भाई वीर सिंह की जीवनी
Bhai Vir Singh Biography
भाई वीर सिंह पंजाब के एक महान कवि थे। भारतीय संत कवियों की परंपरा में उनका स्थान है। पंजाबी कविता को उन्होंने एक नया रूप दिया। गुरु नानकदेव के पद चिह्नों पर चलकर मनुष्य मात्र की भलाई उनका जीवन था। मनुष्य मात्र में किसी भी प्रकार के भेद- भाव के वह सख्त विरोधी थे। “मानुस की जात सबै एकै पहचानबो” उनके जीवन का मूल मंत्र था।
संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
पूरा नाम | भाई वीर सिंह |
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जन्म तारीख | ५ दिसंबर, १८७२ |
जन्म स्थान | अमृतसर |
पिता का नाम | डा.चरन सिंह |
पिता का कार्य | प्रसिद्ध साहित्यकार |
शिक्षा | हाई स्कूल उसके बाद घर पर अधध्यन |
कार्य | सिंह सभा आंदोलन के सदस्य, साप्ताहिक पत्र खालसा सामाचार के संपादक, लेखन(कविता,उपन्यास, कहानी),संत |
मृत्यु तारीख | १० जून १९५७ |
मृत्यु स्थान | अमृतसर |
उम्र | ८५ वर्ष |
मृत्यु की वजह | सामान्य |
भाषा | पंजाबी,संस्कृत, फारसी,अंग्रेजी, |
उपाधि | पद्म विभूषण, साहित्य अकादमी से पुरस्कार |
भाई वीर सिंह महाराजा रणजीतसिंह के दीवान कौड़ामल के घराने से संबंध रखते थे । उनका जन्म ५ दिसंबर, १८७२ को अमृतसर में हुआ और वह पूर्णतः धार्मिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक वातावरण में पले। उनके पिता डा.चरन सिंह अपने समय के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। अत: साहित्य साधना की लगन उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली। बचपन से की उन्हें अपने घर पर साहित्यिक गोष्ठियों में रचनाएं सुनने को मिलती थीं। साहित्य और धर्म की चर्चा में भी वह अक्सर भाग लिया करने थे इस प्रकार उनका जीवन ही साहित्यमय हो गया था।
उनकी बुद्धि बड़ी तेज थी और उनकी लगनशीलता का तो कहना ही क्या। पिता की ओर से भी उन्हें आगे बढ़ने के लिए पूरा-पूरा प्रोत्साहन मिला। हाई स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद वह घर पर ही अध्ययन करने लगे और संस्कृत, फारसी तथा अंग्रेजी में उन्होंने अच्छी योग्यता प्राप्त की। सिख धर्म, साहित्य और इतिहास में भी वह पारंगत हुए।
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इसके बाद वह कर्म-क्षेत्र में कूदे। उन दिनों सिक्खों में सामाजिक और राजनीतिक जागृति के लिए “सिंह सभा आंदोलन” उठा था । धीरे-धीरे भाई वीर सिंह इस आंदोलन के प्राण बन गए। उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक साप्ताहिक पत्र “खालसा सामाचार” का प्रकाशन भी आरंभ किया।
भाई वीर सिंह ने कविता, उपन्यास, कहानी, सब कुछ लिखा। पंजाबी साहित्य के अधिकांश अंगों को उन्होंने अपनी लेखनी से समृद्ध किया। कई बहुमूल्य प्राचीन ग्रंथो का भी उन्होंने संपादन किया।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि बालकृष्ण शर्मा “नवीन” ने उनकी कुछ कविताओं का बहुत ही सुंदर अनुवाद किया है। यहां उनके कुछ अनुवाद और भाई जी की कविता के विषय में उनके विचार साभार उद्धृत किए जाते हैं। भाई जी की “किक्कर” नामक कविता प्रसिद्ध है। “किक्कर” अर्थात “बबूल के वृक्ष” ने इस छोटी सी कविता में अपनी आत्मकथा कही है।
भाई जी ने गांधी जी के निर्वाण पर भी एक लंबी कविता लिखी है। इसे पढ़ कर नवीन जी को ऐसा लगा कि गांधी जी की महायात्रा पर लिखे गए काव्यों में भाई जी की यह रचना गांधी जी एक उच्चकोटि का काव्य है |
भाई जी की महान कल्पना शक्ति का द्योतक है, वरन वह उनके काव्य-कौशल, गठन सामर्थ्य, गहरी अनुभूति एवं उनकी शब्द-सामंजस्य-शक्ति का भी परिचायक है।
भाई वीर सिंह सिर्फ कवि ही नहीं थे। वह एक संत की तरह पूजे भी जाते थे। उनके इर्द-गिर्द हमेशा भक्तों का जमावड़ा रहता था, हालांकि वह बहुत ही शांतिपूर्ण एवं एकांत जीवन बिताना पसंद करते थे, दुनिया के कोलाहल से दूर रहना ही उन्हें भाता था। दिखावे से उन्हें घृणा थी।
वह चुपचाप अपने कर्त्तव्य का पालन करने में विश्वास करते थे | यह उनकी कर्त्तव्य निष्ठा ही थी जिसने कर्मक्षेत्र से उन्हें कभी संन्यास नहीं लेने दिया। सामाजिक कामों में वह अंतिम समय तक भाग लेते रहे। जब भी देश और जाति की पुकार उठती, वह पूरी तन्मयता और त्याग भावना से काम में जुट जाते।
देश की महान विभूति महात्मा गांधी के प्रति भाई वीर सिंह जी बहुत ही श्रद्धा भावना रखते थे। गांधी जी की मृत्यु पर उनका कोमल हृदय बुरी तरह तड़प उठा था और कई दिनों तक वह खोए-खोए निर्वाक बने रहे थे। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपिता की मौत ने उनके कवि हृदय को कितना आघात पहुंचाया था |
भाई वीर सिंह जी ८५ वर्ष की सफल आयु भोग कर १० जून १९५७ को अमृतसर मे स्वर्ग सिधारे।
भारत सरकार ने उन्हें “पद्म विभूषण” की उपाधि प्रदान की थी। साहित्य अकादमी ने भी “मेरे साइयां जियो” काव्य संग्रह पर पांच हजार का पुरस्कार देकर उन्हें सम्मानित किया था |