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भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय | भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रमुख रचनाएं | भारतेंदु हरिश्चंद्र का व्यक्तित्व | Bhartendu Harishchandra

भारतेन्दु हरिश्चंद्र | 

Bhartendu Harishchandra


तिहास
प्रसिद्ध सेठ-अमीचंद के वंश में ९ दिसम्बर १८५० को हरिश्चन्द्र का जन्म हुआ
| जो
बाद में भारतेन्दु नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके पिता गोपालचन्द्र उपनाम “गिरिधर दास”
स्वयं कवि थे। उनका नियम था कि जब तक वह भक्ति के पांच पद नहीं बना लेते तब तक
खाना नहीं खाते थे। उन्होंने लगभग ८० ग्रंथों की रचना की थी। ऐसे विद्वान पिता के
पुत्र होने के कारण हरिश्चन्द्र को जन्म से ही ऐसा वातावरण मिला जहां कविता और साहित्य-चर्चा
का ही बोलबाला था।

 

हरिश्चन्द्र को माता-पिता का प्यार अधिक समय
तक नहीं मिल पाया। पाच
वर्ष की आयु में ही उनकी माता का स्वर्गवास हो गया था
और दस वर्ष की आयु में पिता का। उनके पिता भांग बहुत पिया करते थे। इसी से उन्हें
जलोदर हो गया था और इस
कारण से उनकी मृत्यु हुई।

 

विद्वान पिता के
घर मे जन्म
लेने के कारण हरिचन्द्र
की पढ़ाई बचपन से ही आरंभ
हो गई थी | हिन्दी, उर्दू और अग्रेज़ी तीनों
भाषाओं की शिक्षा
न्हें मिली। १५ वर्ष की आयु मे उनको अपने घरवालो के साथ
जगन्नाथपुरी जाना पड़ा
, जिससे उनकी पढ़ाई छूट गई | यह पढ़ाई एक बार छूटी तो
फिर उसका सिलसिला कभी नहीं जुड़ सका।

हरिश्चंद्र का विवाह
१०
वर्ष की अवस्था में ही हो गया था उनकी पतनी मन्नोंदेवी
थीं
, एक बहुत बड़े घर की लड़की थी,  परंतु
साहित्य के प्रति उनकी कोई रुचि नहीं थी। इसी
से उन दोनों का घरेलू जीवन बड़े दुख
में बीता। हरिश्चन्द्र को तो हर समय लिखने-पढ़ने
की पड़ी रहती थी और वह घर की
किसी भी बात की ओर ध्यान नहीं देते थे। हां
, उन्होंने
अपनी पुत्री विदध्यावती
को
बंगला और संस्कृत की अच्छी शिक्षा दिलाई थी।

 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र
थी ब
हुत रसिक प्रकृति के। उनके
पर कवि सम्मेलन
, साहित्य, गोष्ठी औरे नाटक-मंडली हमेशा ही
जमी रहती थी। स्वयं भी वह अच्छे अभिनेता
, कवि तथा लेखक थे | बुढ़वा मंगल
के मेले की तैयारी बड़ी धूमधाम से करवाते थे।
अच्छी ख़ासी प्रतियोगिता रहती थी | वह
अपने मित्रों के लिए बड़े
से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहते थे | उस समय हिन्दी साहित्य
के जितने भी लेखक अथवा कवि थे
, सभी से हरिश्चंद्र की मित्रता थी | वह कितने
ही अख
बारों
को सहायता दिया करते और कितने ही
लेखको की धन से मदद कर हिम्मत बंधाया करते थे।

 

हरिश्चंद्र बड़े
ही ख़र्चीले
और परोपकारी व्यक्ति थे। उन्होंने बड़ी रईसी व्यवहार पाई
थी |  इस आदत से सब घरवाले उनसे नाराज रहते थे | इसलिए
जब उनका छोटा भाई गोकुल चन्द बालिग
हुआ तो एक दिन खजाने के दरवाजे पर बैठा गया। जब भारतेन्दु खोलने
पहुंचे तो
उसने उन्हे अंदर
नही जाने दिया और कहा
– आपने अपने हिस्से का सब धन
खर्च कर
दिए है यह मेरे
हिस्से का है
|

        

हरिश्चन्द्र की दयालुता के कारण जनता उनको
बहुत चाहती थी अतः जब राजा शिवप्रसाद को सितारेहिन्द की पदवी मिली तो उसने सोचा कि
अपने हरिश्चन्द्र को भी कोई उपाधि दी जाए। इसलिए सब लोगों ने यह तय किया कि उन्हें
भारतेन्दु अर्थात् देश के चांद की उपाधि दी जाए और तभी से

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कहलाने लगे। भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य की बहुत बड़ी सेवा
की। उन्होंने हिन्दी भाषा की डूबती हुई नौका का मानो केबट बनकर उबारा और अनेक
प्रकार की पुस्तकें लिखकर हिन्दी साहित्य के भंडार को बढ़ाया। कविता
, लेख
सभी कुछ उन्होंने लिखा। भारतेन्दु हरिश्चन्दर ने “हरिश्चन्द्र मैगजीन
नाम
की एक मासिक पत्रिका निकाली
, जिसका नाम
कुछ अंकों के बाद “हरिश्चन्द्र चन्द्रिका”
हो गया।
हिन्दी गद्य का सुधरा हुआ रूप सबसे पहले इसी पत्रिका में सामने आया। भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र के बाद ही हिन्दी गद्य में चमक आने लगी। उन्होंने गद्य के लिए खड़ी बोली
को अपनाया। आगे चल कर तो पद्य की भाषा भी खड़ी बोली ही बन गई।
जिस प्यारी
हिन्दी को जनता ने अपनाया उसके दर्शन इसी पत्रिका में हुए थे।

 

हरिश्चन्द्र के जीवनकाल में ही लेखकों और
कवियों का एक खासा मंडल चारों औ
तैयार हो गया था, जिसमें
मुख्य थे पं० बदरीनारायण चौधरी
, पं०
प्रतापनारायण
मिश्र, पं०
बालकृष्ण भट्ट आदि।

 

हरिश्चन्द्र बड़े देशभक्त थे इसलिए उन्होंने
देशभक्ति से ओत-प्रोत काफी साहित्य लिखा है। उन्हें यह देख कर बड़ा दुःख होता था
कि मेहनत तो हमारे देशवासी करते हैं
परंतु देश
का सारा धन धीरे-धीरे विलायत चला जा रहा है। भारत की दीन दशा को देख क
उन्होंने
लिखा है :

अंग्रेज राज सुख राज सजे सब भारी |  

पै धन विदेश चलि जात है अति ख्वारी ||

ताहु पै महंगी काल रोग विस्तारी |

दिन-दिन दूने दुख ईस देस हा हा री ||

सब के ऊपर टिक्कस की आफत आई |

हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई ||

अंग्रेजी पढ़कर लोग अपने देश की बातों को
बुरा समझते थे और साहबियत के पीछे पड़े रहते थे
, उन्हें
भारतेन्दु घृणा की दृष्टि से देखते थे। वह कहते थे कि हमें अपने देश की बुराइयों
जैसे बाल-विवाह
, विधवा की दुर्दशा और गुलामी की
भावना को दूर करना चाहिए न कि हम आंख मुंद कर दूसरों की नकल करते रहें।

 

भारतेन्दु जी जनता के कवि थे। उन्होंने
जन-कल्याण के लिए साहित्य रचा। बाल-विवाह से हानि
, अंधविश्वास
का थोथापन
, पर्दे से बुराई, छुआछूत
के ढोंग
,
फैशनपरस्ती आदि की बुराइयां दिखाते हुए
उन्होंने ऐसे गीत रचे जो गांव-गांव तक उनका संदेशा ले
कर पहुंच
गए। समाज-सुधार की आवश्यकता
, स्वदेशी
वस्तुओं के व्यवहार से देश को लाभ-ये विषय उन्होंने लोकप्रिय गीतों की शैली में
लिखे तथा अन्य कवियों को भी लिखने के लिए उत्साहित किया। उन्होंने विवाह
, डोली
तथा तीज-त्यौहारों पर गाने के लिए सुंदर गीत लिखे।

 

भारतेन्दु से पहले हिन्दी भाषा में कोई अच्छा
नाटक नहीं लिखा गया था । उन्होंने सबसे पहले कुछ मौलिक नाटक लिखे जिनमें
निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति
, चन्द्रावली, विषस्य
विषमौषधम
, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, अंधर
नगरी
,
प्रेमयोगिनी, सती
प्रताप (अधूरा) और उन्होंने संस्कृत
, बंगला तथा
अंग्रेजी से कुछ नाटकों के अनुवाद भी किए।

 

नाटक, गद्य-पद्य
सभी क्षेत्रों में उनकी गति थी। अड़चनों के बीच भी वह हमेशा लिखते रहते थे। सरकार
की बुराई करने के कारण उसने इनसे नाराज़ होकर इनके अखबार बंद करवा दिए थे।
फिजूलखर्ची करने के कारण घरवालों ने पैसा देना बंद कर दिया था। इसलिए वह बीमार
रहने लगे। इन्हें तपेदिक रोग हो गया था
, जिससे ६
जनवरी १८८५ को हिन्दी साहित्य का यह चांद सदैव के लिए डूब गया मृत्यु के समय इनके
मुंह से अंतिम

शब्द निकला था राधा
कृष्ण
       

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