फ़ीरोजशाह मेहता | Pherozeshah Mehta
फीरोजशाह
मेहता भारत के उन बड़े नेताओं में थे, जिन्हें
जनता ही नहीं, बल्कि सरकार भी बहुत मानती थी।
उनका जीवन किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था। वह कितने ही क्षेत्रों
में काम करते थे और सभी में उनका ऊंचा स्थान था। चाहे बम्बई-कारपोरेशन हो, या
विश्व-विद्यालय, कांग्रेस या बड़े लाट की कौंसिल
– सतर्क नेता थे।
फ़ीरोज़शाह मेहता अपने जमाने के गिने-चुने
चोटी के नेताओं में से थे, उनकी
योग्यता समझदारी और दूरदर्शिता का सब लोहा मानते थे। यों तो वह पारसी थे, पर
सबसे पहले अपने को भारतीय मानते थे।
फ़ीरोज़शाह मेहता का जन्म ४ अगस्त १८४५ को
हुआ था। उनके पिता मशहूर व्यापारिक फर्म “कामा
कम्पनी” में साझीदार थे और उनकी आमदनी
अच्छी-खासी थी। व्यापारी होते हुए भी वह पढ़ाई-लिखाई का महत्व जानते थे। अतः
उन्होंने अपने लड़के को बड़ी खुशी से पढ़ने के लिए कालेज भेजा। फ़ीरोज़शाह उन पहले
नौजवान हिन्दुस्तानियों में से थे, जिन्होंने
ऊंचे दर्जे की अंग्रेजी शिक्षा पाई थी। १८६४ में उन्होंने बी०ए० और उसके छः महीने
बाद एम०ए० पास कर लिया। एम०ए० पास करने वाले वह पहले पारसी थे। तदुपरांत उन्हें
बैरिस्टरी पढ़ने के लिए विलायत भेजा गया। वहां तीन साल रहकर उन्होंने बहुत कुछ
सीखा। इसी समय दादाभाई नौरोजी से भी उनका परिचय हुआ। दादाभाई उस समय भारत के लिए
अकेले ही वहां लड़ाई लड़ रहे थे। विलायत में फ़ीरोज़शाह दो ऐसी संस्थाओं में भी
भाग लेने लगे, जिनमें भारत के विषय पर लेख पढ़े
जाते थे। इन संस्थाओं के ही कारण उनकी श्री उमेशचन्द्र बनर्जी से दोस्ती हुई, जो
आगे चलकर राजनीति में खूब चमके। विलायत में अपनी प्रतिभा की असाधारण धाक जमाने के
बाद १८६८ में वह बैरिस्टर बन कर स्वदेश लौटे और बैरिस्टर के रूप में अत्यधिक सफल
हुए।
फ़ीरोज़शाह ऊंची शिक्षा के समर्थक थे। शिक्षा
के बारे में उनके विचार आज भी याद किए जाते हैं। वह कहा करते थे – “हिन्दुस्तानियों
को पढ़ाने का पहला उद्देश्य यह है कि ऊंची सभ्यता में नीची सभ्यता समा जाए; पुरानी
संस्कृति को नए ढंग से सुधारा जाए।“ शिक्षा के क्षेत्र में वह केवल सरकारी मदद को
ही काफी नहीं मानते थे। वह तो चाहते थे कि शिक्षा का पूरा खर्च शुरू से आखिर तक
सरकार बर्दाश्त करे।
शिक्षा के साथ-साथ वह अपने देश के नौजवानों
में हर
दर्जे की बहादुरी की भी अपेक्षा करते थे। “कमजोरी” शब्द से ही उन्हें चिढ़ थी। एक
बार १८७७ में वालण्टियर आंदोलन के बारे में विचार करने के लिए बम्बई के गर्वनर की
अध्यक्षता में एक सभा बुलाई गई। उसमे यह तय किया जाने लगा कि वालण्टियर सिर्फ
यूरोपीयों को ही बनाया जाए। फ़ीरोज़शाह से यह बात नहीं सही गई। उन्होंने खुलकर
इसका विरोध किया और कहा कि यह बिलकुल सही नही है की इस सभा मे सिर्फ यूरोपीयों को
वालण्टियर बनाने की बात तय हो। यह आम जलसा बम्बई में रहने वाले लोगों का है और
उन्हें भी वालण्टियर बनने का पूरा अधिकार है। इस गर्जना
ने जादू-सा असर किया। सभा करने वाले यूरोपीयों
ने अपनी भूल समझी।
फीरोज़शाह की ही मेहनत का नतीजा था कि
बम्बई-कारपोरेशन का अपना विधान बना और उसे भारत का सबसे बड़ा कारपोरेशन होने का
गौरव मिला। यह इतना बड़ा कारपोरेशन था कि इसके ७२ सदस्य थे। इनमें से सिर्फ १६
नामजद थे, बाकी सब चुन कर आते थे। इस तरह यह
एक छोटी-सी पार्लियामेंट ही थी, जिसमें सब
लोग मिल-जुल कर सद्भावना में काम करते थे। फ़ीरोज़शाह इस कारपोरेशन के लिए इतने
जरूरी समझे जाते थे कि उनके बिना कभी कोई बड़ी बात तय नहीं होती थी। वह १८८४, १८८५, १९०५
और १९११ में इस कारपोरेशन के मेयर बने।
बम्बई कारपोरेशन के काम में तो फ़ीरोज़शाह
गहरी दिलचस्पी लेते ही थे, राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति भी वह पूरी तरह जागरूक थे और
उनमें यथासम्भव भाग लेते थे। १८९० में कलकत्ता कांग्रेस के अध्यक्ष पद से भी
उन्होंने कहा था – भारत अंग्रेजी राज्य में है। अगर
आप चाहें तो इसे अपने लिए अच्छा बना सकते है और चाहें तो बुरा। अगर आप अंग्रेजों के
सामाजिक,
नैतिक, मानसिक
और राजनीतिक गुणों को अपनाएंगे, तो भारत और
ब्रिटेन के बीच संबंध
हमेशा अच्छा रहेगा।
१८८४ तक फ़ीरोजशाह मेहता राजनीति के क्षेत्र
पूरी तरह नहीं उतरे थे। इसका कारण भी था – उस समय तक देश में कोई मज़बूत संगठन ही
नहीं था। इस वर्ष “बंबई प्रजिडेसी एसोसिएशन” की
स्थापना हुई और वह उसमें सक्रिय भाग लेने लगे। मरते वक्त संस्था के प्रधान रहे।
उसी साल कांग्रेस की भी पहली बैठक श्री उमेशचन्द्र बनर्जी में
बम्बई में हुई। इसमें भी वह शामिल हुए और उसके बाद राजनीतिक लड़ाई में बराबर आगे रहे |
बम्बई प्रेजिडेंसी एसोसिएशन और कांग्रेस, इन
दोनों ही संस्थाओं के साथ फिरोज़शाह मेहता का आजीवन संबंध रहा। एसोसिएशन के जरिए
उनके विचार सरकार तक पहुचते और
उन पर बड़ी गम्भीरता से विचार किया जाता था। कांग्रेस में भी वह उसके जन्म से ही
शामिल हुए और सदा उसकी हित-रक्षा करते रहे। उन्होंने बम्बई में हुए कांग्रेस
के पांचवें अधिवेशन में जो स्वागत-भाषण किया था, उससे
कांग्रेस के प्रति उनका प्रेम सहज ही स्पष्ट
हो जाता है।
नौकरशाही को जनता का मां-बाप समझने की
मनोवृत्ति का भी फ़ीरोजशाह ने सदा विरोध किया।
वह कहते थे कि यह प्रवृत्ति सरकार और जनता, दोनों
को गिराने वाली है।
फिरोज़शाह १८८६
में बम्बई कौसिल के नामजद सदस्य बने। वहां भी वह जनता के ही बात कहने और बेधड़क
होकर सरकारी नीति की आलोचना करने में कभी पीछे न हटे | कानून के अंदर रहते हुए आंदोलन
करते थे उनके पीछे चलने वालों की बहुत तादाद थी। उन्हीं की कोशिशों का नतीजा था कि
१९११ में सरकार ने इस देश में कई महत्त्वपूर्ण सुधार किए।
अपने जीवन के आखिरी दिनों में फ़ीरोज़शाह
मेहता ने बम्बई से एक अंग्रेजी दैनिक “बाम्बे क्रानिकल” का
प्रकाशन आरंभ किया, जिसका देश के स्वतंत्रता-संग्राम
में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा।
१९१५ में फ़ीरोजशाह मेहता ने बम्बई में
कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन करने का प्रस्ताव रखा था और
वह स्वयं स्वागत समिति के प्रधान चुने गए थे। उन्होंने सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा से उस साल
कांग्रेस का अध्यक्ष होने की रजामंदी भी ले ली थी। पर सारी तैयारियों पूरा होने के बावजूद
वह उस साल की कार्यवाही में हिस्सा न ले सके। ५ नवम्बर १९१५ को उनका स्वर्गवास
हो गया।