बलवंत पांडुरंग अण्णा साहेब किर्लोस्कर | Balwant Pandurang Anna Saheb Kirloskar
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में सारा देश राजनीतिक और सामाजिक जागृति के दौर में से गुजर रहा था। महाराष्ट्र में राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र के साथ-साथ साहित्यिक क्षेत्र में भी एक क्रांति हो रही थी। उपन्यास, कविता, नाटक, रंगमंच आदि सभी में एक नया दौर शुरू हुआ, जिसने पुराने को बहुत पीछे छोड़ दिया। मराठी रंगमंच में इस क्रांति को लाने का श्रेय है – अन्नासाहेब किर्लोस्कर को।
३१ अक्तूबर १८८० में पुणे में उनका नाटक शाकुंतल पहली बार रंगमंच पर खेला गया और उसी के साथ आधुनिक मराठी रंगमंच जन्म हुआ।
बलवंत पांडुरंग या अन्नासाहेब किर्लोस्कर का जन्म
बलवंत पांडुरंग या अन्नासाहेब किर्लोस्कर का जन्म ३१ मार्च १८४३ को गुर्लसूर, जिला बेलगांव में हुआ था। उनके पिता बड़े विद्वान थे। संस्कृत कविता और नाटक में उनकी विशेष रुचि थी। तभी से बालक अन्ना की रुचि नाटकों की ओर हो गई। गांव के अन्य बालकों के साथ मिलकर धार्मिक उत्सवों पर वह छोटे-मोटे पौराणिक नाटकों को खेलते थे। नाटकों के साथ-साथ उनकी स्वाभाविक रुचि पद्य-रचना की भी थी।
बलवंत पांडुरंग या अन्नासाहेब किर्लोस्कर की शिक्षा
जब वह केवल १७ वर्ष के थे तो शंकराचार्य का जन्मदिन मनाया गया और उसके लिए उन्होंने शंकराचार्य के जीवन पर कुछ पद्य लिखे। उस समय तक उनकी शिक्षा केवल मराठी और संस्कृत, में हुई थी। २० वर्ष की उम्र में अंग्रेजी पढ़ने के लिए उन्हें पुणे भेजा गया। परंतु वहां उनका ध्यान पढ़ाई-लिखाई से अधिक नाटकों में लगता था। पुणे में होने वाले पुराने ढंग के नाटकों और उनके अभिनेताओं को वह बड़े चाव से देखते थे।
पुणेकर नाटक मंडली में वह अभिनेता के रूप में शामिल हो गए और उसमें दो वर्ष तक काम करते रहे। बाद में उन्होंने कोल्हापुरकर कंपनी के लिए पुराने ढंग के छह-सात पद्यभय लघु नाटक लिखे। एक पुरस्कार प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए उन्होंने ५०० आर्या (पद्यों) की एक कविता भी लिखी।
इस बीच उनका जीवन बड़ा अस्त-व्यस्त रहा। जीवन-निर्वाह के लिए टिककर कुछ न कर सके। कुछ अरसे तक वह बेलगांव के सरदार हाई स्कूल में अध्यापक रहे। फिर वह रेवेन्यू कमिश्नर के दफ्तर में नौकरी करने लगे।
श्रीशंकरदिग्विजय का लेखन
सन् १८७३ में उन्होंने अपना पहला साहित्यिक नाटक “श्रीशंकरदिग्विजय” के नाम से श्री शंकराचार्य के जीवन को लेकर लिखा। इसे उनके बाद में लिखे जाने वाले महान नाटकों का पूर्ववर्ती कहा जा सकता है। वास्तव में आम जनता को तो इसका पता उनकी मृत्यु के बाद चला, परंतु इससे यह लगभग निश्चित हो गया कि संगीत-नाटक पहले-पहल किल्लोस्कर ने ही लिखे थे। इसके तत्काल बाद उन्होंने राजपूत इतिहास को लेकर “अलाउद्दीनची चितुरगडावर स्वारी” नामक नाटक लिखा, जो अब उपलब्ध नहीं है।
किल्लोस्कर नाटक मंडली की स्थापना
जब पुणे में रेवेन्यू कमिश्नर के दफ्तर में उन्हें नौकरी मिली और उनका जीवन स्थिर हुआ तो वह अपने शौक की पूर्ति में जुट गए। सौभाग्यवश उन्हें अपने दफ्तर में और बाहर भी कुछ ऐसे साथी मिल गए, जो उनकी तरह नाटकों में रुचि रखते थे | इनके साथ मिलकर उन्होंने शौकिया कलाकारों की “किल्लोस्कर नाटक मंडली” स्थापित की।
शाकुंतलम् नाटक | शाकुंतलम नाटक
इसी समय उन्होंने महाकवि कालिदास के “शाकुंतलम्” नाटक के आधार पर मराठी में संगीत शाकुंतल नामक नाटक लिखा। जब यह नाटक पूरा हो गया तो ३१ अक्तूबर १८८० को पुणे में किर्लोस्कर नाटक मंडली ने इसे पहली बार प्रस्तुत किया। इसे सफल बनाने मं८ उन्होंने कोई कसर न उठा रखी। नाटक उन्हीं के बताए ढंग से खेला गया। पुणे का आनंदोद्भव थियेटर उस दिन खचाखच भरा हुआ था। जनता नाटक को मंत्रमुग्ध होकर देखती रही, क्योंकि उसमें गजब का अभिनय था, संगीत था और उसे बड़े ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया गया था। मनुष्य के भावों का उसमें अद्भुत चित्रण किया गया था। कुछ ही दिन बाद उनकी मंडली ने मुंबई में जाकर यह नाटक खेला। मुंबई के शेरिफ मि.जे. हवेट भी उसे देखने आए। नाटक देखकर वह अत्यंत प्रभावित हुए। चौथे अंक में शकुंतला की विदा के दृश्य को देखकर तो वह सचमुच रो पड़े। बाद में उन्होंने अपनी ओर से शकुंतला का अभिनय करने वाले को एक पैठणी (रेशमी साड़ी) और दुष्यंत व कण्व का अभिनय करने वालों को शाल भेट किए।
महाकवि कालिदास के शाकुंतलम् की गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में होती है। अन्नासाहेब ने उसका मराठी रूपान्तर भी बहुत ही उच्च कोटि का किया। उसकी मराठी लेखन-शैली इतनी उत्तम थी कि उसमें शकुंतला का सारा सौंदर्य उभर आया है। उन्होंने नटी और उनके नाटकों में पात्र स्वयं गाने लगे। इसके पहले पात्र केवल अपना गद्य-भाषण बोलते थे, और सभी पात्रों के लिए गाने का काम सूत्रधार करता था। मराठी शाकुंतल गद्य और गीतों का बड़ा सुंदर सम्मिश्रण है। यह मराठी संगीत-नाटकों की उस महान परंपरा का पहला नाटक है, जिसका अगले ५० वर्षों तक बोलबाला रहा।
उस समय के समाज में स्त्रियो का रंगमंच पर उतरना बहुत बुरा समझा जाता था। इसलिए शाकुंतल में स्त्रियो का अभिनय भी पुरुषों को करना पड़ा। शकुंतला का अभिनय शुरू में शंकरराव मुजूमदार करते थे। वह सुंदर भी थे और योग्य भी, परंतु उन्हें गाना नहीं आता था। इसलिए किल्लोस्कर ने अपने नाटक में शकुंतला से कोई गाना नहीं गवाया। १८८२ में भाऊराव कोल्हाटकर, किल्लोस्कर नाटक मंडली में शामिल हुए। सुंदर होने के साथ-साथ उनकी आवाज भी मधुर थी और उन्हें गाना भी आता था। इसलिए शकुंतला के लिए नए सिरे से गीत रचे गए।
यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगा कि ३१ अक्तूबर १८८० के दिन ही आधुनिक मराठी रंगमंच का जन्म हुआ। उस समय तक मराठी रंगमंच का जो स्वरूप था, शाकुंतल को देखते ही लोग उसे भुला बैठे। ऐसा था – शाकुंतल का जादू।
संगीत सौभद्र की प्रस्तुति
संगीत शाकुंतल की सफलता के बाद अन्नासाहेब को अपना जीवन-मार्ग मिल गया। उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और मराठी रंगमंच को समृद्ध बनाने में पूरी तरह जुट गए। अपनी शौकिया नाटक मंडली को उन्होंने व्यावसायिक रूप प्रदान किया और खुद उसके संस्थापक व मैनेजर बने। इस मंडली ने समूचे महाराष्ट्र में और जनता ने उनके इस नए प्रयास का शानदार स्वागत किया। इस मंडली को कई बार उतार-चढ़ाव देखने पड़े। परंतु जब १८८२ में अन्नासाहेब के दूसरे संगीत नाटक संगीत सौभद्र को प्रस्तुत किया गया, तब से मंडली बराबर आगे बढ़ती गई।
संगीत सौभद्र एक मौलिक नाटक है। इसकी कहानी महाभारत में श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के अर्जुन से विवाह पर आधारित है। यद्यपि यह कहानी सब लोग जानते हैं, परंतु इस नाटक में इतने सुंदर ढंग से प्रस्तुत की गई है और इसमें मानव-प्रकृति का चित्रण बारीकी से हुआ है |
रामराज्य-वियोग नाटक
संगीत सौभद्र के बाद १८८४ के अंत में “रामराज्य-वियोग” नामक नाटक के पहले तीन अंक रंगमंच के बाहर भी कई स्थानों पर अपने इस नाटक का अभिनय किया। सभी जगह पर प्रस्तुत किए गए। इसकी कथा रामायण में राम-वनवास के प्रसंग पर आधारित है। यद्यपि अन्नासाहेब के असामयिक निधन के कारण यह नाटक पूरा नहीं हो सका, फिर भी जनता अधूरे नाटक से अत्यंत प्रभावित हुई।
बलवंत पांडुरंग अण्णा साहेब किर्लोस्कर का देहांत
अन्नासाहेब किल्लोस्कर का देहांत केवल ४२ वर्ष की उम्र में २ नवंबर १८८५ को मधुमेह रोग के कारण हो गया। इस तरह केवल पांच वर्ष तक ही वह मराठी रंगमंच की सेवा कर सके, पर इतने कम समय में भी वह मराठी रंगमंच को एक नया मोड़ दे गए।
मराठी रंगमंच का जन्मदाता
पिछले १०० से भी ज्यादा वर्षों से मराठी रंगमंच बराबर प्रगति कर रहा है, परंतु आज भी किर्लोस्कर का सौभद्र नाटक उतनी ही रुचि से देखा जाता है। इन्हीं सब कारणों से उन्हें मराठी रंगमंच का जन्मदाता कहा जाता है।