पुरंदर दास – Purandara Das
कर्नाटक प्रकृति सौंदर्य में तो अद्वितीय है ही साहित्य और
कला में भी बेजोड़ हैं। कर्नाटक मध्वाचार्य की जन्मभूमि और शंकराचार्य रामानुज
जैसे प्रसिद्ध धर्मगुरु तथा संतों की प्रचार भूमि हैं। इस संत समूह में भक्त कवि
पुरंदर दास का नाम भी प्रसिद्ध है। कहते हैं कि
उन्होंने चार लाख से ऊपर भक्ति पद रचे और उन्हें मधुर स्वर में गा गाकर भक्तों को
आनंद विभोर किया। ये पद विभिन्न राग में लिखे गए हैं और संगीत की अमूल्य निधि समझे
जाते हैं।
कहते है कि पुरंदर दास के दीक्षा-गुरु श्री व्यास तीर्थ थे।
दीक्षा लेने से पहले उनका नाम श्रीनिवास नायक था। उनके पिता वरदप्पा एक व्यापारी थे। वह चाहते थे कि उनका बेटा
भी उनका ही धंधा संभाले। उन्होंने अपने पुत्र का विवाह सरस्वती नाम की एक सुंदर
कन्या से कर दिया। श्रीनिवास कुछ साल तक तो पारिवारिक सुख में रमें रहे पर एक दिन
एक ऐसी घटना हुई कि उनका मन सांसारिक बातों से उचट गया।
मान्यता कि एक दिन श्रीनिवास के घर एक गरीब ब्राह्मण के रूप
में स्वयं भगवान आए और गिड़गिड़ा कर बोले- “बेटा, मुझे अपने पुत्र
का जनेऊ करना है इसीलिए तुम मुझ गरीब को इस बुरे वक्त में कुछ धन देने की कृपा करो।“
सेठ श्रीनिवास बहुत कंजूस स्वभाव के थे। उन्होंने ब्राह्मण
कुमार को दुत्कार दिया। वहां से निराश होकर वह ब्राम्हण श्रीनिवास की पत्नी
सरस्वती के पास पहुंचा। सरस्वती को उसकी दीन दशा पर बहुत तरस आया और उसके पास नगद
रुपए तो थी नहीं इसीलिए उसने अपनी नाक की कीमती नथ ब्राह्मण को दे दी और कहा कि वह
उसे बंधक रखकर रुपया
प्राप्त कर लें।
ब्राह्मण वह नथ लेकर सेठ श्रीनिवास की दुकान पर गया और बोला
– सेठ जी यह नथ बंधक रखकर मुझे काम चलाने के लिए कुछ रुपए उधार दे दीजिए।
श्रीनिवास ने वह नथ गौर से देखी तो उनके मन में संदेह हुआ कि यह नथ तो
मेरी पत्नी की दिखती हैं। अपना संदेह दूर करने के लिए वह ब्राह्मण को वही दुकान पर
बैठा कर जल्दी से घर पहुंचे और पत्नी से बोले – “सरस्वती तेरी नथ कहां हैं? जरा मुझे दिखा
कुछ काम है।“
सरस्वती अपने पति के स्वभाव से परिचित थीं। उनको तो पत्नी
से भी अधिक धन प्यारा था। वह बेचारी डर
गई और उसने सोचा की अपमानित होने से तो यह अच्छा है कि विष खाकर प्राण दे दू।
वह अपने कमरे में गई और एक कटोरे में विश्व खोलकर भगवान की
मूर्ति के सामने खड़ी होकर हरि नाम का कीर्तन करने लगीं। जब उसने जहर पीने के लिए
आंखें खोली तो यह देख कर हैरान हो गई कि विष के स्थान पर प्याले में वही नथ पड़ी
हुई थी।
उसका पति पीछे खड़ा हुआ था यह घटना देख चुका था। वह नथ लेकर
दुकान पर आया और तिजोरी खोली तो ना वह ब्राह्मण की दी हुई हीं थी और न दुकान पर
ब्राह्मण देवता ही कहीं दिखाई पड़े। इस चमत्कार पूर्ण घटना ने श्रीनिवास के ज्ञान
चक्षु खोल दिए । उन्होंने यह भली प्रकार समझ लिया कि जीवन की सार्थकता भगवान को
जीवन समर्पण करके जीने में ही हैं। यह निश्चय कर अपनी सारी दौलत गरीबों में बाट कर श्रीनिवास अपनी पत्नी और बच्चों के साथ
मुनि व्यास तीर्थ के मठ में पहुंचे। भगवान में उनकी सच्ची लगन देखकर मुनि व्यास
तीर्थ ने उन्हें मंत्रोपदेश दिया और उनका नाम बदल कर पुरंदर दास रख दिया।
यहां से पुरंदर दास के जीवन ने नया मोड़ लिया। वह भगवदभक्ति
में लीन होकर अपने इष्ट देव की स्तुति में नित्य नए-नए पद रचा करते थे । शुरू के कुछ पद तो उन्होंने अपनी पत्नी की
स्तुति में लिखें क्योंकि उसी के सहयोग से उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। पुरंदर
दास ने अनेक तीर्थ स्थानों और क्षेत्रों में भ्रमण किया। अपने सरस पदों को गाकर भक्तों
को गदगद किया तथा धर्म विश्वासी बनाया। अंत में वह विजयनगर राज्य की उस समय की
राजधानी हंपी में रहने लगे। आजकल भी इस राजधानी के खंडहरों में पुरंदर दास के निशान मौजूद है ।
पुरंदर दास के चार पुत्र थे। यह चारों अपने पिता के परम
भक्त थे और उनके सामान ही भगवान का कीर्तन करने में चतुर थे। पुरंदर दास ने अपने
गीतों तथा भजनों के द्वारा संगीत को लोकप्रिय बनाया संसारीक माया को व्यर्थ बताया, वर्ग भेद को
मिटाने की चेष्टा की और भगवान पुरंदर विट्ठल का गुणगान करते हुए भक्ति की गंगा
बहाई।
पुरंदर दास प्रात काल उठकर तंबूरे पर भगवान कीर्तन करते हैं
और अपनी पत्नी तथा बच्चों सहित द्वार द्वार जाकर भजन गाते हुए भिक्षा मांगते थे।
करोड़पति श्रीनिवास अब पुरंदर दास बनकर गांव में भिक्षा मांग रहे थे, यह देखकर
ग्रामवासी आश्चर्य करते थे। भिक्षा में जो
प्राप्त होता उससे वह न केवल अपने परिवार का ही पेट भरते किंतु उसमें अन्य दीन
दुखियों का भी हिस्सा होता।
पुरंदर दास महाराजा श्री कृष्ण देव राय के समकालीन थे। कहते
हैं कि एक दिन महाराजा साहब स्वयं पुरंदर दास के दर्शनों के लिए आए और उन्हें अपने
साथ महल ले गए। कहते हैं ,पुरंदर दास के इस
उद्देश्य का महाराज पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा और वह भी उनके प्रशंसक बन गए।
पुरंदर दास एक बड़े समाज सेवक भी थे, वह न केवल लोगों को भगवत भक्ति और सदाचार को
उपदेश देते थे उनको आदर्श जीवन बिताने का ढंग भी सिखाते थे। उनकी दुख-सुख में शरीक
होते थे। इसी कारण वह बहुत लोकप्रिय हो गए। लोग उनकी भजन मंडली में अधिकाधिक
संख्या में एकत्र होने लगे। इस पर राज्य के कुछ अधिकारी उनकी लोकप्रियता को देश की
शांति के लिए खतरा समझ उन्हें परेशान करने लगे पर इससे उनकी लोकप्रियता और भी अधिक
बढ़ गई।
अन्य संतों की तरह पुरंदर दास के जीवन में भी कुछ चमत्कारिक
घटनाएं घटी। भारत का भ्रमण करते हुए एक बार वह तिरुपति पहुंचे। वहां पर उन्होंने
संतों तथा भक्तों को एक बहुत बड़ा भोज दिया। उस उत्सव मे घी की कमी हो गई। कहते
हैं कि भगवान ने अपने भक्तों की लाज रखने के लिए एक संत के रूप में वह पहुंचकर सब
अतिथियों को खुद ही परोसा।
भारत भ्रमण से लौटकर पुरंदर दास ने अपने जीवन के शेष दिन
पुरंदर गढ़ में बिताएं।
पुरंदर दास के भजनों का रसास्वादन अब हिंदी में भी किया जा
सकता है। बाबूराव कुमठेकर ने पुरंदर दास के भजन नाम की पुस्तक लिखी है जिसमें
पुरंदर दास के भजनों का पद्य में अनुवाद किया गया है।