बेहरामजी मलबारी | Behramji Malabari
एक बार जब ईश्वरचंद्र विद्यासागर के सम्मुख एक आदमी ने अपनी चिंता प्रकट की कि उसका लड़का बड़ा शरारती हो गया है, पढ़ता-लिखता बिल्कुल नहीं और खेलकूद में ही ज्यादा लगा रहता है, तो विद्यासागर ने मुस्कराते हुए उसे आश्वस्त किया – बिल्कुल चिंता न करें। मैं भी अपने बचपन में ऐसा ही था। आम लोगों की जो यह धारणा है कि शरारत कम करनेवाला और खेलकूद से दूर, केवल पढ़ने में ही मन लगाने वाला लड़का आगे चलकर बड़ा आदमी बनता है, वह कभी-कभी गलत साबित होती है। बहराम जी मलबारी का जीवन इसका एक उदाहरण है।
बेहरामजी मलबारी का जन्म
बेहराम जी मलबारी का जन्म १८५३ में बड़ौदा में हुआ था। उनके पिता का नाम धनजी भाई मेहता था, जो बड़ौदा राज्य की नौकरी में क्लर्क थे, किंतु जब वह मर गए तो बहराम जी की विधवा माता ने सूरत जाकर मीरवानजी मलबारी नामक एक दवा विक्रेता से दूसरा विवाह कर लिया जिससे बहराम जी के नाम के साथ “मलबारी” नाम जुड़ गया। बहराम जी के पिता मरते समय पत्नी और बच्चे को बिल्कुल नि:सहाय छोड़ गए थे। घर की आर्थिक हालत बहुत बुरी थी। गुजारा चलाना मुशिकल था। इसी कारण छोटे बच्चे के लालन-पालन के लिए बाध्य होकर बहराम जी की माता को दूसरा विवाह करना पड़ा था, लेकिन उनके भाग में इस विवाह से भी सुख नहीं था। बात यह थी कि बहराम जी के दूसरे पिता मीरवान जी मलबारी दवा विक्रेता होने के साथ-साथ चंदन और मसाले के व्यापारी भी थे।
ये वस्तुएं वह मालाबार में मंगवाया करते थे। उनका एक जहाज समुद्र में डूब गया और सारा कारोबार चौपट हो गया। फलतः निराशा की हालत में उन्होंने बहराम जी की माता का परित्याग कर दिया। बालक बहराम जी और उनकी माता को फिर से दरिद्रता का सामना करना पड़ा।
बेहरामजी मलबारी का बुरी संगत मे पड़ना
जैसा कि स्वाभाविक था, पिताहीन पुत्र को बचपन में सही मार्ग-दर्शन नहीं मिल सका। परिणाम यह हुआ कि १२ साल को उम्र तक बहराम जी खेलकूद में ही मस्त रहे। वह आवारा लड़कों की संगति में पड़ गए और उन्हीं के साथ गली-सड़कों पर घूमने-फिरने लगे तथा खेल-तमाशों और हंसी-मजाक में अपना समय नष्ट करने लगे। जादू के कमाल और हाथ की सफाई में उनकी दिलचस्पी बेहद बढ़ गई और वह दिन-रात उन्हीं के चक्कर में रहने लगे। बुरी सोहबत का उन पर यहां तक असर हुआ कि उनको शराब पीने की भी लत पड़ गई। इस बीच वह गुजरात के चारण-भाट ख्यालियों के विचित्र गीतों से बहुत प्रभावित हुए।
बेहरामजी मलबारी का बुरी संगत छोड़ना
लेकिन एक दिन ऐसा भी आया जब सहसा घटनावश उनका समूचा आवारा जीवन बदल गया और उनकी जिंदगी को एक नया मोड़ मिला। एक दिन की बात है, बहुत रात गए जब वह घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि भयंकर हैजे से ग्रस्त उनकी मां खाट पर पड़ी हुई है। उसके मुख से कोई शब्द भी नहीं निकल रहा है। बस, वह उन्हें देखे जा रही है, दुखी और निराश। अपनी प्यारी मां की यह दशा देखते ही बहरामजी की आंखें लज्जा से नीचे गड़ गई। पसीने में तर-बतर माथा झुक गया। वह समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए। उन्होंने अपनी नजरें पुनः माता पर जो दौड़ाई तो देखा कि जिंदगी और मौत के बीच अटकी हुई उनकी माता आशीर्वाद देने की मुद्रा में उनकी ओर हाथ उठाए केवल देख रही है। इस घटना का असर यह हुआ कि बहरामजी के जीवन से रात का अंधेरा छंट गया और दूसरे दिन सुबह जब नया सूरज उगा तो वह मानों एक रात में ही बालक से बुजुर्ग बन गए थे।
उन्होंने नया रास्ता अपनाने का निश्चय किया तथा अपने सारे पुराने दोस्तों को छोड़ दिया। लेकिन अपनी माता के देहांत के बाद १२ साल के बिगड़े हुए अपने पिछले जीवन को सुधारने में बहराम जी को अगले १२ वर्ष लग गए। इस बीच उन्होंने आत्मसंयम का अभ्यास किया और पढ़ने-लिखने में दत्तचित्त हो गए। इसमें उन्हें सूरत स्थित आयरिश गिरजाघर के कुछ पादरियों से काफी सहायता मिली। उन्होंने घर पर स्कूली किताबें पढ़ने के साथ-साथ परमानंद और आखा, संबल भट्ट और दयाराम तथा अन्य कई गुजराती कवियों की रचनाएं पढ़ीं।
बेहरामजी मलबारी की शिक्षा
विलंब से शिक्षा आरंभ करने के बावजूद बहराम जी अधिक समय तक पीछे नहीं रहे। आगे बढ़ने की उत्कंठा से उन्होंने जी-जान लगाकर पढ़ाई की। दो साल तक दत्तचित्त होकर पढ़ने के बाद वह इतना कुछ सीख गए कि उनके शिक्षकों ने उन्हें मैट्रिक की परीक्षा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। एक दयालु सज्जन ने उन्हें रुपये भी दिए ताकि वह बंबई जाकर परीक्षा में बैठ सकें। वह बैठे और अंग्रेज़ी तथा सामान्य ज्ञान विषयों में सर्वप्रथम रहे, किंतु गणित और विज्ञान उनके प्रतिकूल पड़े, वह इन विषयों में फेल हो गए। उन्होंने तीन बार इस परीक्षा को पास करने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। चौथी बार वह उत्तीर्ण हो गए। इसी बीच वह प्रोप्राइटरी स्कूल में विद्यार्थी-अध्यापक के रूप में काम करने लगे।
इस समय तक बहराम जी का जीवन पूर्णतया सुधर चुका था। उनका मन सद्वृत्तियों की ओर था। माता-पिता के प्यार से वंचित इस इक्कीस वर्षीय युवक को अब किसी के प्यार की आवश्यकता थी। उन्होंने चुपचाप एक लड़की से विवाह कर लिया। आवारा और खानाबदोश बचपन के तमाम कट् अनुभव जब पत्नी के प्यार से धुले तो बहराम जी की वाणी कविता बनकर फूट पड़ी।
बेहरामजी मलबारी की कविताएं | नीतिविनोद
चारण-भाटों के गीतों का आकर्षण उनके मन पर छाया हुआ था ही, जिससे प्रेरित होकर छोटी उम्र में ही वह कविताएं लिखने लगे थे। उन्होंने अपनी कविताओं का संग्रह तैयार कर लिया, लेकिन हाथ में पैसा न था, जो उसे प्रकाशित करा सकें फिर भी दुनिया में गुण-ग्राहकों की कमी नहीं होती। ऐसे ही एक गुण-ग्राहक, गुजराती व्याकरण और भाषा विज्ञान के एक सुपरिचित विद्यार्थी रेवरेंड टेलर थे, जो बहराम जी की कविताओं से बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। उनके प्रयत्नों से १८७५ में बहराम जी का एक कविता संग्रह “नीतिविनोद” नाम से प्रकाशित हुआ, जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई। इस कविता-संग्रह से मलबारी जी गुजराती साहित्य में अमर हो गए। फिर तो कविता का नशा छाता ही गया, रंग आता ही गया।
मलबारी की कलम तेजी से दौड़ने लगी, प्रतिभा का बहुमुखी निखार होने लगा। मलबारी ने मातृभाषा गुजराती को अपना प्रथम पुष्प अर्पित करने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ी में भी लिखना शुरू किया। फलतः उनका एक अँग्रेजी कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ। प्राच्य विद्या के विश्वविख्यात विद्वान मैक्समूलर ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। बहराम जी की प्रतिभा पत्रकारिता की ओर भी झुकी और वह एक बड़े पत्रकार के रूप में विख्यात हुए।
इंडियन स्पैक्टेटर का सम्पादन
१८७६ के आरंभ में बंबई के दो स्कूली विद्यर्थियों और एक क्लर्क के प्रयास सें “इंडियन स्पैक्टेटर” नामक एक सस्ता साप्ताहिक चालू किया गया | जिसके बहराम जी सह-संपादक बने। इसी समय “बांबे गजट” में भी गुजरात और गुजरातियों पर बड़े मनोरंजक रेखाचित्र प्रस्तुत किए गए, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण यह साप्ताहिक दो साल के भीतर ही बंद हो गया। १८८० के आरंभ में उन्होंने पुनः “इंडियन स्पैक्टेटर” का संपादन कार्य संभाला। हालांकि यह पत्र तुरंत ही देश का एक प्रमुख पत्र बन गया और मलबारी की गणना भारत के प्रख्यात पत्रकारों में होने लगी, फिर भी आर्थिक दृष्टि से पत्र और उसके संपादक को कठिन संघर्ष का सामना करना पड़ा। यहां तक कि मलबारी को इस पत्र के लिए लेख लिखने, संपादन करने और प्रूफ पढ़ने के अलावा कभी-कभी उसकी प्रतियों को पैक करके शहर में बाटना भी पड़ता था। इस प्रयास में दिनशा वाचा से उन्हें अमूल्य साहित्यिक और आर्थिक सहायता मिली थी। फिर १८८३ में उन्होंने अपने मित्रों के सहयोग से “वायस आफ इंडिया” नामक एक अन्य मासिक पत्रिका निकाली। इस पत्रिका को निकालने की राय इंडियन नेशनल कांग्रेस के सर विलियम वेडरबर्न ने दी थी और दादाभाई नौरोजी ने इसके लिए करीब १५ हजार रुपये इकट्ठे किए थे, लेकिन यह पत्रिका चली नहीं। बाद में उन्होंने एक और पत्र “चैपिंयन” निकाला, लेकिन यह भी ज्यादा दिन नहीं चल सका।
आखिरकार इन दोनों को “इंडियन स्पैक्टेटर” में ही मिला दिया गया। आगे चलकर १९०१ में मलबारी ने “ईस्ट एंड वेस्ट” नामक एक मासिक निकालना शुरू किया और मृत्यु-पर्यंत वह अपनी इन पत्र-पत्रिकाओं का विकास-प्रकाश देखते रहे।
बेहरामजी मलबारी का समाज सुधार कार्य
उनके जीवन में सद्वृत्तियों का विस्तार बढ़ता ही गया। वह जिस समाज में थे, उसमें कई तरह की बुराइयां थी। अतः वह समाज सुधार की ओर भी झुके और भारतीय महिलाओं को अधिकार दिलाने और उनका उद्धार करने के लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया। उनके मार्ग में बाधाएं आई, फिर भी वह पीछे नहीं हटे। उन्होंने इस संबंध में कई प्रचार पुस्तकें लिखीं। उनकी “नोट्स आन इंफेंट मैरिज एंड इंफोस्स्ड विडोहुड” (बाल-विवाह और विधवाओं की दशा) पुस्तक इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसे उन दिनों हरेक समाज सुधारक बराबर अपने पास रखता था। समाज सुधार के अपने कार्य के संबंध में वह तीन बार इंग्लैंड गए। उनके प्रयास से भारतीय लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र १० से बढ़ा कर १२ वर्ष करने की सिफारिश की गई।
सेवा सदन की स्थापना
उन्होंने “सेवा सदन” नामक संस्था स्थापित की जिसका उद्देश्य भारतीय स्त्रियों के माध्यम से समाज सेवा और शिक्षा तथा चिकित्सा की व्यवस्था करना था। तब से लेकर अब तक सदन की ओर से गरीबों के लिए घर, सताए हुए लोगों के लिए शरण, महिलाओं और बच्चों के लिए औषधालयों, हिंदू, मुसलमान और पारसी बहनों के लिए आश्रम, निशुल्क शिक्षा, पुस्तकालयों, वाचनालयों और निःसहाय अनाथ बालकों तथा पंगू लोगों के लिए सहायता की व्यवस्था है।
कंजंपटिव होम सोसायटी की स्थापना | क्षय रोगियों का आश्रम
उनकी सेवा का दूसरा उदाहरण शिमला पहाड़ियों के बीच धर्मपुर में स्थित “कंजंपटिव होम सोसायटी” (क्षय रोगियों के लिए आश्रम) है जिसको उन्होंने अपना सारा धन अर्पित कर दिया था। इसे १९०९ में खोला गया था और किंग एडवर्ड सैनेटोरियम की स्थापना से तो सैंकड़ों यक्ष्मा पीड़ितों के राहत मिली है। ये दोनों संस्थाएं उनकी महान मानवता का प्रतीक है।
बेहरामजी मलबारी की मृत्यु
सड़कों की आवारागर्दी से उठकर देश के महान विद्वान, कवि, पत्रकार और समाज सुधारक रूप में प्रख्यात होने वाले बहराम जी मलबारी का देहांत १२ जुलाई १९१२ को शिमला में हुआ।