बदरुद्दीन तैयबजी | Badruddin Tyabji
बदरुद्दीन
तैयबजी पिछली सदी के उन निर्भीक सेनानियों में से थे जिन्होंने उत्साह और लगन से
स्वतंत्रता-संग्राम की नींव डाली। वह राजनीतिक क्षेत्र में मिस्टर ए०ओ० ह्यूम, श्री
उमेशचन्द्र बनर्जी और दादाभाई नौरोजी के सहयोगी थे और इन सब के सम्मिलित प्रयास के
फलस्वरूप इंडियन नेशनल कांग्रेस की बुनियाद पड़ी थी।
बदरुद्दीन तैयबजी का जन्म ८ अक्तूबर १८४४ को
बम्बई के एक धनी मुस्लिम परिवार में हुआ। ५ वर्ष की अवस्था में वह पढ़ने
बैठाए गए। इसके कुछ दिन बाद एलफिन्स्टन स्कूल में भर्ती हुए। बालक बदरुद्दीन कतई
शरारती न थे मेहनती और कुशाग्र होने के कारण अपने भाई-बहनों में सबसे अधिक सम्मान
भी उन्हें मिलता था।
१८६० में बदरुद्दीन बैरिस्टरी पास करने के लिए
इंग्लैंड गए। इस महत्वाकांक्षी छात्र ने, जो
हर काम में अव्वल रहना चाहता था, मेहनत से
अध्ययन किया और अपनी प्रतिभा की धाक जमा दी। केवल १८ महीने के अंदर उन्होंने
अंग्रेजी, लैटिन और फ्रेंच में काफे योग्यता
प्राप्त कर ली और और एक व्याख्यान प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार पाया। इस प्रतियोगिता
में अंग्रेज छात्रों से, जिनकी मातृभाषा ही अंग्रेजी थी, आगे
निकल जाना कम महत्व की बात नहीं थी। १८६४ में अचानक आंख में तकलीफ होने के कारण
पढ़ाई छोड़ कर उन्हें भारत लौट आना पड़ा।
स्वस्थ होने पर पढ़ाई जारी रखने के लिए वह
फिर इंग्लैंड चले गए। वहां फीरोजशाह मेहता, उमेशचन्द्र
बनर्जी और एल०वाडिया भी गए हुए थे। उन दिनों दादाभाई नौरोजी भी जो
बदरुद्दीन से लगभग २० वर्ष बड़े थे, इंग्लैंड
में ही थे | इन
लोगों के सम्पर्क में बदरुद्दीन का रुझान राजनीति की ओर मुड़ा और भारत के अनेक
नेताओं की तरह बदरुद्दीन के हृदय में इंग्लैंड में ही देशभक्ति का अंकुर जमा | वह
भारत और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं में भी गहरी दिलचस्पी लेने लगे। इन सब
बातों के बावजूद उन्होंने अध्ययन में ढील नहीं
की। १८६७ में कानून की परीक्षा पास की और उसी वर्ष भारत लौट आए।
बैरिस्टर बदरुद्दीन ने बम्बई हाईकोर्ट में
वकालत शुरू की। उन दिनों बम्बई में और कोई भारतीय एडवोकेट न था। हाईकोर्ट के सभी
जज विदेशी थे और वे आम तौर से विदेशी एडवोकेट को ही अधिक महत्व देते थे। उन दिनों
मामूली यूरोपीय की प्रतिष्ठा उच्च शिक्षा-प्राप्त भारतीय से अधिक समझी जाती थी।
उनके साथी एडवोकेट
भी यूरोपीय थे और वे भारतीयों को हीन और निम्नकोटि का समझते थे। लेकिन बदरुद्दीन
ने इसकी बिलकुल परवाह न को। म्यूनिसिपैलिटी, रेलवे,डाक
व तार और बड़ी-बड़ी व्यापारिक कम्पनियों के (जो लगभग सभी यूरोपीयों को थी) और
सरकारी मुकदमे यूरोपीय सालिसिटरों और एडवोकेटों को ही सौंपे जाते थे। बदरूद्दीन के
एक साल बाद फीरोजशाह मेहता ने हाईकोर्ट में काम करना चाहा, लेकिन
कुछ वर्ष बाद हिम्मत हार गए। इसी तरह एच०वाडिया भी निराश होकर काठियावाड़ चले गए, वहीं
उन्होने नाम और पैसा दोनों कमाया।
बदरुद्दीन इन
दिक्कतों से घबराने
वाले व्यक्ति न थे। उनके भाई कमरुद्दीन ने, जो
सालिसिटर थे, कुछ काम दिलाना शुरू किया। अपनी
लगन,
मेहनत, विषय
की पकड़ कारण बदरुद्दीन ने वहां अपने पैर जमा ही लिए और सूझ-बूझ से अंग्रेजों
ने शीघ्र ही यह महसूस किया कि भारतीय वकील, खास
कर इंगलेंड
में लिखे बैरिस्टर, साम्राज्यवाद के शत्रु साबित हो
सकते हैं। यदि वे राजनीतिक आंदोलन के जन्मदाता न भी बने, तो
भी कम-से-कम भारतीय जनता को स्वाधीनता प्रेम का बोध करा
ही देंगे और जनता के अधिकारों के हिमायती बन कर साम्राज्य की जड़े अवश्य खोखली कर देंगें।
बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जार्ज कैम्पबैल ने यह नारा उठाया कि वकीलों
और वकालत की प्रथा समाप्त कर दी जाए। सौभाग्यवश यह प्रस्ताव कामयाब न हुआ और आगे
चल कर अंग्रेजों की आशंका सही निकली। बम्बई में बदरुद्दीन, फीरोजशाह
मेहता और तैलंग ने, कलकत्ते में उमेशचन्द्र बनर्जी, मनमोहन
घोष और लालचन्द घोष ने राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार किया। लगभग सभी आंदोलनों के
पीछे इन्हीं लोगों का हाथ रहा करता था। वस्तुत: इन्हीं लोगों ने आधुनिक भारत की
नींव रखी और उनका स्वप्न १९४७ में साकार हुआ।
बदरुद्दीन बड़े गम्भीर और सौम्य स्वभाव के थे
और उन्हें कोई लत न थी। न वे शराब पीते थे और न सिगरेट, न
घुड़दौड़ों के शौकीन थे, न
विलासिता के गुलाम। अधिकतर घर रहकर कानून की पुस्तकों का अध्ययन किया करते और
पत्नी को अंग्रेजी की पुस्तकें पढ़कर सुनाते। हां उन्हें घुड़सवारी का शौक था। वह
सारे काम नियमपूर्वक और समय से करते थे।
वकालत जमने के बाद उन्होंने सार्वजनिक
कार्यों में हिस्सा लेना शुरू किया। १८७२ में एक नए कानून के अधीन १८७३ में बम्बई
कारपोरेशन के कुछ सदस्यों का चुनाव हुआ। बदरुद्दीन उसमें खड़े हुए और सफल हुए। वह
बराबर दस साल तक कारपोरेशन के सदस्य रहे। १८८२ में उन्हें बम्बई व्यवस्थापिका
परिषद् के रूप में नामजद किया गया। जब तक वह अस्वस्थता के कारण इस्तीफा देकर अलग
नहीं हो गए वह परिषद में भारतीयों के हितों और अधिकारों की जोरदार वकालत करते रहे।
इस परिषद में रहकर बदरुद्दीन ने अपनी प्रतिभा और दृण चरित्र
का जो परिचय दिया उसने वे सारे देश में राजनीतिक नेता के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
इंडियन नेशनल कांग्रेस, बाम्बे
प्रेसीडेंसी एसोसिएशन के तत्वावधान में संयोजित की गई थी। इस एसोसिएशन के अध्यक्ष
बदरुद्दीन ही थे लेकिन कांग्रेस के अधिवेशन के कुछ
दिन पहले उन्हें एक आवश्यक कार्यवश कैम्बे
जाना पड़ा और वह उसमें सम्मिलित न सके। स्वास्थ्य खराब होने के कारण वह कांग्रेस
के दूसरे अधिवेशन में भी भाग न ले सके। उधर कांग्रेस की स्थापना से सरकार चकित
हो उठी अत: उसने देश में फूट के बीज शुरू कर दिए। १८८७ में लार्ड डफरिन बम्बई आए
और बदरुद्दीन से मिलें। बदरुद्दीन दृढ़ चरित्र और सच्चे देशभक्त थे, जो
अंग्रेज सरकार के प्रति निष्ठा रखते हुए भी स्वार्थ के लिए विदेशियों से समझौता
करने के लिए तैयार नहीं हो सकते थे।
कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन का अध्यक्ष
सर्वसम्मति से बदरुद्दीन को चुना गया। यह अधिवेशन १८८७ में मद्रास में हुआ था।
अध्यक्ष पद से उन्होंने बडा प्रभावशाली और औजस्वी भाषण दिया।
बदरुद्दीन ने कांग्रेस के अधिवेशन और विषय
समिति की बैठकों में एक नया सिद्धांत चलाया। वह यह कि किसी ऐसे मामले पर विचार न
किया जाय जिसका किसी जाति विशेष के सब या
लगभग सब सदस्य विरोध कर रहे हों।
इसके बाद बदरुद्दीन ने राजनीति, शिक्षा, समाज
सुधार आदि सभी क्षेत्रों में उत्साहपूर्वक
काम किया। १८९२ में स्वास्थ्य गिर जाने के
कारण बदरुद्दीन ने सब काम बंद कर दिए। बीच-बीच में जब तबीयत ठीक होती तो कभी
नीलगिरी और कभी दार्जिलिंग चले जाते। काम-काजी आदमी के लिए निष्क्रिय बैठे रहना
मुश्किल हो जाता है । इसलिए लगभग डेढ़ साल बाद कुछ स्वस्थ होने पर उन्होंने फिर
काम शुरू कर दिया। १८९५ में एक जगह खाली होने
पर उन्हें जज बना दिया गया। कुछ ही दिनों में बदरुद्दीन एक योग्य और स्वतंत्र
विधार रखने वाले जज के रूप में प्रसिद्ध हो गए उन्होंने कई मामलों का फैसला इस ढंग
से किया
कि सभी उनकी विद्वत्ता और न्यायप्रियता के कायल हो गए।
जून १८९७ में रैड साहब नाम के एक अंग्रेज की
हत्या कर दी गई। इससे अंग्रेजों में बड़ी खलबली मच गई। अंग्रेज अधिकारियों ने इसे
साधारण घटना न मान कर सरकार के प्रति जालसाजी का काम समझा और वे भारतीयों से और भी
चिढ़ गए। इन्हीं दिनों केसरी पत्रिका के सम्पादक, बाल
गंगाधर तिलक ने शिवाजी मेले के सिलसिले में शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या को
उचित ठहराते हुए भाषण दिए थे। फिर ये केसरी पत्रिका में छपे भी। इसके कारण बाल
गंगाधर तिलक को आरोप लगा कर गिरफ्तार कर लिया गया |तिलक को जमानत पर छुड़ाने का आवेदन हाईकोर्ट
में दिया गया । दो बार उनका आवेदन खारिज कर दिया गया। तीसरी बार आवेदन दिया गया तो
उसकी सुनवाई बदरुद्दीन की अध्यक्षता में हुई। तिलक को जमानत पर छोड़ने में कोई
कानूनी बाधा नहीं थी, लेकिन वातावरण ऐसा था कि उनकी जमानत
मंजूर करने का साहस किसी को नहीं हो रहा था। पर न्यायप्रिय बदरुद्दीन ने दोनों पक्षों
के तर्क-वितर्क सुनने के बाद यह फैसला सुनाया- “मैं विश्वास नहीं कर सकता कि तिलक जैसा
सज्जन व्यक्ति मुकदमें के समय उपस्थित नहीं होगा। दूसरी ओर, मेरा
विचार है कि यदि में तिलक की जमानत मंजूर न करूं तो न्याय का गला घुट जाएगा, क्योंकि
सम्भव है कि एक महीने बाद वह निर्दोष भी साबित हो जाएं। इसलिए मेरे विचार से
अभियुक्त को जमानत पर रिहा कर देना न्याय-संगत है।“
इस निर्णय से काफी सनसनी फैली, लेकिन
निष्पक्ष न्यायाधीश के रूप में बदरुद्दीन को ऐसी धाक थी कि किसी ने फैसला के खिलाफ
कुछ भी न कहा। वह १८९५ से १९०६ तक जज रहे। इस बीच उन्होंने अपना अधिकांश समय समाज-सेवा
में बिताया। प्लेग के दिनों में प्लेग प्रशासन के काम में हाथ बढाया, अंजुमने-इस्लाम
के कई बार सेक्रेटरी और अध्यक्ष रहे। १९०३
में मुस्लिम कांफ्रेंस का सभापतित्व किया।
सभापति-पद
से अपने भाषण में बड़े जोरदार शब्दों में कांग्रेस का समर्थन किया। वह मरते दम तक
हिन्दु-मुस्लिम एकता पर जोर देते रहे । वह गलत प्रथा
के कट्टर विरोधी और स्त्री शिक्षा के पक्के समर्थक थे।
काम की अधिकता के कारण उनका स्वास्थ्य फिर
खराब हो गया। १९०६ के आरंभ उन्होंने यूरोप के लिए प्रस्थान किया। १९ अगस्त १९०६ की
शाम को हार्ट फेल हो जाने कारण इंग्लैंड में उनका देहांत हो गया।