बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय | लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जीवनी | लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर निबंध | बाल गंगाधर तिलक के सामाजिक विचार | बाल गंगाधर तिलक का जन्म | Bal Gangadhar Tilak

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बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय | लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जीवनी | लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर निबंध | बाल गंगाधर तिलक के सामाजिक विचार | बाल गंगाधर तिलक का जन्म | Bal Gangadhar Tilak

१८१३ में अंग्रेजों ने मराठों का राज्य छीन
लिया। किंन्तु महाराष्ट्र में गत स्वतंत्रता की याद ताजा बनी रही। प्रारंभ में
ब्रिटिश राज्य की अच्छी-अच्छी बातों से लोगों की आंखें चौंधिया गई। रेल आई
, डाक-तार
घर शुरू हुए। जीवन सुरक्षित-सा लगने लगा। चोरी
, डाका, लूटमार
आदि का भय कम हो गया। पहले मराठा लोग सेना में काम करते थे
, अब
नौकरियां करने लगे। ब्राह्मण आदि उच्च वर्ण के लोगों को नई-नई सरकारी नौकरियां मिलने
लगीं। लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा दी जाने लगी। इस तरह किसी न किसी बात से
अंग्रेजी राज्य ने हर वर्ग के लोगों को प्रभावित किया और ब्रिटिश राज्य ईश्वर का
वरदान-सा लगने लगा। लोगों की धारणा हो चली कि अंग्रेजी राज्य से अपना देश सुधरेगा
, उन्नत
होगा
,
उद्योग-धंधे उन्नति करेंगे और भारतवासी
अंग्रेजों जैसा राज्य संचालन सीखेंगे । उधर अंग्रेज सरकार ने ईसाई मिशनरियों को
बढ़ावा दिया। ईसाई मिशनरी अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार करने लगी । अंग्रेजी शिक्षा
के कारण लोगों को अपना ही देश हीन प्रतीत होने लगा
| अपने
समाज के रस्मों-रिवाज तथा धर्म की खिल्ली उड़ाने लगे।

 

किंतु धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी । अंग्रेजी
राज्य का प्रथम आकर्षण कम होकर असली रूप समझ में आने लगा । मराठाशाही के समय के
सभी सिपाहियों को नौकारियों नही मिली थीं। अकाल हाथ धोकर पीछे पड़ा था। कृषि को
सहायता देने वाले छोटे-छोटे उद्योग नष्ट कर दिए गए थे | सरकारी अधिकारी जनता से
उंदडता से पेश आते थे | इन्ही सब कारणों मे लोग दैनिक जीवन में सरकारी नौकशाही से
तंग आ गए थे। अग्रेजी राज्य में आर्थिक लूटमार शुरू हुई। हिन्दुस्तान केवल कच्चा
माल और अन्न-धान्य का गोदाम बन रहा था। इस स्थिति से जनता का हृदय असंतोष से जलने
लगा ।

ऐसे ही समय में २३ जुलाई १८५६ को बाल गंगाधर
तिलक का जन्म हुआ। महाराष्ट्र के पश्चिमी किनारे पर स्थित रत्नागिरि उनकी जन्म
भूमि है। उनके पिता संस्कृत के पंडित थे। माता तपस्विनी थी। पुत्र के लिए तिलक जी
की माता ने सुर्य भगवान की पूजा की थी। तिलक का जन्म का नाम था केशव | पर प्यार से
उन्हें सब बाल कहते थे। आगे चल कर उनका यही नाम प्रसिद्ध हुआ।

 

बचपन में स्कूल में ही उनकी प्रखर बुद्धिमता
फलक उठी। उनके पिता ने उन्हे संस्कृत पढाई। तिलक को गणित विषय भी प्रिय था। कक्षा
के अध्यापक सवाल हल करने को देते तो वे उसे कागज पर न लिख कर जबानी ही उत्तर देते
थे। परीक्षा में भी कठिन सवाल को हल करते थे बाकी वैसे भी छोड़ देते थे सवाल करने
की इस अजीब पद्धति के कारण एक शिक्षक से उनका झगड़ा भी हो गया सारे अध्यापक उन्हें
तेज और बुद्धिमान विद्यार्थी मानते थे। कालेज के प्रथम वर्ष में उन्होंने अपना
स्वास्थ्य सुधारने का बीड़ा उठाया। कालेज को पढ़ाई की ओर से उदासीन होकर भी
उन्होंने अपना व्यायाम और तैरने का शौक पूरा किया। वहां भी सबको उनके स्वभाव का
परिचय मिला। किसी भी विषय का अभ्यास करने की तिलक की पद्धति अनोखी थी। जिस विषय का
अभ्यास करना होता
, उसका वह हर दृष्टिकोण से, हर
पहलू से
,
सर्वींगीण अभ्यास करते थे।

 

वकालत पढ़ते समय कालेज में गोपाल गणेश आगरकर
नामक
,
एक युवक से उनकी मित्रता हो गई। केवल किताबी
पढ़ाई में
ही नहीं
देश की स्थिति पर रात-रात भर विचार करने में इन दोनों मित्रों का समय कटता था। देश
की स्थिति सुधारने के लिए क्या-क्या करना चाहिए
, इस
विषय पर दोनों में वाद-विवाद होता रहता था। वे अनुभव करते थे कि देश की स्थिति में
परिवर्तन लाना हो तो देश के लिए जीवन
समर्पित करने
वाले लोग चाहिए। दोनों ने सरका
री नौकरी
न कर देशसेवा करने की प्रतिज्ञा की। आगरकर बहुत गरीब थे उनकी मां आस लगाए
बेठी
थी कि बेटे की शिक्षा पूरी होगी और वह नौकरी करने लगेगा
| तिलक
के आत्मीय भी
नके
वकील या न्यायाधीश बनने की आशा करते थे। किंतु दोनों ने देशसेवा का मार्ग अपनाया।

 

उस जमाने में सुशिक्षित लोगों को सरकारी
नौकरो की लालच होती थी और कई लोग से केवल इसी लालच में शिक्षा ग्रहण करते थे किंतु
तिलक और आगरकर ने अपनी शिक्षा
का उपयोग समाज-सुधार के लिए करने का निश्चय किया
इसी समय पू
ना के
सामाजिक कार्यकर्ता न्यायमूर्ति रानडे की सरकारी नौकरी छोड़ कर शिक्षण के लिए पूना
में आते हुए
विष्णु
शास्त्री चिपलूणकर
से पहचान हो गई। तिलक
, चिपलूणकर और आगरकर तीनों ने पूना
में पहले स्कूल
, फिर एक कालेज भी शुरू किया। इससे
शिक्षा को नई दिशा मिली। फिर उन्हें लोक-शिक्षण के लिए एक अखबार भी निकालना चाहिए।
अत: उन्होंने मराठी में
केसरी” और
अंग्रेजी में “मराठा” दो साप्ताहिक शुरू किए
| इन
दो पत्रों ने
, जनता की शिकायतें प्रकाशित करना
शुरू किया।

 

इस तरह तिलक के सार्वजनिक जीवन का आरंभ हुआ।
अखबार शुरू होने पर उ
न्हे अनेक विषयों
पर लिखना पड़ा। तिलक की कलम बड़ी तेज थी। एक बार उन्होंने एक प्रकरण पर कड़ी
आलोचना की। तब उन्हें और आगरकर को १०१ दिन के कारावास की सजा मिली। कारावास के समय
भी वह देश के संबंध में ही सोचा करते थे। वाद-विवाद के जोश में वह इतने जोर से
बोला करते कि पहरेदार को बार-बार
धीरे बोलने के लिए कहना पड़ता।

        

तिलक कुछ समय तक प्राध्यापक भी रहे थे। गणित
और संस्कृत बहुत ही अच्छा तरह पढाते थे। तिलक और आगरकर ने प्राध्यापक का काम केवल
चालीस रुपये वेतन
से किया। किंतु तिलक केवल शिक्षा के क्षेत्र में
काम करके संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि सारा राष्ट्र जाग उठे
, ऐसा
कुछ करना चाहिए। वस्तुतः तिलक की तमन्ना गणित का प्राध्यापक बनने की थी। दिन भर
पढ़ने-लिखने के इन्छुक रहते। किंतु देश में होने
वाले
अत्याचारों को वह सहन नहीं कर पा रह थे।
महाराष्ट्र मे वासुदेव बलवंत
फड़के ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। कुछ समय तक तिलक ने इस म
हान क्रांतिकारी
की निगरानी में शस्त्राभ्यास किया। किंतु वह समस्त देश को साथ लिए
मार्ग ढूंढ रहे थे |

 

इसी समय महाराष्ट्र में अकाल पड़ा । तिलक ने
अपने पत्र में जनता की शिकायतें
जाहीर कीं। असंतोष के बीज बोने के लिए यह अच्छा
अवसर था
| अत:
तिलक ने कृषकों की
ओर आंदोलन शुरू किया, लेख
लिखे
,
अर्जियां भेजीं। उन्होनें अपने युवा साथियों
को सारे महाराष्
ट्र के गांव-गांव
में प्रचार के लिए भेजा। उन्होंने लोगों से कहना शुरू किया कि लोग सरकारी अधिका
री के
साथ
,
निडरता से बरताव करें | इस
आंन्दोलन से कृषक समाज तिलक के पीछे खड़ा हो गया। बहुत से युवक इनके अनुगामी बने।
तिलक और उनके पत्र “केसरी” ने सरकार को भी प्रभावित किया। तिलक ने जनता का पक्ष
ग्रहण किया।

 

लगभग इसी समय महाराष्ट्र में प्लेग
की बीमारी आई।
उस समय भी
तिलक ने जनता का पक्ष ग्रहण किया
| सरकारी अस्पताल या रोगियों के
शिविरों में अव्यवस्था उस समय की कुप्रबंन्ध था। इस पर तिलक ने क
ड़ी
आलोचना की। गांव के गांव प्लेग के कारण उजड़ गए। किंतु तिलक गांवों में ही डटे
रहे। खुद घूम-घूम कर वह रोगियों की हालत देखा करते। इस प्लेग ने उनके पुत्र की बलि
ली। किंतु तिलक का हृदय अडिग रहा। उस दिन उन्होनें शांत चित्त से “केसरी” का
अग्रलेख लिखा।

 

प्लेग के लिए नियुक्त रंड नामक सरकारी
अधिकारी बड़ा ही उन्मत्त
, अत्याचारी था | लोग उससे चिढ़े हुए थे। भीतर ही
भीतर ज्वालामुखी सुलग रही थी। आखिर विस्फोट होकर रंड का खून हो गया। तब पूना में
पुलिस के अत्याचार प्रारंभ हुए
| इन जुल्मी पर कडा लेख लिख कर “सरकार का
दिमाग तो ठिकाने है
?ऐसा प्रश्न तिलक ने पूछा। इस लेख
पर और पहले दिए हुए भाषणों के आधार पर सरकार
ने मुकदमा
चला
या और १८१७
में पुलिस ने राजद्रोह में तिलक को पहली बार गिरफ्तार किया। उन्हें जमानत पर
छोड़ने को सरकार
तैयार
है या नहीं
, यह जानने के लिए उन्होंने अपने
मित्र को अधिकारियों के पास भेजा। अधिकारियों से मिल कर उनके मित्र यह बताने के
लिए कि उनकी जमानत देने से इंकार कर दिया गया है
|

 

मुकमें
का फैसला हुआ। ढाई साल के श्रमसहित कारावास की सजा मिली। उन्हें राजबंदी नहीं माना
गया। रस्सी आदि साफ करने का काम उन्हें दिया गया। कारागृह का अन्न बड़ा हो खराब होता
था। तिलक के कष्ट को देखकर पहरेदार दुखी हुआ। वह अपने घर से
री, बादाम
आदि पौष्टिक पदार्थ लाकर चोरी से उनकी कोठ
री में
डाला करता था । तिलक के मना करने पर भी उसने अपना हठ नहीं छोड़ा। जेल से छूटते समय
तिलक ने उसे घर आकर मिलने को कहा।

 

भारत में तिलक की किर्ति फैल
चुकी थी। लोग आशा से उनके नेतृत्व की ओर आंखें लगाए हुए थे। तिलक ने जेल से बाहर
आते
ही फिर
सरकारी नीति पर आलोचनात्मक लेख लिखे
| अब तिलक कहने लगे – “भीख मांग कर कुछ
नहीं मिलेगा। ब्रिटिश नौकरशाही के लड़ने के लिए लोगों को तैयार करना चाहिए। उसके
लिए सब कष्ट उठाने और त्याग करने चाहिए।“ ऐसा प्रचार युवकों में करते हुए उन्होंने
लोक संगठन का कार्य किया। शिव स्वतंत्रता के देवता हैं प्रकट रूप से शिव की उपासना
करने के लिए
शिव जयंती
उत्सव की शुरुआत की गई। धर्म के लिए प्रेम उत्पन्न हो
, इसलिए
उन्होंने गणे
उत्सव
शुरू किया। इस प्रकार तिलक लोक सामर्थ्य की उपासना कर रहे थे। उस स

ब्रिटिश वाइसराय लार्ड कर्जन भारत में सत्ताधारी थे। उन्होंने दमन
नीति के
अनेकानेक मार्ग अपनाए। अनेक भाषणों में भारतीयों के विषय में अनादरणीय शब्दों का प्रयोग
किया। १९०५ में लार्ड कर्जन ने बंग-भंग की घोषणा की। इससे बंगाली जनता
असंतुष्ट हुई।
उन्होंने ब्रिटिश माल का बहिष्कार करने का निश्चय किया
|अधिकार
पद छोड़ने का निर्णय जाहिर किया।
ये सब बातें अंग्रेजों को धक्का देने वाली, जलाने
वाली थीं।

तिलक की इस
तूफानी प्र
चार से
ब्रिटिश सरकार चिंतित हुई। ब्रिटिश शासन हिल उठा और उसने तिलक पर शस्त्र उठाया। १९०८
में तिलक पर दूसरी बार राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें
जेल हो
गई।
रकार
ने तिलक पर निम्नलिखित आरोप लगाए –  तिलक हिंसा
का उपदेश
देते हैं, उनके
लेख घातक हैं
, सरकार के बारे में द्वेष उत्पन्न
करने वाले हैं । इस बार ति
क को ६ साल की कालेपानी की सजा हुई। इस सजा
से सारे देश में खलबली मच ग
ई और बम्बई में मिलें बंद हो गई, दुकानें
बंद हो गईं। लोगों की यह पहली स्वतःस्फूर्त ह
डताल थी |

            

तिलक को सरकार ने बर्मा में मांडले जेल में
डाल दिया। इस कारावास में उन्हें लिख । पढ़ने की आज्ञा थी
| खान-पान
और निद्रा के लिए जरूरी समय छोड़ बाक़ी सा
रा दिन वह लिखने-पढ़ने
में ही व्यतीत करते थे। सबेरे वह प्रार्थना करते थे और रात में सोने से पहले भी।
चपन
से ही उन्होंने भगवतगीता का अध्ययन किया था और उससे ब
ड़े प्रभावित
थे। साधारण लोगों को भी वह ग्रंथ सुलभ हो
, वे
उसका अर्थ समझें
, इस उद्देश्य
से उन्होंने जेल में ही “गीता रहस्य” नामक
ग्रंथ की
रचना मराठी में की जिसका हिन्दी अनुवाद हिन्दी भाषा-भाषी प्रांतों में अत्यंत
लोकप्रिय हु
| इसके
अलावा दूसरी अनेक भाषाओं का उन्होने अभ्यास किया
, अनेक
ग्रंथ पढ़े। वह जेल में थे तभी उनकी पत्नी का निधन हो गया। तिलक के जेल में जाते
ही उनको
पत्नी तपस्विनी जैसा जीवन बिताने लगी थीं। पत्नी की मृत्यु से तिलक जैसे
कर्मयोगी
का हृदय भी हिल उठा।

 

 

मांडले जेल में तिलक ने कई ग्रंथ लिखने का
विचार किया था पर वह केवल एक
ही पुस्तक लिख पाए। उनकी दो और पुस्तकें “औरियन”
और “आर्कटिक होम इन वेदाज” वेदों को ईसा से
6000
वर्ष पूर्व का सिद्ध करती हैं
| उनकी दूसरी पुस्तक “आर्कटिक होम इन वेदाज“  तो यह भी बताती है कि आर्यों का
स्त्रोत काकेशस पर्वत नहीं उत्तरी
ध्रुव है। इन दोनों पुस्तकों ने आर्य जाति के
इतिहास के बारे में नई जानकारी दी। आज भी इस विषय में तिलक के विचारों का काफी मान
है ।

 

आखिर तिलक का यह भीषण मांड़ले कारावास साढ़े
चार साल के बाद समाप्त हुआ जो मैक्समूलर आदि यूरोपीय विद्वानों के इंग्लैंड में
आंदोलन का परिणाम था और एक दिन सहसा किसी को पूर्व सूचना दिए बिना ही ब्रिटिश
सरकार ने तिलक को घर पहुंचा दिया। दरवा
जा थपथपाते
ही पहरेदार उठा। किंतु तिलक इतने बदल गए थे और कमजोर हो गए थे कि उसने उन्हें
पहचाना ही नहीं । वह तिलक को
भीतर जाने ही नहों दे रहा था| आखिर
उन्होंने अपने भा
न्जे को
बुला भेजा और तब वह अपने
र में प्रवेश कर सके।

 

तिलक जेल से बाहर तो आ गए फिर भी काफ़ी समय
तक उन पर सरकारी बंधन बने रहे। जब तक तिलक अपना राजकीय दृष्टिकोण नहीं बदलते तब तक
साम्राज्य के शत्रु समझे जाएं
, इस तरह की
सूचना सरकारी गुप्त पत्र के द्वारा अधिकारियों को दे दी गई थी। इसलिए सभी को तिलक
के साथ संबंध रखना कठिन हो गया
| तिलक ने अपना दृष्टिकोण बदला। सरकार भी उनसे
सहायता की आशा करने लगी। तिलक पर
से बंधन उठ गए | तिलक
ने अपने सहकारियों की इकट्ठा किया और उनसे सलाह-मशविरा करके स्वराज्य संघ की
स्थापना की और इस प्रकार इस अवसर से लाभ उठा कर फिर से स्वराज का प्रचार शुरू हुआ।
अब तिलक का गर्जना सारे देश में सुनाई देने लगी। “सब में एकता होनी चाहिए
, स्वराध्य
की
मांग पूरी
होने तक आंदोलन जारी रखना चाहिए।” य
ही उनका
कहना था इसी तूफानी प्रचार में “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं
उसे लेकर रहूंगा।” यह
क्रांतिकारी घोषण
तिलक
ने की
। तब सरकार ने फिर उन्हें जकड़ने के लिए प्रयत्न शुरू
किए
तिलक का ६१
वा जन्मदिन
पू
ना में
भारी उत्साह से
, बड़ी भूमधाम से मनाया
गया।

 

अभी उन्हें मुक्त हुए साल-डेढ़ साल ही हुआ
था। उस समारोह में ही पुलिस आई और राजद्रोह के तीसरे मुक
मे
का नोटिस तिलक को मिला। मित्रों के हृदय को धक्का
लगा | किंतु तिलक शांत थे। उन्होंने
पुलिस अधिकारियों से कहा – “
आज के दिन सरकार की ओर से कुछ उपहार चाहिए ही था
। आप आए
,
ठीक ही हुआ।” मित्रों से कहा, मैं जेल
जाने से आप उतने घबराते क्यों हैं
?  कारागृह का
अर्थ हैं
, मेरा विश्राम स्थान” ।

सौभाग्य से इस मुकद्दमे का फ़ैसला तिलक के
पक्ष में हुआ और वह
जीत गए। बैरिस्टर मुहम्मद
अली जिन्ना ने तिलक की ओर से वकालत की। न्यायाधीश ने निर्णय दि
या की तिलक
के स्वराज्य विषयक भाषण आक्षेपपूर्ण हैं। स्वराज्य की मांग कानूनी ठहराई गई।तिलक
को बड़ा संतोष मिला। इस प्रकार जिस शब्द उच्चारण भी असंभव था वह
शब्द “स्वराज्य”
और उसका आंदोलन तिलक के जीवन में ही सर्वत्र फैल गया। सारे देश में
स्वराज की
घोषणा की। कांग्रेस के उद्देश्य में “स्वराज्य” शब्द स
म्मिलित
हुआ। कांग्रेस ने स्वरा
आंदोलन को सक्रिय रूप दिया। कांग्रेस भारतीय
जनता की शक्ति बनी।

 

स्वराज्य का प्रचार करने के लिए तिलक
इंग्लैंड भी गए। वहाँ उन्होंने इस विषय प
कितने
ही लोगों से बातचीत की। युद्ध समाप्त हो गया था तिलक चाहते थे कि अब स्वराज्य के
लिए जोरदार मांग होनी चाहिए। तिलक ने इंग्लैंड के विरोधी दलों से मित्रता
की और स्वराज्य
की मांग का महत्त्व समझाया। तिलक के संबंध में अंग्रेजों का अज्ञान और गलतफ़हमियां
उनकी इस यात्रा से दूर हुई। ब्रिटेन के लोग और नेता तिलक को भारतीयों की
आकांक्षाओं की प्रत्यक्ष प्रतिमा मानने लगे
| इंग्लैंड से वापस आने पर भारत में स्वराज्य
के वकील के रूप में उनका स्वागत हुआ। तिलक की लोकप्रियता का यह सर्वोच्च शिखर था।
दिनों-दिन वह थकने लगे थे फिर भी स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए उन्होंने चुनाव
लड़ने का निश्चय किया। १९२० के अप्रैल में वे सिंध के दौरे पर गए । इन सब दौरों का
असर उनके स्वास्थ्य पर हो रहा था। उनका शरीर शिथिल होने लगा उन्होंने समझ लिया अब
बहुत दिन नहीं बचेंगे
, मित्रों से भी कहा और वही सच भी
निकला
| जुलाई
में वे ज्वर ग्रस्त हुए। उस समय भी एक मुक
मा
चल रहा था। तिलक ने उसे भी जीता। किंतु ज्वर उनका साथ नहीं छोड़ रहा था। कितने ही
कुशल डाक्टर उनकी सेवा में थे
|

 

१ अगस्त १९२० को सबेरे एक बजे के समय बम्बई
में तिलक का स्वगवास हो गया।
     

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