पी. आनंद चार्लू | P. Ananda Charlu | Panapakkam Ananda Charlu
अंग्रेज देशवासियों पर बहुत अत्याचार करते थे। किसानों, कारीगरों और व्यापारियों को परेशान किया जाता था, जिससे देश की दस्तकारियां, उद्योग और व्यापार चौपट हो गया। लोगों को मजबूरन खेती पर निर्भर होना पड़ा और दिनों-दिन गरीबी बढ़ती गई। देश में बड़ी तेजी से असंतोष फैलने लगा। विदेशी शासन का जुआ उतार फेंकने के लिए १८५७ की क्रांति हुई। परंतु अंग्रेजों ने इसे बड़ी क्रूरता से दबा दिया। इसके बाद से तो अंग्रेजों ने सेना पर होने वाला खर्च बहुत बढ़ा दिया, जिससे प्रजा की सुख-सुविधा पर होने वाला खर्च और कम हो गया और देश में पहले से भी ज्यादा गरीबी फैल गई।
आर्थिक और राजनीतिक दशा के साथ हमारी सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। जात- पात और छुआछूत का इतना जोर था, कि लोग एक साथ मिलकर बैठने को भी तैयार नहीं होते थे। स्त्रियो की हालत तो बहुत ही खराब थी। परदा-प्रथा का जोर था। बाल-विवाह प्रचलित थे | विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। शिक्षा का प्रचार भी नहीं के बराबर था।
जब अंग्रेजों को अपना कामकाज चलाने के लिए अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगो की जरूरत पड़ी तो कुछ थोड़े से लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा दी जाने लगी | इसलिए उस समय के बहुत से नेता अंग्रेज शिक्षा-दीक्षा से प्रभावित थे। अंग्रेजी साहित्य पढ़कर वे एक ओर तो देश के लिए स्वतंत्रता चाहते थे और दूसरी ओर अंग्रेजों के तौर-तरीके भी अपनाना चाहते थे, वे यह मानते थे कि अंग्रेजी तौर-तरीके अपना कर देश का भला हो सकता है। कई सहृदय अंग्रेज भी उनके साथ थे। उनका विचार था कि अंग्रेज और भारतवासी मिल-जुलकर देश की दशा सुधार सकते हैं।
उस जमाने के प्रसिद्ध नेताओं में से कुछ के नाम है – डब्लू. सी. बनर्जी और दादाभाई नौरोजी, बदरुद्दीन तैयबजी और पी. आनंद चार्लू, फीरोजशाह मेहता और डी. ई. वाचा, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस, गोखले और मालवीय। ह्रूम और वेडरबन जैसे अंग्रेज भी भारतवासियों को अधिक अधिकार देने के हामी थे।
पी. आनंद चार्लू का जन्म | पी. आनंद चार्लू की शिक्षा
श्री पी.आनंद चार्लू का जन्म चित्तूर जिले के एक गांव में अगस्त १८४३ में हुआ था| यह जिला आंध्र प्रदेश में है। उनके माता-पिता गरीब थे। अभी वह १२ ही वर्ष के थे, कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। इससे उनकी पढ़ाई में बड़ा विघ्न पड़ा। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और कठिनाइयों के बावजूद पढ़ते गए। परंतु इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद परिवार की गरीबी के कारण उनके लिए पढ़ाई जारी रखना संभव न रहा। इसलिए १८६५ में वह चेन्नई के पचियण्णा स्कूल मे अध्यापक के रूप में काम करने लगे। उस स्कूल में वह चार वर्ष तक रहे। नौकरी करते समय भी उन्होंने पढ़ाई छोड़ी नहीं और प्राइवेट तौर पर बी.एल. या वकालत की परीक्षा पास कर ली।
१८७० में उन्होंने चेन्नई हाईकोर्ट में प्रेक्टिस शुरू कर दी। धीरे-धीरे उनकी वकालत चमक उठी और चोटी के वकीलों में उनकी गिनती होने लगी। बचपन से ही उनमें देशभक्ति की भावना बड़ी प्रबल थी और वह यह चाहते थे कि अंग्रेजी शासन का अंत हो और देश स्वतंत्र हो। इसके लिए वह जरूरी समझते थे, कि देश में राष्ट्रीयता की भावना पैदा हो, देशवासी अपनी संस्कृति के महत्व को समझें और उस पर गर्व करें। उन्हें यह अच्छा नहीं लगता था कि हम विदेशियों की नकल करने में ही शान समझें।
भारतीय राष्ट्रीय कॉग्रेस की स्थापना
इन जैसे ७२ लोगों ने मिलकर १८८५ में इंडियन नेशनल कॉंग्रेस की स्थापना की। बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई लड़ी और देश आजाद हुआ। इस तरह पी.आनंद चार्लू देश के उन थोड़े से नेताओं में से एक थे, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई लड़ने के काम का श्रीगणेश किया। परंतु उनके लड़ाई लड़ने का ढंग महात्मा गांधी वाला नहीं था। वह संवैधानिक ढंग या कानूनी तरीके से प्रस्ताव पास करके और जनता को शिक्षित करके अंग्रेजों तक अपनी आवाज पहुंचाना चाहते थे। उन्हें यह विश्वास था कि उनकी इस मांग का अंग्रेजों पर असर पड़ेगा और देश धीरे-धीरे आजादी पा लेगा।
पी.आनंद चार्लू द्वारा वैजयंती पत्रिका की स्थापना
संस्कृत और तेलुगु की पुस्तकों का प्रचार करने के लिए यह जरूरी था कि ये पुस्तकें कम दामों में मिलें। इसलिए उन्होंने स्वयं अपना एक छापाखाना खोला। जब उन्होंने अपना छापाखाना खोला तो देश में छापेखानों की संख्या गिनी चुनी ही थी, इस छापेखाने में उन्होंने तेलुग की कई ऐसी प्राचीन पुस्तकें भी छापी, जो मिलती नहीं थीं। उनका दाम भी बहुत कम रखा। जनता को अपने कर्तव्यों और अधिकारों का बोध कराने के लिए उसमें राजनीतिक चेतना पैदा करने के लिए उन्होंने “वैजयंती नामक” पत्रिका भी निकाली। उन्होंने महाभारत की कथावस्तु को लेकर अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी, ताकि अंग्रेजी जानने वाले लोग भी देश के महान ग्रंथ के बारे में कुछ जानकारी पा सके। इसके अतिरिक्त उन्होंने और भी कई छोटी-छोटी पुस्तकें लिखीं।
उन दिनों सरकार तेलुगु और संस्कृत के विद्वानों का सम्मान नहीं करती थी, इसलिए उन्होंने स्वयं कई तेलुगु और संस्कृत विद्वानों को संरक्षण दे रखा था। उन दिनों सामाजिक सुधारों की बड़ी जरूरत थी इस दिशा में भी पी. आनंद चार्लू ने उल्लेखनीय काम किया, वह महिलाओं को शिक्षा देने और संपत्ति में अधिकार देने के पक्षपाती थे। विधवाओं का फिर से विवाह करने के भी वह समर्थक थे। वकालत के साथ-साथ पी. आनंद चार्लू सार्वजनिक कामों में भी बहुत भाग लेते थे।
पी. आनंद चार्लू का राजनीतिक जीवन
जब इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की बात होने लगी तो वह उसकी स्थापना में जी-जान से जुट गए। उन दिनो बच्चे तो पढ़ते ही नहीं थे। इतने स्कूल तब थे ही नहीं। जो थोड़े से स्कूल थे, उनमें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाता था। स्वयं हमारे पढ़े-लिखे देशवासी अपनी भाषाओं को पढ़ने में अपनी हेठी समझते थे और अंग्रेजी पढ़ने में ही गर्व अनुभव करते थे। नौकरियां भी अंग्रेजी पढ़ने वालों को मिलती थीं, परंतु पी. आनंद चार्लू उन लोगों में से नहीं थे। उनका विचार था कि लोगों को अपनी मातृभाषा पढ़ने में रुचि होनी चाहिए, क्योंकि तभी वे अपनी संस्कृति को समझ सकेंगे और उस पर गर्व कर सकेंगे। वह स्वयं भी संस्कृत और अपनी मातृभाषा तेलुगु के बड़े विद्वान थे।
ट्रिप्लीकेट लिटरेरी एसोसिएशन के वह अध्यक्ष थे और चेन्नई नेटिव एसोसिएशन के सचिव थे। कांग्रेस से पहले दक्षिण भारत में सबसे प्रसिद्ध सार्वजनिक सभा थी, चेन्नई महाजन सभा। हिंदू अखबार के श्री एम विजय राघवाचारियर के साथ उन्होंने इस संस्था की प्रगति में बड़ा योगदान दिया था। आजकल जैसे भारत सरकार में नौकरी के लिए सबसे बड़ी परीक्षा आई.ए.एस. की होती है, उसी तरह उन दिनों सबसे बड़ी परीक्षा आई.सी.एस. की होती थी पर यह परीक्षा केवल इंग्लैंड में होती थी। इसलिए योग्य होते हुए भी बहुत से भारतीय इस परीक्षा में भाग नहीं ले सकते थे। पी. आनंद चार्लू ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी सरीखे नेताओं के साथ मिलकर इस बात का जोरदार आंदोलन चलाया कि यह परीक्षा इंग्लैंड के साथ-साथ भारत में भी होनी चाहिए। उनके इस आंदोलन का यह परिणाम निकला कि यह परीक्षा भारत में भी होने लगी, जिससे योग्य भारतीय युवकों को इस परीक्षा में बैठने का और भारत सरकार में उत्तरदायी पदों पर काम करने का मौका मिलने लगा।
वह सुप्रीम लेजिस्लेटिव कौसिल में चेन्नई के प्रतिनिधि के रूप में आठ वर्ष तक रहे। अपने सदस्यता-काल में वह सरकारी नीतियों की खुलकर आलोचना करते थे और जनता की मांगों को बड़ी निर्भयतापूर्वक उठाते थे। कौसिल का सदस्य होने के बावजूद उन्होंने कभी सरकारी पद हथियाने की कोशिश नहीं की, जो उस जमाने में बहुत बड़ी बात थी। इस कारण वह युवकों में बहुत लोकप्रिय हो गए। कांग्रेस के संस्थापकों में से होने के नाते उन्होंने कांग्रेस में बहुत काम किया और उसके प्रथम अधिवेशन से अपने देहांत, अर्थात १९०८ तक वह लगभग हर कांग्रेस-अधिवेशन में शामिल हुए। राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए उन्हें इंडियन नेशनल कांग्रेस के सातवें अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। यह अधिवेशन १८९१ में नागपुर में हुआ था।
बाद में वह १८९३ में कांग्रेस के लाहौर-अधिवेशन के महामंत्री भी चुने गए। इस तरह ऐसे कांग्रेसी नेताओं में से वह भी एक थे, जिन्होंने दोनों पदों को सुशोभित किया है। श्री पी. आनंद चार्लू बड़े अच्छे वक्ता भी थे। वह धीमे-धीमे सोच-समझकर बोलते थे और उनके शब्द सीधे मन पर असर डालते थे।
अपने निजी जीवन में श्री चार्लु बड़े मेहमाननवाज थे। संस्कृत और तेलुगु के विद्वानों के साथ-साथ कांग्रेस के नेता और समाजिक कार्यकर्ता भी आकर उनके यहां ठहरा करते थे। उनका कद छोटा था और चेहरे पर चेचक के दाग थे, परंतु उनका जिस्म मजबूत था और उससे भी मजबूत था, उनका दिल। वह जिस काम को हाथ में लेते थे, उसे पूरा करके ही छोड़ते थे। वह बड़े कर्तव्यनिष्ठ, निर्भीक और स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्ति थे, इसी कारण अपने समय में वह देश के चोटी के नेताओं में से एक थे।