पंडित विष्णु नारायण भातखंडे | Vishnu Narayan Bhatkhande
महान संगीतज्ञ श्री विष्णु नारायण भातखंडे (Vishnu Narayan Bhatkhande) का जन्म १० अगस्त १८६० को महाराष्ट में बालकेश्वर नामक गांव में हुआ था। इनके माता-पिता बड़े संगीत प्रेमी थे। भातखंडे के बचपन में ही उनके माता-पिंता को यह अनुभव हो गया था कि बालक को संगीत की ईश्वरीय देन है। स्कुल में पढते समय भातखंडे ने संगीत के प्रति अपनी रुचि से सबको आकर्षित किया।
उन्होंने संगीत में अनेक पुरस्कार प्राप्त किए। स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ वह नाटकों तथा संगीत सभाओं में भाग लेते रहे। कालेज में उन्होंने विद्याध्ययन के साथ शास्त्रीय संगीत का नियमित अध्ययन शुरू किया।
पंडित विष्णु नारायण भातखंडे की शिक्षा
गायन तथा वादन दोनों में शिक्षा प्राप्त की। विश्वविंद्यालय से कानून की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने वकालत शुरू कर दी, लेकिन संगीत में उनकी रुचि बराबर बनी रही। वह अपना अधिकाधिक समय संगीत शिक्षा प्राप्त करने में, संगीत संबंधी पुस्तकों के अध्ययन में तथा बड़े-बड़े कलाकारों का गायन सुनने में बिताते थे।
पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का संगीत प्रेम
भातखंडे को प्रचलित संगीत के रूप में अनेक दोष दिखाई दिए। प्राचीन भारत में संगीत लिखित सामग्री पर आधारित था, किंतु मध्यकालीन भारत में इसके लिखित रूप की ओर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया गया। संगीत को अधिकाधिक मनोरंजक और केवल मनोरंजक बनाने की धुन में इसका स्वरूप बिगड़ गया और लिखित तथा प्रचलित संगीत में अंतर बढ़ता गया।
बंबई में वकालत स्थापित करने के बाद भातखंडे “गायनोत्तेजक मंडली” में शामिल हो गए। इस मंडली में उन्होंने रायोजी बुआ वेलवागकर, अली हुरैन खां तथा विलायत हुसैन खां जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों से शिक्षा प्राप्त की तथा देश के अन्य बड़े-बड़े कलाकारों के संपर्क में आए। इन कलाकारों से प्राप्त जानकारी को उन्होंने लिखना शुरू कर दिया। विद्वानों तथा द्विभाषिए की सहायता से संस्कृत, तेलुगु, अंग्रेजी, बांग्ला गुजराती और उर्दू के संगीत ग्रंथो का भी अध्ययन किया।
संगीत ग्रंथों के अध्ययन तथा शोध कार्य के लिए वह भारत के कोने-कोने में घुमे। देश में संगीत साहित्य का ऐसा कोई भी पुस्तकालय नहीं था, जहां उन्होंने कुछ समय न बिताया हो। इसके अलावा वह संगीत के प्रकांड पंडितों और नामी उस्तादों से मिलकर अपने ज्ञान का भंडार बढ़ाते रहे। यात्रा के दौरान सुंदर स्थान देखने या घुमने के लिए भी वह कभी नहीं जाते थे। अपना ज्यादा से ज्यादा समय पुस्तकालयों में या उस्तादों और पंडितों की संगति में ही बिताते और जो कुछ भी जानकारी हासिल करते उसे लिखते रहते।
विष्णु नारायण भातखंडे हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति
संगीत चर्चा के लिए उन्होंने एक प्रश्नावली बना रखी थी ताकि थोड़़े समय में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त हो सके, वह अपने समय के सभी प्रख्यात संगीतकारों तथा संगीत साहित्य के लेखकों से मिले। कई वर्षों में उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया, उसे संस्कृत में “लक्ष्य संगीत” नामक पुस्तक में लिखा और बाद में मराठी में “हिंदुस्तानी संगीत पद्धति” चार भागों में प्रकाशित की।
थाट राग पद्धति
श्री भातखंडे ने दस मुख्य थाटों को लेकर रागों को उनमें विभाजित किया। इस प्रकार भातखंडे द्वारा चलाई गई “थाट राग पद्धति” ने उस वक्त तक चल रही राग, रागिनी, पुत्र, पुत्रवधू आदि की उलझी हुई पद्धति से हिंदुस्तानी संगीत को मुक्त किया तथा हिंदुस्तानी संगीत को एक सरल,सुगम, वैधानिक नियम में बांध दिया। भातखंडे द्वारा चलाई हुई थाट राग पद्धति ही आजकल प्रचलित है।
इसके अलावा भातखंडे ने बड़े-बड़े उस्तादों और संगीत पंडितों से अधिक से अधिक सीखने की कोशिश की। अधिकतर उस्ताद अपनी शब्द रचनाएं पारिवारिक रहस्य की तरह रखते थे। आम जनता की तो बात ही क्या, वे अपने शागिर्द तक को भी यह चीजें बताना पसंद नही करते थे, यह संगीत ज्ञान मौखिक ही था तथा किसी-किसी भाग्यशाली बेटे या शागिर्द को अमानत के रूप में मिलता था |
बेटों और शागिर्दों के लिए वात्सल्य न होने पर उस्ताद तथा गुरु संगीत ज्ञान को अपने तक ही सीमित रखते, जिससे बहुत कुछ उनके साथ ही दफन हो जाता। भातखंडे ने इन शब्द रचनाओं को प्राप्त कर, प्रकाशित किया और इन्हें लुप्त होने से बचाया। कठिंन प्रयत्नों से एकत्रित पुरानी प्रचलित तथा अप्रचलित चीजों को उन्होंने “क्रमिक पुस्तकमाला” की छः जिल्दों में प्रकाशित करवाया।
विष्णु नारायण भातखंडे की पुस्तके
सन् १९०६-०७ में उन्होंने जयपुर के मुहम्मद अली खान तथा उनके बेटों को अपने तीन गीत रिकार्ड करवाने को राज़ी कर लिया। १९१० में “स्वर माल्लिका” प्रकाशित करवाई जिसमें विभिन्न रागों की सरगमें थीं। १९११ में “अष्टोत्तरशत ताल लक्षणम्” छपी तथा १९१२ में “लक्षणगीत” तीन भागों में छपी, इसमें करीब ११० गीत थे।
भातखंडे स्वयं भी चतुर पंडित के नाम से गीत रचना करते थे और अच्छे कवि थे। “गीत माल्लिका” और “क्रमिक पुस्तकमाला” में उनके २५० के लगभग गीत हैं।
कुछ पुरानी पुस्तकों को भातखंडे ने पुनः छपवाया, जिनमें रामामात्य की “स्वर मेलकला निधि” पुंद्रीका विट्ठल की “सदराग चंद्रोदय” तथा आपा तुलसी की रचनाएं हैं।
“ग्रंथ संगीतम्”, “लक्ष्य संगीतम्”, “भावी संगीतम्” और “क्रमिक पुस्तकमाला” में उनके शोध का फल एकत्रित है। आने वाली पीढ़ियां उनकी इन कृतियों के लिए आभारी रहेंगी। संगीत को अपने परिवार की संपत्ति समझने वाले पंडितों तथा उस्तादों से कठिनता से प्राप्त की हुई सामग्री तथा भिन्न-भिन्न भाषाओं की पुरातन पुस्तकों पर अनुसंधान करके प्राप्त की हुई जानकारी को संगीत प्रेमियों के सामने प्रस्तुत कर भातखंडे ने संगीत की अनुपम सेवा की ।
भातखंडे ने स्वयं लिखा था कि – “पढ़े-लिखे संगीत प्रेमी भाई-बहनों के समक्ष संगीत कला को प्रस्तुत करना ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है।“ अपने लक्ष्य की प्राप्ति में वह सफल हुए।
सन् १८८१ में भातखंडे के पिता का देहांत हो गया, जिससे परिवार की सब जिम्मेदारी उन पर आ पड़ी। १९०० में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। १९१७ में जब उनकी माँ की भी मृत्यु हो गई तो वह अकेले रह गए। १९०३ में अपनी पुत्री की मृत्यु से ही उन्हें संसार से विरक्ति होने लगी थी, अत: उन्होंने अपना सब समय संगीत सेवा में लगा देने की सोची।
लक्षणगीत | मारिफ उन नगमात
भातखंडे अपने जीवन काल में ही संपूर्ण भारत में प्रसिद्धि पा चुके थे। बहुत-सी देसी रियासतों के शासक उनके प्रशंसक थे। लखनऊ के राजा नवाब अली खान ने भातखंडे जी के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्र भेजे। उन्होंने “लक्षणगीत” का उर्दू अनुवाद “मारिफ उन नगमात” के नाम से प्रकाशित कराया।
भातखंडे जी को विश्वास था किं अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन इस कला के प्रचार में बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं। अतः उनके आग्रह पर बड़ौंदा के महाराजा ने पहला अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन १९१६ में बुलाया। इसके बाद दिल्ली, बनारस, लखनऊ में सम्मेलन हुए। प्रथम पांच अधिवेशनों में उन्होंने सक्रिय भाग लिया। उसके बाद वह बीमार रहने लगे।
मैरिस म्यूजिक कालेज का संचालन
भातखंडे से प्रेरणा पाकर बहुत से देसी नरेशों ने संगीत विद्यालय तथा महाविद्यालय स्थापित किए। बड़ौदा का राजकीय स्कूल तथा ग्वालियर का माधव म्यूजिक कालेज उसी समय खोले गए थे। भातखंडे जी ने स्वयं लखनऊ में मैरिस म्यूजिक कालेज चलाया। यह आजकल भातखंडे कालेज आफ हिंदुस्तानी म्यूजिक के नाम से प्रसिद्ध है। अन्य शहरों में भी भातखंडे म्यूजिक कालेज स्थापित किए गए। है। राजा भय्या पूछवाले, श्री वाड़ीलाल तथा श्री रतांजनकर उनके प्रमुख शिष्यों में से थे।
भातखंडे जी ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में मदनमोहन मालवीय जी के आग्रह पर म्यूजिक फैकल्टी स्थापित की। उनके प्रयत्नों से बंबई म्युनिसिपैलिटी के स्कूलों में संगीत को एक विषय के रूप में रखा गया। अपनी संगीत की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए भातखंडे ने एक ट्रस्ट स्थापित किया ताकि पैसे की कमी से कहीं प्रकाशन कार्य न रुक जाए।
भातखंडे साधु स्वभाव के थे। न उन्हें प्रसिद्धि की भूख थी, न पैसे की लालसा। पुस्तकों से जो आय होती थी, उसे उन्होंने कभी भी व्यवसाय में इस्तेमाल नहीं किया। उनकी अपनी आवश्यकताएं बहुत कम थीं, अतः जिस व्यक्ति या संस्था को उनकी सहायता की जरूरत होती थी, उसे वह खुले दिल से देते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण वह दिन का काफी समय पूजा पाठ में बिताते थे।
भातखंडे ने संगीत के बदले तथा बिगड़े हुए रूप को पुनः शास्त्रीय आधार दिया,खानदानी गवय्यों के गानों को लिपिबद्ध और संकलित किया और एक सरल, सुगम, स्वरलिपि पद्धति का प्रचलन किया। भातखंडे ने अलग-अलग तथा अवैज्ञानिक पद्धतियों के स्थान पर एक आधुनिक थाट पद्धति चलाई तथा ग्रंथकार और संगीतकार को एक दूसरे से संबद्ध किया। बहुत कम लोग अपने जीवन में इतनी उपलब्धि कर पाते हैं जितना इस महान संगीतज्ञ ने किया।
विष्णु नारायण भातखंडे की मृत्यु
१९३३ में उन्हें लकवा मार गया। १९ सितंबर १९३६ को उन्होंने नश्वर देह त्यागी।
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