कहते थे, ”जाति न तो पूछो, न बताओ, न सोचो” एक बार उन्होंने कहा कि “यदि लोग मुझे अवतार मानते है और मेरा मिशन पूछते हैं, तो वह है जात-पात को दूर करना।“ वह “जाति” शब्द को संकीर्ण अर्थ में लेते ही नही थे, बल्कि उससे वह समूचे मानव-परिवार का अर्थ लेते थे वह कहते थे, “मनुष्य का एक ही भगवान है, एक ही धर्म है और एक ही जाति है।“ उन्होंने अंतर्जातीय विवाहों को भी प्रोत्साहन दिया। विभिन्न जातियों के लोगों को एक साथ बैठकर खाने के लिए भी वह प्रोत्साहित करते थे ।
उन्होंने शराबबंदी का प्रचार गांधीजी से भी पहले शुरू कर दिया था, क्योंकि वह जानते थे कि गरीब और दलित लोगों के लिए शराब बहुत ही हानिकारक है।
नारायण गुरु ने किसी नए धर्म की स्थापना नहीं की। वह अद्वैतवादी थे। उन्होंने धार्मिक एकता का प्रचार किया। उनका धर्म सबके लिए था। उन्होंने कहा कि विभिन्न धर्मों में झगड़ा या स्पर्धा नहीं होनी चाहिए। धर्म की कसौटी यह है कि वह मनुष्य को बुराई से भलाई की ओर ले जाए। दुसरे मजहबों की जानकारी न होने के कारण ही हम उनकी आलोचना करते हैं। इसलिए उन्होंने अलवाय में अद्वैताश्रम में विभिन्न धर्मों के एक सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन का उद्देश्य समझना और बताना था, विवाद करना नहीं।
मतमीमांसा श्लोक
उन्होंने “मतमीमांसा” शीर्षक से कुछ श्लोक भी लिखे, जिनसे साधारण से साधारण आदमी भी उनके सार्वभौम धर्म के बारे में समझ सकता है। मतमीमांसा के श्लोक मलयालम-भाषी जनता में बहुत ही लोकप्रिय है।
अद्वैत आश्रम की स्थापना
उन्होंने पश्चिमी तट की व्यापक यात्रा की और जगह-जगह आश्रम और मंदिर स्थापित किए। उनके द्वारा स्थापित मंदिरों में सभी जातियों के लोग जा सकते थे। उनके मंदिरों की देखा-देखी बाकी मंदिर भी सभी जातियों के लिए खुल गए। उनके दो प्रसिद्ध आश्रम हैं – तिरुवांकुर के निकट वरकल में और कोचीन के निकट अलवाय में अद्वैत आश्रम। उनकी प्रसिद्धि के साथ-साथ उनके आश्रम तीर्थस्थान बनते गए और से लोग उनके दर्शनों को दूर-दूर से आने लगे।
नारायण गुरु की पद्य रचना
नारायण गुरु केवल एक समाज-सुधारक ही नहीं थे, वह कवि भी थे, दार्शनिक भी और योगी भी। अपने आध्यात्मिक विचारों को उन्होंने पद्यबद्ध किया। उनके अधिकांश पद्य संस्कृत और मलयालम में है और कुछ तमिल में। उन्होंने तिरुक्कुरल और ओजिविल उडुक्कम नामक तमिल ग्रंथों के पद्यों का अनुवाद भी मलयालम में किया। १९१६ में उन्होंने महर्षि रमण पर भी एक कविता लिखी, इनके अतिरिक्त, उनके दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं। एक है मलयालम में आत्मोपदेश शतकम और दूसरा संस्कृत में दर्शनमाला। आत्मोपदेश शतकम में आत्म-अनुशासन के बारे में १०० श्लोक हैं। दर्शनमाला वेदांत की परिचय-पुस्तिका के समान है। बच्चों के लिए भी उन्होंने सरल भाषा में प्रार्थना लिखी।
नारायण गुरु लंबे और दुबले-पतले थे, वह स्वभाव के बड़े विनम्र थे और उनसे आसानी से मिला जा सकता था। जो लोग उनसे मिले हैं, उनका कहना है कि उनके चेहरे पर एक अद्भूत प्रकाश था, जो बरबस ही व्यक्ति को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता था। वह प्रचार से कोस्सों दूर रहते थे। उनका विश्वास था कि बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण देने का कोई लाभ नहीं होता। इसकी जगह वह यह पसंद करते थे कि जिज्ञासु उनके पास आकर शंका का समाधान करें। अपने एक जिज्ञासु शिष्य पर प्रसन्न होकर उन्होंने उसे आगे शिक्षा पाने के लिए बैगलौर भेजा और संस्कृत-अध्ययन के लिए कलकत्ता। यह युवक था-कुमारन आशान, जो आगे चलकर मलयालम का प्रसिद्ध कवि बना।
वरकल स्थित आश्रम में महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर जब उनसे मिलने गए और उनके महान कार्य और जनता की सेवा की प्रशंसा की, तो उन्होंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक जवाब दिया, “न तो हमने भूतकाल में कुछ लिया है और न ही भविष्य में कुछ करना संभव है। कुछ भी न कर सकने के कारण मन दुख से भर जाता है।“
नारायण गुरु की मृत्यु
७४ वर्ष की उम्र में २० सितंबर १९२८ में उनका स्वर्गवास हुआ।
आज नारायण गुरु तो हमारे बीच में नहीं हैं, परंतु जगह-जगह उनके नाम पर खुले हुए स्कूल, कालेज और चिकित्सा मिशन इस महान समाज-सुधारक, धार्मिक नेता और वेदांत के शिक्षक की याद ताजी बनाए हुए हैं।
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