फरदूनजी नौरोजी | Fardunji Nauroji
भारत अनेक जातियों और धर्मों का देश है। समय-समय पर कितनी ही जातियों के लोग और कितने-ही धर्मों के मानने वाले आकर यहां बसते रहे हैं और यहां के निवासियों में घुलते-मिलते चले गए हैं। सबने यहां की मिट्टी से बहुत कुछ लिया है और बहुत कुछ इस देश को दिया है। भारत का कोई ऐसा भाग, जाति, संप्रदाय या काल नहीं रहा है, जिसने भारत मां का सिर ऊंचा करने वाले एक न एक महापुरुष को जन्म न दिया हो।
पारसी संप्रदाय भारत में संख्या की दृष्टि से बहुत छोटा है किंतु इसने दादाभाई नौरोजी, जमशेदजी टाटा, होमी भाभा जैसे नररत्नों को जन्म दिया। फरदून नौरोजी जी भी ऐसे ही एक व्यक्ति थे। वह पारसी संप्रदाय में जन्मे और उन्होंने शिक्षा, विशेष रूप से स्त्री-शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र में बंबई में उन्नीसवीं शताब्दी के पहले भाग में असाधारण कार्य किया।
संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
पूरा नाम | फरदूनजी नौरोजी |
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जन्म तारीख | मार्च १८१७ |
जन्म स्थान | भरूच (गुजरात) |
धर्म | पारसी |
शिक्षा | सूरत में आरंभिक शिक्षा, नेटिव एजूकेशन सोसायटी बंबई |
कार्य | समाजसेवक, स्त्री-शिक्षा के प्रचारक |
मृत्यु तारीख | सितंबर १८८६ |
उम्र | ६९ वर्ष |
अभी भारत में क्रांति का युग नहीं आया था। समाज सुधार के विभिन्न आंदोलनों के रूप में भारत वह अंगड़ाई ले रहा था, जो क्रांति की पूर्वगामिनी हुआ करती है। अभी यूरोप से सीखने और ग्रहण करने का युग था, विद्रोह का नहीं | फरदूनजी नौरोजी उन्नीसवीं शताब्दी के देशभक्तों के उस वर्ग में से थे, जिन्होंने पाश्चात्य प्रभाव की उपयोगिता समझकर उसका स्वागत किया और भारतवासियों को अंग्रेज़ी शिक्षा और पश्चिम की प्रगतिशील समाज-व्यवस्था को अपनाने की प्रेरणा दी और इसी आधार पर नए भारत का निर्माण करने के लिए अथक प्रयास किया।
इस दिशा में सबसे पहले काम आरंभ करने वाले व्यक्ति थे, राजा राम मोहन राय उनके बाद रानडे, गोखले, ईश्वरनंद्र विद्यासागर, सैयद अहमद खां और दादाभाई नौरोजी आदि ऐसे अनके समाज सुधारक हुए, जिनके सामने देश का हित और स्वाभिमान सबसे पहले था, किंतु जो साथ ही पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान और सभ्यता की खूबियों के प्रशंसक थे। वे चाहते थे कि ब्रिटिश राज्य से सहयोग करते हुए देशवासियों को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहिए क्योकी ऐसा करने से ही अपने देशवासी आगे बढ़ेंगे। फरदूनजी नौरोजी भी इसी परंपरा के देशभक्त और नेता कहे जा सकते है ।
फरदूनजी नौरोजी का जन्म मार्च १८१७ में भरूच (गुजरात) में हुआ था और वही पर तथा उसके बाद सूरत में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई थी इसके बाद वह बंबई चले गए और उन्होंने नेटिव एजूकेशन सोसायटी के स्कूल में अपना नाम लिखाया। शुरू से ही वह अंग्रेज़ी और इतिहास के बड़े अच्छे विध्यार्थी रहे और स्कूल से विशेष योग्यता पूर्वक उत्तीर्ण हुए। स्कूल के प्रबंधक और अध्यापक उनकी प्रतिभा और योग्यता से भलीभांति परिचित हो चुके थे अत: उनको इसी स्कूल में अध्यापक नियुक्त कर दिया गया।
कुछ दिन बाद वह बंबई के एलफिस्टन स्कूल में चले गए। इस स्कूल में पढ़ाते हुए फरदूनजी नौरोजी ने बंबई में शिक्षा प्रसार के आंदोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया।
फरदूनजी अध्यापक जीवन में अधिक नहीं ठहर सके और १८३६ में उन्हें काबुल स्थित ब्रिटिश राजदूत सर एलेग्जेंडर बनर्स के देशी सचिव और अनुवादक की जगह मिल गई। इस समय फरदूनजी की अवस्था मुश्किल से १९ वर्ष की थी, फिर भी उन्होंने अपनी योग्यता और परिश्रम की अपने अधिकारियों पर बड़ी अच्छी धाक बैठा दी। अभी फरदूनजी को अफगानिस्तान में रहते तीन वर्ष भी नहीं बीते थे कि ब्रिटेन और अफगानिस्तान के संबंध बिगड़ गए। अफगानिस्तान की गद्दी पर दोस्त मुहम्मद ने अधिकार कर लिया था, शाहशुजा अंग्रेजों का मित्र था। अग्रेज़ दोस्त मुहम्मद को हटाकर शाहशुजा को गद्दी पर बैठाना चाहते थे। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ब्रिटिश फौज ने अफगानिस्तान में प्रवेश किया। आरंभ की कुछ लड़ाइयों में ब्रिटिश सेनाओं को सफलता मिली, किंतु काबुल पहुंचने पर ब्रिटिश सेना बुरी तरह पराजित हुई। इसके बाद अफगानों ने अंग्रेज़ सेना और ब्रिटिश दूतावास के सारे कर्मचारियों को जिसमें स्वयं राजदूत भी शामिल थे, तलवार के घाट उतार दिया। सौभाग्य से इस समय फरदूनजी अफगानिस्तान में नहीं, बल्कि बंबई में थे वह अपने किसी पारिवारिक काम से बंबई आए हुए थे और इस प्रकार दैवयोग से काबुल के इस हत्याकांड से बच गए।
१८४५ में नौरोजी फरदूनजी बंबई के सुप्रीम कोर्ट में दुरभाषिए के पद पर नियुक्त किए गए और लगभग १९ वर्ष उन्होंने इसी पद पर काम किया।
सुप्रीम कोर्ट में नौकरी करते हुए ही फरदूनजी बंबई के विभिन्न सामाजिक कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे। उनका अध्ययन और लेखन कार्य भी चलता रहा। जरधुश्ती (पारसी) धर्म के बारे में उन्होंने अग्रेज़ी और गुजराती में कई पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं। नौरोजी फरदूनजी न केवल विचारशील व्यक्ति थे, बल्कि उनकी दृष्टि भी बड़ी पैनी थी उनको अपनी डायरी लिखने का भी बड़ा शौक था।
अफगानिस्तान में अपनी यात्रा के बारे में उन्होंने बड़े सजीव वृत्तांत लिखे थे। इनमें से कई समाचार-पत्रो में प्रकाशित हुए और जब उनकी पूरी डायरी प्रकाशित हुई तो लोगों ने उसे बड़े चाव से पढ़ा और उसकी बड़ी प्रशंसा की गई। स्त्री-शिक्षा के वह प्रबल समर्थक थे और पारसी समाज की अनेक कुरोतियों में स्त्रियो की अशिक्षा को सबसे बड़ी मानते थे। बंबई के गर्ल्स स्कूल एसोसिएशन की स्थापना में फरदूनजी का बड़ा हाथ था और इस संस्था ने स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में आगे चलकर असाधारण काम किया।
पारसी समाज के दकियानुसीपन और कुरीतियों से वह भलीभांति परिचित थे। अपने समाज को उन सबसे मुक्त कराने का वह संकल्प कर चुके थे। अपने इस संकल्प की पूर्ति के लिए १८५१ में उन्होंने रहनुमाए मजदियस्बी सभा की स्थापना की और आजीवन उसके प्रधान रहे। इस सभा के मंच से उन्होंने पारसी समाज के पुरातनपंथी विचारों को प्रबल चुनौती दी। फरदूनजी नौरोजी के जीवनकाल में ही उनके प्रगतिशील विचारों को पारसी समाज में काफी मान्यता मिल गई थी | समाज सुधार एक दिन में नही हुआ करते किंतु फरदूनजी जैसे सुधारक आगामी सुधारों के लिए रास्ता अवश्य साफ कर देते हैं। सरकारी नौकरी में रहते हुए फरदूनजी शिक्षा और समाज सुधार के कार्य में प्राण से जुटे रहे। बाद में तो उन्होंने अपना समस्त जीवन पूर्णतः सामाजिक कार्यों के लिए अर्पित कर दिया।
बंबई एसोसिएशन नामक संस्था की स्थापना १८५२ में हुई थी। इस संस्था से फरदूनजी का संबंध उसके स्थापना काल से ही रहा था। कुछ समय तक वह इसके मंत्री भी रहे। पारसी ला एसोसिएशन पारसियों के सामाजिक रीति-रिवाजों को कानून का रूप दिलाने के लिए वर्षों तक काम करता रहा और इस एसोसिएशन के प्रयत्नों से पारसियों के लिए विवाह तथा उत्तराधिकार का अपना अलग कानून बना। अपने उत्साही स्वभाव के कारण फरदूनजी इस एसोसिएशन के प्राण थे। पारसी रीति-रिवाजों के बारे में फरदूनजी का ज्ञान बहुत गहरा था, यहां तक कि इस विषय में स्थानीय न्यायालय भी उनसे परामर्श किया करते थे।
फरदूनजी जैसे व्यक्तियों के प्रयत्नों के कारण अदालतों के काम से सहायता के लिए जूरी नियुक्त होने लगे। जुरी लोग जनता में से नियुक्त होते हैं और मुकदमे की सारी कार्रवाई को सुनकर न्यायाधीश को राय देते है कि अभियुक्त दोषी है या निर्दोष।
सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के उपरांत नौरोजी फरदूनजी पूरी तरह जनता की सेवा के काम में जुट गए। उन्होंने निर्णय किया कि वह भारत के संबंध में ब्रिटेन के लोगों को अधिकाधिक जानकारी देकर ब्रिटेनवासियों का मत भारत के पक्ष में तैयार करेंगे। भारत पर अंग्रेजों का शासन था और इंग्लैंड की पार्लियामेंट भारत के शासन के लिए कानून बनाती थी और नीति तय करती थी। वह तीन बार इंग्लैंड गए। इंग्लैंड में उन्होंने भारत से संबंधित विविध विषयों पर प्रभावशाली व्याख्यान दिए। उनके इन व्याख्यानों के कारण इंग्लैंड की जनता और पार्लियामेंट के मेंबरों व राजनीतिक संस्थाओं पर काफी प्रभाव पड़ा और लोग समझने लगे कि भारतीय क्या चाहते है। ब्रिटिश पार्लियामेंट की कमेटी के समक्ष फरदूनजी ने भारत का पक्ष प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। इस प्रकार इंग्लैंड में इन सब कामों के परिणामस्वरूप भारत के प्रति कुछ सद्भावना उत्पन्न हुई।
१८७३ में फरदूनजी गुजरात गए और वहां के किसानों की दशा के बारे में उन्होंने स्वयं जांच की। अपनी जांच के परिणामों को उन्होंने प्रकाशित भी कराया। इसी प्रकार जब सूरत में भयानक बाढ़ आई तो फरदूनजी ने बाढ़ पीड़ितों की बड़ी सहायता की। बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए जो सहायता कोष स्थापित किया गया वह उसके अवैतनिक मंत्रियों में से थे।
फरदूनजी के जीवन काल में यंग बंबई पार्टी नाम की एक संस्था बंबई में काम करती थी। इस पार्टी ने रास्त गुफ्तार नामक एक पत्र निकाला था, जिसमें फरदूनजी का बहुत योग था। वह वर्षों तक रास्त गुफ्तार में लिखते रहे।
बंबई की जनता की सेवा करने का सबसे अच्छा अवसर फरदूनजी को बंबई नगरपालिका के सदस्य के रूप में प्राप्त हुआ। बंबई नगरपालिका ने फरदूनजी के प्रभाव से बहुत उन्नति की और जनहित के बड़े-बड़े काम किए। फरदूनजी बंबई नगरपालिका के संस्थापकों में माने जाते हैं। इस प्रकार पारसी समाज और बंबई के सार्वजनिक जीवन का कोई कार्य ऐसा नहीं था, जिसमें फरदूनजी नौरोजी का हाथ न रहा हो और जिस पर उनके व्यक्तित्व की छाप न पड़ी हो। उनकी विविध सेवाओं से प्रभावित होकर अंग्रेज़ संरकार ने भी उन्हें १८८५ में उपाधि दी।
इसके एक वर्ष बाद ही सितंबर १८८६ में नौरोजी फरदूनजी का देहावसान हो गया। फरदूनजी नौरोजी का ७० वर्ष का जीवन बिलकुल बेदाग और परोपकारमय रहा। जिस काम को भी उन्होंने उठाया उसमें अंत तक जुटे रहे। अपने सिद्धांतों पर वह सदा अटल रहे और उनके लिए बड़े से बड़े व्यक्ति के सामने झुकने को तैयार न थे। यद्यपि बहुत से जिम्मेदार पदों पर उन्होंने काम किया, किंतु उन्हें पद का लोभ कभी नहीं रहा।