प्रफुल्ल चन्द्र राय जीवनी
Prafulla Chandra Ray Biography
प्रफुल्ल चन्द्र राय Prafulla Chandra Ray उन थोड़े से लोगों में थे, जो सचमुच ही दूसरों के लिए जीते और मरते हैं। वह कोई साधु या संत नहीं थे, पर वह किसी भी संत से बढ़कर थे। वह जो कुछ कहते थे, उसी पर चलते थे। बहुत से नेताओं की तरह वह मुंह से कुछ और कहने और कार्य रूप में कुछ और करने में विश्वास नहीं करते थे।
प्रफुल्ल चंद्र राय जन्म २ अगस्त, १८६१ को बंगाल के खुलना जिले के राडूली नामक गांव में हुआ। उनके पिता का नाम हरिश्चंद्र राय और माता का नाम भुवमोहिनी देवी था। वह फारसी के अच्छे विद्वान थे और शेख सादी और हाफिज के विशेष भक्त थे। वह उन लोगों में से थे जो अंग्रेजी शिक्षा के साथ ही साथ देशी विद्याओं में भी पारंगत थे। उन्होंने अपने गांव में अपने ही खर्च पर एक स्कूल भी खुलवाया था ।
संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
पूरा नाम | आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय |
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जन्म तारीख | २ अगस्त, १८६१ |
जन्म स्थान | जिला खुलना गाँव राडूली(बंगाल) |
धर्म | हिन्दू |
पिता का नाम | हरिश्चंद्र राय |
माता का नाम | भुवमोहिनी देवी |
पत्नि का नाम | अविवाहित |
पिता का कार्य | फारसी के विद्वान, गांव स्कूल भी खुलवाया था |
माता का कार्य | गृहणी |
शिक्षा | हेयर विद्यालय(कलकत्ता) स्कूलों और कालेज मे अध्ययन, प्रैंसीडेंसी कालेज, छः साल तक अध्ययन(एडिनबरा में), डी.एस.सी.(विज्ञान) |
कार्य | रसायनशास्त्र पर किताब के लेखक, कालेज के विज्ञान प्राध्यापक, बंगाल केमिकल वर्क्स के संस्थापक, विज्ञान के अध्यापक(प्रेसीडेंसी कॉलेज), मरक्यूरिअस नाइट्राइट और अमोनियम नाइट्राइट की खोज(१८९५), लेखक “हिन्दू रसायन का इतिहास” |
आमतौर पर लिए जाने वाला नाम | आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय, प्रफुल्ल कुमार राय |
मृत्यु तारीख | १६ जून १९४४ |
मृत्यु स्थान | विज्ञान कालेज(कलकत्ता) |
उम्र | ८३ वर्ष |
मृत्यु की वजह | सामान्य |
भाषा | हिन्दी,अँग्रेजी,बांग्ला |
उल्लेखनीय सम्मान | भारतीय रसायन विज्ञान के जनक, नाइट्राइट्स का मास्टर, इंडियन साइन्स काँग्रेस के सभापति, सी.आई.ई.की उपाधि |
आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय पहले-पहल स्कूल में ही पढ़ने गए। बाद में उनके पिता ने उन्हें तथा अपने अन्य बच्चों को पढ़ाने के लिए कलकत्ता में रहना शुरू किया। बालक प्रफुल्लचंद्र कलकत्ता के प्रसिद्ध हेयर विद्यालय में शिक्षा पाते रहे । १८१४ में उन्हें बड़े जोर की पेचिश हुई, इसलिए वह दो साल तक स्कूल नहीं जा सके। पर इस जबरदस्ती के अवकाश का उन्होंने बहुत अच्छा इस्तेमाल किया। वह अपने पिता के पुस्तकालय की पुस्तकों को पढ़ते रहे और थोड़े ही दिनों में उन्होंने गोल्डस्मिथ, एडीसन आदि अंग्रेज लेखकों की रचनाएं पढ़ लीं। अच्छे हो जाने के बाद वह कई स्कूलों और कालेजों में पढ़ते रहे।
बीमारी के दौरान उनमें साहित्य के प्रति जो प्रेम उत्पन्न हो गया था, वह बढ़ता ही गया। उन्हें विद्वानों के भाषण सुनने का भी बहुत शौक था। उन दिनों केशवचंद्र सेन ब्रह्मसमाज के नेता थे और सारा बंगाल उनके ओजस्वी भाषणों पर मुग्ध था। प्रफुल्लचंद्र उनके भाषणों के साथ-साथ आनंदमोहन बोस और सुरेंद्रनाथ बनर्जी के भाषण भी सुनते रहे। केशवचंद्र के भाषणों से उनके सामाजिक विचार उदार हो गए और सुरेंद्रनाथ बनर्जी के भाषणों से उन्होंने देशभक्ति का पाठ पढ़ा।
प्रफुल्लचंद्र प्रैंसीडेंसी कालेज के छात्र थे। वहां उन दिनों प्रदार्थ विज्ञान तथा रसायनशास्त्र के बहुत अच्छे अध्यापक थे। वह उन्हीं से पढते रहे। उनके मन में यह इच्छा जागी कि भारत में वह जो शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, उसे वह इंग्लैंड में जाकर पूरा करें। इसलिए वह गिलक्राइष्ट छात्र के रूप में १८८२ में विलायत गए और एडिनबरा में छः साल तक अध्ययन करते रहे। वहां उनके अध्यापकों में कई संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे, जिनका उन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय बहुत अच्छे छात्र थे। उन्होंने एडिनबरा विश्वविद्यालय से विज्ञान की सबसे ऊंची डिग्री डी.एस.सी. प्राप्त की। वह बराबर लोगों से यही कहते थे कि भविष्य वैज्ञानिकों के हाथ में है, इसलिए लड़कों को विज्ञान पढ़ना चाहिए। वह इस बात को कहते कभी अघाते नहीं थे कि विज्ञान के जरिए ही देश का नए सिरे से निर्माण हो सकता है।
अनुक्रम (Index)[छुपाएँ]
प्रफुल्लचंद्र राय और प्रैंसीडेंसी कालेज
उनका कहना था कि कभी भारत में ज्ञान-विज्ञान का बहुत प्रचार था। विज्ञान में प्रफुल्लचंद्र राय का विषय रसायनशास्त्र था उन्होंने एक पुस्तक लिखकर यह दिखलाया कि प्राचीन भारत में रसायनशास्त्र की बड़ी उन्नति हुई थी, पर भारत ने पोंगापंथी बनकर इस उन्नति को कायम न रखा, इसलिए उसकी उन्नति भी रुक गई।
विज्ञान के प्रति उनका यह प्रेम केवल जबानी नहीं था वह बराबर विज्ञान के छात्रों की सब तरह से सहायता करते थे एक बार की बात है कि वह बड़े-बड़े लोगों के साथ बातचीत कर रहे थे। उन दिनों वह अपनी वैज्ञानिक खोजों के कारण सारे संसार में विख्यात हो चुके थे। विज्ञान पर लिखे हुए उनके निबंध सारे संसार में ध्यान से पढ़े जाते थे ऐसे लोगों को अक्सर फूरसत नहीं होती। फिर वह बड़े लोगों के साथ बातचीत कर रहे थे, इतने में उन्हें एक पत्र मिला। इस पत्र का लिखने वाला एक छोटा-सा लड़का था। उसने यह लिखा था कि वह बड़ी विपत्ति में है। वह आगे पढ़ना चाहता है, पर घर की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि वह आगे पढ़ नहीं सकता। पत्र पढ़कर आचार्य राय का चेहरा गंभीर हो गया उन्होंने आए हुए लोगों से आलोचना करने के बजाय उस अनजान लड़के की फौरन मदद करना जरूरी समझा। उन्होंने उसी समय एक पोस्टकार्ड लिया और उस लड़के को लिख दिया कि मेरे पास चले आओ, सब व्यवस्था हो जाएगी। ज्ञान पथ के पथिक एक छात्र की मदद करना उन्होंने बड़े लोगों से बात करने से अधिक जरूरी समझा।
उन्हें कालेज के विज्ञान प्राध्यापक के रूप में मोटी तनख्वाह मिलती थी, पर उसमें से वह अपने लिए केवल ४० रुपया रख कर बाकी सब दान दे देते थे। उनकी आमदमी का बाकी हिस्सा विज्ञान के छात्रों के लिए बंधा था ।
वह कहा करते थे – “मेरी जरूरतें ही क्या हैं? न जोरू न जाता।“ बात यह थी कि उन्होंने विज्ञान की साधना को धुन में शादी ही नहीं की। उनका जीवन बहुत ही सादा था। यद्यपि दुनिया के वैज्ञानिकों में उनकी गिनती थी और दूसरे देशों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक उनके पास आकर नम्रता के साथ बैठते थे, फिर भी उनका रहन-सहन बहुत मामूली था। जो धोती पहनते थे वह काफी ऊंची होती थी। शरीर पर एक मोटा-झोटा बंद गले का कोट लटका लेते थे। बालों का यह हाल था कि मालूम होता था कंघी से कभी वास्ता नहीं पड़ा। कोट के बटन भी गायब रहते थे ।
इस प्रकार वह उच्च विचार और सादा जीवन के प्रतीक थे, यों तो उनका काम विज्ञान का पठन-पाठन था, पर वह देश की समस्याओं पर भी विचार करते रहते थे खबर आई कि अमुक स्थान पर बाढ़ आई है। आचार्य राय स्वयं अपना जत्था लेकर वहां पहुंचे और अपने छात्रों से भी कहा कि विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है, पर पहले इन लोगों की मदद करके उनकी जान बचाओ।
इस प्रकार देश के नवयुवकों के सामने उन्होंने सेवा का एक आदर्श रखा। उनकी विद्वत्ता और सेवाभाव के कारण सभी लोग उनका आदर करते थे। जहां नेताओं के कहने पर सौ-दो सौ चंदा आ रहा था, वहां आचार्य राय को इस काम में स्वयं आगे बढ़ते हुए देखकर लोगों ने दिल खोल कर चंदा दिया। बड़े-बड़े धनिकों के लड़कों ने जाकर गांव वालों की सेवा की।
सैकड़ों की संख्या में स्वयंसेवक निकल आए। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ कि वह स्वयं सेवा की प्रतिमूर्ति थे सेवा उनके लिए कोई बनावटी बाहरी बात नहीं थी, बल्कि उनके स्वभाव का एक अंग थी।
बंगाल के युवक या तो उनको मानते थे या क्रांतिकारी शहीदों को। सच तो यह है कि आचार्य राय जैसे लोगों ने बंगाल के नवयुवकों के सामने एक आदर्श पेश किया । लोगों ने यह प्रत्यक्ष देख लिया कि संसार के विद्वानों में गिने जाने पर भी आदमी किस तरह सादा जीवन बिता सकता है।
आचार्य राय को यदि किसी बात से बहुत कष्ट था तो इस बात से था कि बंगाली नवयुवक पढ़-लिखकर नौकरी की ओर दौड़ते हैं। उन्होंने कहा – क्यों, तुम नौकरी की ओर क्यों दौड़ते हो ? दुनिया में और भी तो सैकड़ों रोजगार हैं। वह चाहते थे कि बंगाली युवक व्यापार, उद्योग धंधों, मजदूरी आदि के क्षेत्र में भी काम करें। इसी आदर्श की पूर्ति के लिए उन्होंने बंगाल केमिकल वर्क्स की स्थापना की।
वह १८८९ में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज का विज्ञान के अध्यापक बने और तब से वह अध्यापन के साथ-साथ वैज्ञानिक खोज का काम भी करते रहे। इस बीच उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण बातें खोज निकालीं। १८९५ में मरक्यूरिअस नाइट्राइट और अमोनियम नाइट्राइट की खोज से उनका नाम सारे विज्ञान जगत में फैल गया। और उन्हे “नाइट्राइट्स का मास्टर” कहा जाने लगा | इस महत्वपूर्ण खोज के लिए उन्हें, अनेक देशों के वैज्ञानिकों ने बधाई दी। आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय के अधीन जो छात्र अध्ययन करते थे, वे भी उनकी खोजपूर्ण मनोवृत्ति से प्रभावित हुए।
सन १९०४ में बंगाल सरकार ने उन्हें यूरोप की मुख्य प्रयोगशालाओं को देखने के लिए भेजा। इस बीच वह अपनी खोजों के कारण यूरोप में प्रसिद्ध हो चुके थे, इसलिए वह जहां भी गए उनका स्वागत हुआ।
इन्हीं दिनों आचार्य राय के दिमाग में यह बात आई कि यदि भारत रसायनशास्त्र में पिछड़ा हुआ रहा, तो वह तरक्की नहीं कर सकता। उस समय स्थिति यह थी कि छोटी से छोटी चीज भी भारत के बाहर से आती थी। उन्होंने सोचा कि इसे दूर करना है और सही माने में स्वदेशी के नारे को पूर्ण करना है। इसी के अनुसार बड़ी-बड़ी कठिनाइयों के होते हुए भी उन्होंने बंगाल केमिकल की स्थापना की। पूंजी के नाम पर केवल ८०० रुपये थे और कारखाने के नाम पर अपर सरकुलर रोड का एक टूटा-फूटा मकान था। पर इसी अत्यंत छोटे आरंभ से बढ़ते-बढ़ते कैसे बंगाल केमिकल वर्क्स एक विराट कारखाना बन गया | बाद में चल कर बंगाल केमिकल की तरह कितने ही कारखाने बने और आज भारत रासायनिक क्षेत्र में काफी आगे बढ़ा हुआ है। १० से १२ वर्षो तक गहन अध्धयन कर उन्होंने हिन्दू रसायन का इतिहास नामक ग्रंथ लिखा था |
आचार्य राय को अपने कार्य में सफलता कई कारणों से मिली। एक तो वह स्वयं वैज्ञानिक थे और सारी गुत्थियों को सुलझाने के लिए तैयार रहते थे। दूसरी बात यह थी कि उन्हें योग्य साथी भी मिले। कहा जाता है कि जिन दिनों बंगाल केमिकल घुटनों के बल चल ही रहा था और थोड़ी पूंजी से काम चला रहा था, उन दिनों किसी गलती के कारण २०० बोतल दवा वाली सिरप कुछ खराब हो गई, कंपनी के लोगों ने प्रफुल्लचंद्र से कहा – उस सिरप में मामूली खराबी है, आप चिंता न करें, हम लोग इसे आसानी से चला लेंगे खरीदारों को पता भी नहीं लगेगा बहुत मामूली नुक्स है।
पर आचार्य राय ने यह बात नहीं मानी। उन्होंने कहा – ऐसा करना, जनता के साथ विश्वासघात करना होगा। हम कभी जीते जी यह धोखा चलने नहीं देंगे। यह कहकर उन्होंने उन दो सौ बोतलों को मंगाया और अपने सामने उनको नाली में डलवा दिया। उन्होंने इस संबंध किसी पर विश्वास नहीं किया। उनके लिए विज्ञान जनता को लुटने का साधन नहीं, बल्कि जनता की सेवा का साधन था | जो चीजें विदेश से अधिक दाम मे आती थी, उन्हें सस्ता देना और देशी वैज्ञानिकों को फायदा पहुंचाना, यही उनका उद्देश्य था।
आचार्य राय के छात्रों में कई बड़े-बड़े वैज्ञानिक हुए, जिनमें रसिक लाल दत्त, नीलरतन धर, मेघनाद साहा आदि कई वैज्ञानिक भारत के बाहर भी प्रसिद्ध हुए। आचार्य राय वैज्ञानिक होने के अलावा समाज सेवक भी थे। वह बराबर अछूतोदधार कार्य करते रहे। साथ ही अन्य प्रकार के सामाजिक कार्यों में भी उनका बहुत बड़ा हाथ रहा। उन्होंने बंगाल के युवकों को फैशनपरस्ती के विरुद्ध शिक्षा दी। वह सिगरेट और चाय के जबरदस्त विरोधी थे। वह स्वयं स्वदेशी का व्यवहार करते थे और दूसरों को भी स्वदेशी का उपदेश देते थे।
उन्होंने खुलकर राजनीति में भाग नहीं लिया, पर वह बराबर इस बात को कहते थे कि देश को आजाद करने की बहुत बड़ी जुररत है।
सन् १९२० कुछ लोनों ने उनसे कहा की आप राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से भाग लें और कौंसिल के लिए खड़े हों। इस पर उन्होंने कहा – देश को वैज्ञानिकों की भी जरूरत है, जब देश में तीस रसायनशास्त्री पैदा हो जाएंगे तब मैं अपना काम छोड़ कर राजनीति में काम करने लगूंगा।
वह गांधीजी के चरखा के प्रधान प्रचारकों में हो गए। वह इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि मिलों के मुकाबले में चरखे का ठहरना कठिन है । फिर भी वह इस बात को समझते थे कि चरखे से गरीबों की कुछ सहायता हो सकती है, जबकि मिलों का लाभ पूंजोपति को ही होता है।
वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के भी बहुत बड़े प्रचारक थे, जिसके कारण १९२३ में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के स्नातकों को उपदेश देने का मौका उन्हें दिया गया। वह कहते थे कि नानक, कबीर, चैतन्य ये सभी संस्कृतियों की उपज हैं।
प्रफुल्ल चन्द्र राय को आधुनिक युग का ऋषि कहा जा सकता है। उन्होंने लाखों रुपये कमाए, पर वह केवल उतने रुपयों पर ही अपना हक समझते थे जितने से कि वह सादा जीवन व्यतीत कर सकें। बढ़िया कुर्सियों पर बैठकर लोगों के साथ आलोचना करने के बजाय वह हरी दूब पर बैठकर आलोचना करना पसंद करते थे। मेज पर बैठ कर कांटे और छुरी से खाने के बजाय वह चावल की लाई खुश होकर खाते थे। धार्मिक मामलों में वह बहुत ही उदार थे ये सब बातें हैं जिनके कारण आचार्य राय बंगाल के नवयुवकों के आदर्श बने रहे।
उनमें एक तरफ जहां अपार ज्ञान था, वही दूसरी तरफ बड़ी सहनशीलता भी थी। उनका रोम-रोम देशप्रेम से भरा हुआ था। वह केवल यही चिंता करते रहते थे कि किस प्रकार देश की और विज्ञान की अधिक से अधिक सेवा की जाए।
वह भारत को स्वतंत्र नहीं देख सके। १६ जून १९४४ को विज्ञान कॉलेज में उनका देहांत हुआ।
FAQ`s
Questation : प्रफुल्ल चंद्र राय का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
Answer : प्रफुल्ल चंद्र राय का जन्म २ अगस्त,१८६१ को बंगाल के खुलना जिले के राडूली नामक गांव में हुआ।
Questation : प्रफुल्ल चंद्र राय के पिता का नाम क्या था?
Answer : प्रफुल्ल चंद्र राय के पिता का नाम हरिश्चंद्र राय था
Questation : प्रफुल्ल चंद्र राय के माता का नाम क्या था?
Answer : प्रफुल्ल चंद्र राय के माता का नाम भुवमोहिनी देवी था
Questation : प्रफुल्ल चंद्र राय की मृत्यु कब और कहाँ हुई?
Answer : प्रफुल्ल चंद्र राय की मृत्यु १६ जून १९४४ को विज्ञान कॉलेज(कलकता) में हुई।