ढाई हजार वर्ष पहले की बात
है | नेपाल की तराई में उन दिनों एक नगर कपिलवस्तु था | वहा शाक्य बसते थे | उनके
पुरोहित गौतम वंश के थे | उन दिनों पुरोहितो के वंश पर भी गोत्र का नाम चलता था |
शाक्य गौतम गोत्री थे |
कपिलवस्तु कोई बड़ा राज्य
नहीं था | वह कोशल के अधीन था | धान वहा खूब होता था | और उस धान का चावल बहुत
बढ़िया होता था | वहा के सरदार का शुद्धोदन नाम भी शायद इसी कारण था | इसी कारण
शुद्धोदन के दुसरे भाईयो के नाम भी चावल के अर्थ से ही सम्बंधित थे, जैसे बलोदन |
यही शुद्धोदन बुद्ध के पिता
थे | माता का नाम माया देवी था | बुद्ध के जन्म के विषय में कथा यह है की माया
देवी ने एक सपना देखा की एक उजला हाथी अपनी सूड में कमल का फूल लिए आकाश से उतरा
और उनकी कोख में समा गया | पुत्र जन के समय माया देवी मायके देवदह चली, और पालकी
से रवाना हुई, रास्ते में लुम्बिनी का वन पड़ता था, वन की शोभा देखने के लिए माया
देवी पालकी से उतर पडी | वही बुद्ध का जन्म हुआ |
उस दिन वैशाख की पूर्णिमा थी |
लुम्बिनी में जिस स्थान पर
बुद्ध जन्मे थे, वहा सम्राट अशोक में एक लाट बनवाई जिसे आज भी देखा जा सकता है |
यह जगह उत्तर पूर्व रेलवे के नौतनवा स्टेशन से बारह मील उत्तर में है और
रूम्मिनदेई कहलाती है |
पुत्र जन्म से माता पिता की
साध पुरी हुई, बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया | ऐसी मान्यता है की सिद्धार्थ के दर्शन के लिए असित ऋषि आए | दर्शन
करके हँसे और फिर रोए | कारण पूछने पर कहा – हंसा इसलिए की महात्मा जन्मा है और
रोया इसलिए की इसके महात्मा होने के पहले की मैं मर जाऊंगा |
सात दिन बाद ही माया देवी
चल बसी | सिद्धार्थ का लालन पालन उन की मौसी और सौतेली माँ, प्रजापती गौतमी ने किया
|
सिद्धार्थ के बचपन के विशेष
पता नहीं चलता है, पर इतना जाना जा सकता है की वह बड़े होनहार थे, थोड़े की दिनों
में उन्होंने बहुत विद्या सीख ली थी और
खेल-कूद से दूर रह कर बैठे कुछ सोचते रहते थे |
देवदत्त उनका चचेरा भाई था
| एक बार उसने तीर से एक हंस मार गिराया | सिद्धार्थ ने उसकी चिकित्सा कर उस हंस की जान बचाई और दोनों भाई दोनों मे हंस को लेकर झगड़ा हुआ |
देवदत्त ने कहा – हंस मैंने गिराया, हंस मेरा है और
सिद्धार्थ ने कहा – हंस मर रहा था इसे मैंने बचाया तो हंस मेरा है, और अंत मे हंस सिद्धार्थ को ही मिला | सिद्धार्थ ने
हंस की सेवा की और जब वह स्वस्थ हो गया तो उसे मुक्त कर दिया |
सिद्धार्थ का लालन-पालन राजसी वैभव के साथ हुआ | सुख
के सभी साधन उनके लिए जुटा रखे थे | तीनों ऋतुओ के लिए तीन
महल थे | जाड़ो का अलग, गर्मी का अलग और
बरसात का अलग लेकिन सिद्धार्थ का मन उचाट रहता था | अपने
पुत्र की यह दशा देखकर शुद्धोंदन ने सिद्धार्थ का विवाह कर दिया यह भी मान्यता है
की शुद्धोंदन ने एक समारोह किया, जिसमे हजारो शाक्य युवतिया
जमा हुई और उनमे से सिद्धार्थ ने अपनी पत्नी चुन ली |
उस युवती का नाम कुछ किताबों ने सदा बेटे के नाम पर
राहुल-माता ही कहा गया है, पर उसके गोपा, यशोधरा, उत्पलवर्णा, भद्रा, बिम्बा
आदि अनेक नाम भी मिलते है |
विवाह के समय सिद्धार्थ सोलह साल के थे | सुख
का सागर लहरा रहा था, पर सिद्धार्थ के मन मे सुख ना था | वह चिंताशील प्रकृति के थे | एक न एक उधेर-बुन
उन्हे सदा लगे रहती थी | एक बूढ़े को देखा तो सोच मे पड गए की
एक दिन मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा | एक रोगी को देखकर सोचने लगे
की यह शरीर रोगो का घर है | मैं भी सदा निरोग नही रह सकता | एक अर्थी देखी तो समझ गए की यह जीवन सदा नही रहने वाला है, एक दिन मुझे भी मरना है | यह सब सोचते-सोचते उनकी
युवा अवस्था का सारा मद चूर हो गया |
एक सन्यासी का खिला हुआ चेहरा देखकर उन्हे घर बार छोडने की
धुन सवार हुई | रोग, बुढ़ापे और मरण के दुखो के छुटकारे
की खोज के लिए उन दिनो यही एक राह मानी जाती थी |
विवाह के तेरह बरस के बाद एक बेटा हुआ | शुद्धोदन
ने खुश होकर पोते का नाम राहुल रखा | सिद्धार्थ ने सोचा – लो,
यह राहुल (बंधन) जन्मा | अभी यदि नही बना तो आगे सन्यासी
बनना कठिन हो जायेगा |
सुख मे सिद्धार्थ सांसरिक सुख तो लेते थे, पर
उन्हे ये खटका सदा लगा रहता था की इस सुख का क्या ठिकाना, आज
है कल नही | इसलिए वह ऐसे शुख की खोज मे थे जो सदा एक सा बना
रहे | मन अशांत रहता था | उन्होने यह
बात किसी से छिपाई नही थी | वह सरल स्वभाव के थे | पत्नी और पिता से भी सन्यास की चर्चा करते रहते थे | कहते है की पिता ने तरह-तरह की बाधाए खड़ी की, पर
पत्नी ने बढ़ावा ही दिया था | योजना बहुत दिनो से बन रही थी
पर राहुल के जन्म ने झटका दिया | सिद्धार्थ ने सोचा अब देर
करना ठीक नही |
रात का समय था | राहुल और राहुल-माता सो रहे थे | तभी वह वैशाली की ओर चल पड़े | अनुप्रिय नामक गाव पहुचकर
उन्होने सन्यासी का वेष धारण कर लिया | उसी गाव की अमराई मे
कुछ दिन एकांतवास किया और मन के शांत हो जाने पर फिर वैशाली की राह ली |
वैशाली उन दिनो प्रसिद्ध नगरी थी | वह
लिच्छवि गण की राजधानी थी | गण के सभी लोग मिल जुलकर राज
करते थे | गण सुखी और सम्पन्न था |
ज्ञान चर्चा भी वहा खूब होती थी | जैन साधुओ का वहा जमघट
रहता था | बड़े बड़े विद्धवान वहा जुडते थे | दूर दूर से विधार्थी आते थे | सिद्धार्थ भी ज्ञान
की खोज मे वहा गए थे | वही उन्होने आलार कालाम नामक ब्रांहण
से ध्यान की विधिया सीखी | पर मन की अशांती मिट नही पाई, भटकना जारी रहा | श्रावस्ती और राजगृह के भी चक्कर
लगाए | कई गुरु किए | गुरुओ से स्नेह
भी खूब पाया | उनके पास जो भी ज्ञान था सब सीख लिए और विदा
लेकर आगे चल दिए |
भीख का अन्न खाने के पहले उबकाई आती थी पर धीरे धीरे मन को
समझा लिए | मगध के राजा बिंबिसार ने अनुरोध किया की जमीन जायदाद देता हू यही बस जाइए | पर सिद्धार्थ न माने | अंत
मे यह वादा कर वहा से आगे बढ़े की बुद्ध बनने के बाद कुछ दिन यही आकार बिताऊगा |
वहा से चलकर गया के पास एक पहाड़ी मे कुछ दिन साधना की | वहा
से नरेंजरा (निजलान) नदी के तट पर उरूबेला गाव मे आ गए | यहा
और भी कई तपस्वी थे | पाँच भिक्क्षु ऐसे भी थे जो साधना मे
सिद्धार्थ की सहायता किया करते थे |
उन दिनो लोग ज्ञान लाभ के लिए ताप किया करते थे | उन्होने
भी यही किया | भूखे रहकर ध्यान करने लगे पर कोई फल न हुआ | पर उन्होने हार न माने सांस रोकी, शरीर को सुखाया
और सुखकर काँटा हो गए, एक दिन तो बेहोश हो गए | गाव की नर्तकिया नाचती और गाती चली जा रही थी की : घुघरू के तारो को बहुत
ढीला न करो, नही तो बजेगी नही और बहुत खीचो भी न नही तो टूट
जाएगी | इससे यह अर्थ उनके मन मे आया की न बहुत तप करना अच्छा और न बहुत ऐश करना | दोनों के बीच का मार्ग अच्छा है, शरीर को न बहुत सताओ और न बहुत आराम दो |
साधना के दिनो मे सुजाता नाम की ग्वालिन उन्हे खीर खिला
जाती थी | वह बेचारी तो उन्हे देवता समझकर अपनी मनौती पूरी करती थी, पर सिद्धार्थ को उस खीर से बहुत सुविधा हुई | इसी
से बौद्ध संसार सुजाता का बहुत ही अहसान मानता है |
उन्होने फिर खाना पीना शुरू कर दिया | साथी
भिक्षुओ ने ताप छोडता देखकर उन्हे छोड दिया और वह से चले गए | देह मे कुछ बल आ जाने पर सिद्धार्थ फिर भिक्षा के लिए निकालने लगे | उरूबेला से हठ कर पास के किसी और वन मे आश्रय लिया |
शरीर स्वस्थ्य होने पर ध्यान भी ठीक होने लगा | ध्यान
की चौथी अवस्था मे पहुचने पर कई कई दिन ध्यान मे ही डूबे रहने लगे | एक बार इसी तरह पूरा दिन और पूरी रात सुध-बुध बिसारे बैठे रहने के बाद
भोर के समय उन्हे ऐसा लगा की गुत्थी सुलझ गई है, जगत का मूल
ज्ञान साक्षात दिख गया है | छ: वर्षो की साधना सफल हुए और सिद्धार्थ
“बुद्ध” हो गए | जहा पर उन्हे वह बोध मिला था, वह जगह आज बोधगया के नाम से प्रसिद्ध है |
बोध मिलने पर भी बुद्ध कुछ दिन वही रहे | इस वन
से उस वन या एक पेड़ से दूसरे पेड़ के नीचे जगह बदलते रहे | इस
तरह उन्होने अपने धर्म, दर्शन, संघ औरे
संघ के नियमो के बारे मे बहुत सारी बाते वही सोच ली |
अब लोगो से मिलना- जुलना भी होने लगा | सात
सप्ताह बाद उत्कल के तपस्सु और भल्लिक नाम के दो सौदागर माल लादे जा रहे थे | पाँच सौ गड़िया थी | कोई गाड़ी अटक गई थी और बुद्ध ने
निकाल दी | उन्होने बुद्ध को खिलाया-पिलाया और उनके उपदेश
सुने | ये सौदागर ही सबसे पहले उपासक बने |
बुद्ध के मन मे विवाद छीडा था | जो
बोध मिला है वो अपने तक ही रखे या संसार को समझाए ? सब हंसी
उड़ाएगे | पर धीरे धीरे संशय हट गया सोचा संसार मे एक तिहाई
लोग ऐसे है जो ज्ञान का लाभ उठा सकते है, पर प्रचार के बिना
अज्ञानी ही रह जाएगे |
फिर सवाल उठा की पहले किसे बताएगे | अपने
गुरुओ का ध्यान आया, पर वे सब मर चुके थे | वह काशी के पास ऋषीपत्तन मृगदाव (सारनाथ) पहुचे |
ऋषीपत्तन पहुचने पर बुद्ध को अपने वे पाँच शिष्य मिले जो
उन्हे तपस्या-भ्रष्ट समझ कर पहले छोड आए थे | बुद्ध ने इन्ही पाँचो के सबसे पहले उपदेश
दिया | इसी को “धम्म चक्क पवत्त्न” – यानी धर्म रूपी पहिये
को चला कहते है | बुद्ध ने इन ब्रांहण को बताया की जीवन मे
एक मार्ग अत्यंत विलास का और दुसरा मार्ग अत्यंत तप का है |
एक तीसरा बर्ग भी है जो न अत्यंत विलास का है और न अत्यंत तप का, बल्कि दोनों के बीच का है | वह तथागत का देखा हुआ
है उसे सुनो, उसे गुनो | बुद्ध का
बताया हुआ यह रास्ता माध्यम मार्गी यानी बीच का रास्ता कहलाता है | इसके आठ सिद्धान्त है – ठीक
दृष्टि रखना, ठीक संकल्प करना, ठीक
बोलना, ठीक कर्म करना, उचित जीविका
अपनाना, उचित प्रयास करना, ठीक स्मृति
रखना और ठीक समाधि लगाना | इन आठ सिद्धांतों पर चलने से
निर्वाण की प्राप्ति होती है | निर्वाण प्राप्ति के बाद न
आदमी जन्म लेता है और न मरता है | धीरे धीरे बुद्ध के
अनुयायों की संख्या बढ्ने लगी | बुद्ध ने शिष्यो का एक संघ
बनाया | यही पाँच भिक्षु बुद्ध के संघ मे पहले सदस्य थे | धीरे धीरे संघ बढ्ने लगा | भिक्षु चारो और फेलकर
उपदेश करने लगे |
ऋषीपत्तन से चलकर बुद्ध उरूबेला पहुचे | वहा
एक हजार साधु और उनके तीन नेता संघ के अनुगामी बन गए |
उरूबेला के बाद राजगृह गए | राजा बिंबिसार ने अपने
हाथो से पूरे संघ को खिलाया-पिलाया और वेणुवन दान मे दिया | यही
सारिपुत्त और मोग्गलान नाम के विद्धवान ब्राम्हण बुद्ध के शिष्य बने | इससे संघ की प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गया | संघ के
नियम उस समय के शाक्य और लिच्छवि गणराज्यो के नियमो के नमूने पर बनाए गए थे | संघ का उद्देश्य था संसार का कल्याण करना, जनता के
दुखो से छुटकारा दिलाना | संघ के साधू सादा जीवन बिताते, भीख मांगकर खाते पीते और द्रव्य रखने से परहेज करते थे |
संघ का दूसरा बड़ा पड़ाव कपिलवस्तु मे पड़ा | शुद्धोदन
और रानीयों समेत सबको बुद्ध ने उपदेश दिया | पत्नी ने राहुल
को आगे करके उसके लिए कुछ मांगा तो बुद्ध ने उस लड़के को भिक्षु बना लिया | उनके पास सन्यास छोड, और था की क्या जो वो उसे दे
सकते | इससे शुद्धोदन को बड़ी ठेस लगी |
उनका दुख देखकर बुद्ध ने यह नियम बना दिया की माता-पिता की आज्ञा के बिना किसी को
भिक्षु नही बनाया जा सकता है |
इस तरह पूरे पैतालीस वर्षो तक बुद्ध नगर-नगर घूमकर उपदेश
देते रहे | उनका समय घड़ी की तरह सदा नियमो के साथ संसार के कल्याण के
कामो मे लगा रहता था | जिस आदमी के आगे बड़े बड़े सेठ और राजा
महाराजा झुका कराते थे, वह नियम से रोज सुबह भीख मागने
निकलता और चुपचाप आँखे झुकाए किसी के
दरवाजे पर खड़े हो जाता | पात्र भरते ही लौटकर भोजन करता, भिक्षुओ को ध्यान और काम के विषय मे बताता, सबके
भोजन की पूछताछ करता, दोपहर को ध्यान करता और जनता को उपदेश
देने के बाद ध्यान करता हुआ सो जाता | बुद्ध के मानव प्रेम
ने ही उन्हे उपदेश और प्रचार के कठिन राह पर बढ़ाया |
बुद्ध ने साहस किया | रूढ़ियो पर चौतरफा चोटे की | अपने उपदेश उन्होने साधारण भाषा मे दिए जिसे सब समझते थे पंडित भी और
गवार भी | उनके अनुगामियो मे बाद मे बहुत सारी बुराइया आ गई
और बौद्ध धर्म के पैर भारत के उखड़ गए | और उस समय उन्होने
समाज को नया रास्ता दिखाया |
भगवान के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से मानव निकम्मा
बन जाता है | बुद्ध ने कहा – तुम अपने के आप ही उबार सकते हो और डुबो सकते
हो | उन्होने कर्म की प्रेरणा दी | देश
को सक्रिय किया और जनता को अपने पैरो पर खड़ा होने को ललकारा |
बुद्ध ने बुद्धि को महत्त्व दिया | कहा – तर्क पर भरोसा करो |
जो सच लगे वही मानो | और मेरी बात भी उतनी ही मानो जितनी
तुम्हारी समझ मे आ सके, जितनी तुम्हारी बुद्धि की कसौटी पर
खरी उतरे |
बुद्ध ने ज्ञान का द्वार सबके लिए खोल दिया | स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े सब अमृत के भागी बने | बुद्ध ने कट्टरता
का भूत भगा दिया | दूसरों के विचारो का आदर करना भारत का
स्वभाव बना दिया | बौद्ध मत संसार मे शांति का एक अमोघ शक्ति
रहा है, इसलिए की वह सह जीवन पर आधारित है |
बुढ़ापे मे बुद्ध संघ की ओर से उदासीन रहने लगे थे | संघ
मे फूट पड गई थी | स्वार्थी लोग भर गए थे | अनेक प्रिय शिष्य मर चुके थे | बुद्ध भी समझ चुके
थे की अब अंत निकट है, इसलिए संघ से कुछ खीचे खीचे से रहते
थे |
अस्सी बरस के बुद्ध के बूढे शरीर को पेचिश ने धर दबाया | कुसीनारा
(कसया, जिला देवरिया) शाल वन मे उन्होने दो पेड़ के बीच आसान
लगवाया और लेटकर अंतिम समाधि लगा ली |
अंतिम समय आया जानकार शिष्य रोने लगे, तब
अपने प्रिय शिष्य आनंद को पास बुलाकर उपदेश दिया – आनंद, रोओ
मत और निराश न हो | जो जन्मा है उसका अंत भी अवश्य होगा | यह मत सोचो की मेरे बाद तुम्हारा कोई गुरु नही होगा | मैंने जो उपदेश दिए है वही तुम्हारे गुरु होंगे |
बुद्ध के मृत्यु के काफी समय बाद बौद्ध धर्म की दो मुख्य
शाखाए हो गई – थेरवाद और महायान | बौद्ध
धर्म के बारे मे अधिकतर जानकारी हमे पाली ग्रंथ “त्रिपिटक” मे मिलती है | आज एक तिहाई दुनिया बौद्ध धर्म को मानती है |
बुद्ध ने न तो मंदिर बनाए
और न ही स्मारक | उन्होने न कोई देश जीता और न कोई साम्राज्य | उन्होने लोगो के दिलो को जीतने की कोशिश की इसलिए आज भी उनकी ज्योति
संसार मे जगमगा रही है |