पाणिनि
आज तक न जाने कितनी ही
भाषाए पैदा हुई, फली-फूली और बदली | कितनी
ही मिट गयी | कितनी तो भाषाए मिट कर भी
फिर नए रूप में पनपी, पर कितनो को तो कोई निशानी तक नहीं बची | आज भी दुनिया में
हजारो भाषाए बोली जाते है | इनमे एक भाषा ऐसी भी है जो हजारो वर्ष पुरानी है, और
शायद कभी मिटेगी भी नहीं | वह भाषा है संस्कृत, और जिस व्यक्ति ने उसे अमर करने का
मंत्र खोजा, वह था पाणिनि | पाणिनि ने
संस्कृत का सर्वांग सुन्दर व्याकरण लिखा |
तीन हजार वर्ष पहले जेहलम
और चिनाब के उत्तर – पश्चिम का इलाका गंधार कहलाता था | वही इलाका आज युसुफजई पठानों
का है | वहा तब दक्ष नाम की एक जाती बसती थी | दक्षो का अपना संघ राज्य था | इस
दक्ष देश में काबुल नदी पश्चिम से आकर सिन्धु नदी में मिल जाती है | दोनों नदियों
के संगम के पास एक गाव था लहुर | अनुमान है की यही लहर गाँव पाणिनि का जन्मभूमि है
| उन दिनों इसका नाम था शलातुर | पाणिनि के बारह सौ वर्ष बाद तक यह गाँव शलातुर
नाम से आबाद था, क्योकि तब चीनी यात्री च्वांग यहाँ आया था और उसने लिखा था की
शलातुर नगर के ब्राम्हण व्याकरण के बहुत अच्छे जानकार है |
शलातुर असल में पाणिनि का
ननिहाल था | उनके दादा विष्णुशर्मन पाणिनि थे | वह वाल्हीक की ओर के रहने वाले थे
| उनके वंशज होने के कारण पाणिनि उनका कुल-नाम पड़ा | विष्णुशर्मन के पुत्र सामन
पाणिनि के बेटे आहिक पाणिनि इतने प्रसिद्ध हो गए की उनके असली नाम को लोग भूल गए |
यह आहिक ही व्याकरण के प्रसिद्द विद्धवान पाणिनि के नाम से प्रसिद्ध हुए | इनका
जन्म ईसा के जन्म से लगभग ५०० वर्ष पहले हुआ था |
पाणिनि के और भी कई नाम थे
| गौत्र नाम था शलांकि | गाँव के नाम पर एक नाम था श्लातुरीय | वह इसलिए की सामन
पाणिनि अपनी ससुराल शलातुर में ही बस गए थे | वह वही पढाया करते थे | वैसे कुछ
रचनाए रचकर वह ॠषि भी बन चुके थे | आहिक और पिंगल शलातूर में ही पैदा हुए थे |
पाणिनि के गुरु का नाम वर्ष
था | वर्ष बहुत विद्वान थे | पाणिनि बचपन से ही वर्ष से पढ़ते लगे |
उन दिनों विध्यार्थी पढाई
पुरी करने के बाद देश-भ्रमण को निकलते थे | इस प्रकार की यात्रा को “ चरिका ” कहते
थे | चरिका में वे अपने देश के लोगो, उनके खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि की
जानकारी प्राप्त करते थे, गुरु के सीखे ज्ञान को जीवन में उतारने का अभ्यास करते
थे और भाति-भाति के कला कौशल सिखते थे | चरिका ही उनके लिए नए खोजो की अवसर होती
थी |
पाणिनि भी पढाई पुरी कर
चरिका के लिए निकले | उनके साथ जो विद्यार्थी थे, उनमे व्याडी और वररुचि भी थे | आगे
पीछे तीनो ने ही नई खोजे की थी और तीनो ही
शाश्त्राकार बन गए थे | चरिका के दौरान घुमते हुए पाणिनि हिमालय पहुचे | वहा उनकी
भेट ईश्वरदेव नाम के एक विद्वान से हो गयी | पाणिनि ने ईश्वरदेव को अपनी योजना
बतलाई | योजना यह थी की साहित्य और बोलचाल की भाषा में सुधार किए जाए | इसके लिए
पाणिनि ने सोचा था की भाषा के जो अनिश्चित प्रयोग है उसे निश्चित किए जाए, जो अशुद्ध
है उसे शुद्ध किए जाए, जो नियम ढीले ढाले है उसे कस दिए जाए और जिन नियमो में दोष
है उन्हें बदला या
सुधार दिया जाए | नए नियम बनाने का भी विचार था |
ईश्वरदेव को पाणिनि की
योजना बहुत पसंद आई और उन्होंने मदद के लिए हां कह दिया |
उन्होंने डमरू के चौदह बोल
निकाले |
ईश्वरदेव से मिलने के पहले
ही पाणिनि सारे देश की चरिका पुरी कर चुके थे | सिन्धु के मुहाने से असम तक और
हिमालय से गोदावरी तक का चप्पा चप्पा तक वो जा चुके थे | वह हर जनपद और संघ में
काफी दिन रुके और उन्होंने वहा के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, ओद्योगिक
और सांस्कृतिक संगठनो का बारीकी से अध्ययन किया | जहा कही कोई नई बात, नई चीज, नया
ढंग, नया बरताव, नया शब्द या किसी पुराने शब्द का नया अर्थ या पुराने अर्थ की नई
छटा दिखी, उसे मन में बसा लिया | इस तरह पाणिनि में प्रत्येक जनपद के शब्द, उसके
प्रचलित अर्थ तथा उन अर्थो की गहरी छान बीन करके उनकी व्याख्या निर्धारित की |
यह काम इतने धीरज, अध्ययन,
प्रतिभा और पैनी परख का था | इस सामग्री को जुटाने में पाणिनि को एक से एक दिलचस्प
अनुभव हुए |
जब यात्रा पुरी हो चुकी और
शब्दो के शुद्ध प्रयोग का निश्चय करने के लिए जरूरी सामग्री जुटाने का काम पूरा हो
गया, तब पाणिनि अकेले ही इस काम में जुट पड़े और उन्होने इसे अकेले ही पूरा कर डाला
जो पुस्तक तैयार हुए उसे गणपाठ कहते है | गणपाठ
पाणिनि की मौलिक देंन है | इसके
पहले संसार मे इस विषय का कही नाम भी न था |
गणपाठ का उद्देश्य यह है की किसी भी बात मे एक दूसरे से मेल
खाने वाले सभी शब्द एक गण या वर्ग मे पिरो ले जाए | इससे बिखरे हुए शब्द
सामाग्री एक सरल व्यवस्था ने बंध जाते है |
जिस शास्त्र को बनाने के लिए पाणिनि ने इतनी महनत की उसे तो अब शुरू करना था | उन्होने निरंतर श्रम किया
और अपने मन, बुद्धि और शरीर की सारी शक्ति लगाकर व्याकरण का
एक शास्त्र रच डाला |
इस शास्त्र मे आठ अध्याय है | इसलिए इसका नाम
“अष्टाध्यायी” पड़ा | शब्दो के रूप मे जरा हेर फेर या किसी और
शब्द के मेल से उनके अर्थ घट-बढ़ जाते है या बिलकुल बदल जाते है | पाणिनि ने तद्धित और
कृदंत का सिद्धान्त बनाया | वृत्ति के इस महत्त्व के कारण ही पाणिनि के शास्त्र को “वृत्तिसूत्र” तथा स्वयं पाणिनि को “वृतज्ञ आचार्य” भी कहा जाता है |
जब शास्त्र पूरा तैयार हो गया तब पाणिनि हिमालय से उतरे | वह पाटलिपुत्र पहुचे | वहा उन दिनो नन्द
राजा का राज था | उनके दरबार मे सभी विषयो के बड़े पंडित गुणी
और तर्कीक रहते थे | हर साल देश भर से और चुने
विद्दवान बुलाए जाते थे | इस जमघट को सभा कहते थे | किसी भी विषय मे कोई नई खोज करने वाला विद्धवान अपनी खोज को उस सभा के
सामने रखता था | सभा के पंडित खोज करने वाले से बहस करते थे | सभी तर्को का संतोषजनक उत्तर देकर अपनी खोज को सही साबित करने वाला
विद्धवान शास्त्रकार मान लिया जाता था | शास्त्रकार परीक्षा
मे इस तरह पास होने को “सन्नयन” कहते थे | यह बहुत बड़ा
सम्मान था | सन्न्यन के बाद शास्त्रकार को ईनाम मिलता था और
उसके सारे कर माफ कर दिए जाते थे |
पाणिनि के गुरु
आचार्य वर्ष और वर्ष के भाई उपवर्ष भी “सन्नयन” कर चुके थे | ये
दोनों शब्दशास्त्र के ही खोजी थे | पाणिनि के सगे भाई पिंगल और क्याडि तथा वररूचि भी यह सम्मान पा चुके
थे |
लेकिन सभा ने पाणिनि के सन्नयन मे
तथा औरों के सन्नयन मे एक भेद किया था | पाणिनि के शास्त्र की महत्ता उसने इस प्रकार स्वीकार की कि मुहरो का इनाम बांध दिया |
सच पूछिए तो संसार मे आज तक पाणिनि के बराबरी करने वाला कोई शब्दशास्त्री नही हुआ है | संसार
का कोई भी व्याकरण अष्टाध्यायी के जैसा विशालता, क्रमबद्धता और
विराट कल्पना तक पहुच नही सका है चाहे जितने ग्रंथ अष्टाध्यायी
के आधार पर या उसके विषय मे लिखे गए है |
पाणिनि की
अष्टाध्यायी संस्कृत भाषा के बड़े गाढ़े समय मे काम आई | वैदिक भाषा का समय बीत चुका था | नए विषय,
नया साहित्य, नए शब्द जन्म ले रहे थे | गोदवरी
से उत्तर के भारत मे संस्कृत भाषा फैल गई थी | इस बिखरी भाषा
को नियमो मे बांधने की सारी कोशिश विफल हो चुकी थी | ऐसे समय
मे जब अष्टाध्यायी आई तब उसकी धूम मच गई |
पाणिनि का समय ई.पू.
लगभग ४८०-४१० माना गया है |
पाणिनि की मृत्यु कैसे
हुई, इस संबंध मे पंचतंत्र का कहना है उन्हे किसी सिंह ने मार डाला था |