मदनमोहन मालवीय की जीवनी
Madan Mohan Malaviya Biography
महात्मा गांधी स्वयं को मदनमोहन मालवीय का पुजारी मानते थे और उन्हे नवरत्न । वह कहा करते थे – “मैं मालवीय जी से बड़ा देशभक्त किसी को नहीं मानता, मैं सदैव उनकी पूजा करता हूं।“
कई लोग मालवीय जी के नाम के बड़े सुंदर अर्थ करते हुए कहते थे कि वह मद न, मोह न मालवीय हैं, यानी ऐसा व्यक्ति जिसमें मद नहीं और मोह नहीं। सचमुच ही मदनमोहन मालवीय में मद या मोह नहीं था। इसलिए लोग उन्हें “महामना” कहते थे। एक लेखक ने मदनमोहन के बारे में ठीक ही लिखा है कि प्राचीनता की दृष्टि से यदि उनको भारत का महर्षि कहा जा सकता था तो आधुनिकता की दृष्टि से उनको राजर्षि कहा जा सकता था पर मदनमोहन मालवीय तो अपने को “भारत का भिखारी” मानते थे।
संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
पूरा नाम | पंडित मदन मोहन मालवीय |
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जन्म तारीख | २५ दिसंबर, १८६१ |
जन्म स्थान | प्रयाग |
धर्म | हिन्दू |
पिता का नाम | ब्रजनाथ व्यास |
माता का नाम | मूना देवी |
पत्नि का नाम | कुंदन देवी |
भाई / बहन | ६ भाई व बहन |
संतान | . |
पिता का कार्य | राधाकृष्ण के परम भक्त, कथावाचक |
माता का कार्य | गृहणी |
शिक्षा | श्रीधम्म ज्ञानोपदेश पाठशाला(आरंभिक शिक्षा), इलाहाबाद जिला स्कूल, म्योर सेंट्रल कालेज(एफ.ए. पास), एल.एल.बी. |
कार्य | समाज सेवा और राजनीति, हिंदुस्तान पत्र का संपादन, अंग्रेजी का दैनिक पत्र “लीडर” का संपादन,चौरीचौरा कांड के वकील काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय)की स्थापना, हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति, लाहौर कांग्रेस के प्रधान(१९०९) गोलमेज सभा में वह भारत के प्रतिनिधि हिंदी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक |
आमतौर पर लिए जाने वाला नाम | मदन मोहन मालवीय |
मृत्यु तारीख | १२ नवंबर १९४६ |
मृत्यु स्थान | बनारस |
उम्र | ८५ वर्ष |
भाषा | हिन्दी,अँग्रेजी,संस्कृत |
मदन मोहन मालवीय का जन्म २५ दिसंबर, १८६१ को प्रयाग में हुआ था| उनके पिता का नाम ब्रजनाथ व्यास और माता का नाम मूना देवी था। वो अपने माता-पिता के सात संतानों मे से पांचवे थे | ये लोग मालवा से आए थे, इसलिए मालवीय कहलाते थे। ब्रजनाथ व्यास राधाकृष्ण के परम भक्त थे। वह बड़े अच्छे कथावाचक थे। मूना देवी बड़े सरल स्वभाव की स्त्री थीं, पति-पत्नी अपने बच्चों के साथ एक मामूली से मकान में रहते थे। मकान कच्चा-पक्का और काफी पुराना था।
मुहल्ले में श्रीधम्म ज्ञानोपदेश पाठशाला थी। मदनमोहन मालवीय की आरंभिक शिक्षा वहीं हुई। पाठशाला के अध्यक्ष हरिदेव नाम के एक संन्यासी थे। इसलिए लोग उसे हरदेव गुरु की पाठशाला भी कहते थे। पाठशाला में सनातन धर्म की शिक्षा अनिवार्य थी, जिसका बालक मदनमोहन पर बड़ा गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा।
इसके बाद मदनमोहन को स्कूल भेजा गया। स्कूल की फीस ज्यादा नहीं थी, पर मदनमोहन मालवीय के माता-पिता वह भी नहीं दे सकते थे माता के हाथ में सिर्फ चांदी का एक कड़ा था जिसे वह पड़ोस के एक घर में गिरवी रख कर बच्चे की फीस देती थीं। महीने के भीतर ही जब कथा से पैसा आ जाता था तो वह कड़े को छुड़ा लाती थीं| पर भाग्य की बात देखिए कि जिस बच्चे की पढाई के लिए फीस के लाले पड़़े रहते थे उसने आगे चलकर हिंदू विश्वविद्यालय जैसे विशाल विद्यालय की स्थापना की, जिसमें हजारों विद्यार्थियों को विद्यादान दिया जाने लगा।
अंग्रेजी की ओर मदनमोहन का झुकाव देखकर उनके पिता ने उन्हें इलाहाबाद जिला स्कूल में भेज दिया। १८७९ में एंट्रेस की परीक्षा पास कर मदनमोहन ने म्योर सेंट्रल कालेज में नाम लिखवाया और वहीं से एफ.ए. पास किया।
बी.ए. करने के बाद वह गवर्नमेंट हाई स्कूल में, जहां उन्होंने शिक्षा पाई थी, केवल 40 रु. महीने पर अध्यापक बन गए।
लगभग २० वर्ष की आयु में मदनमोहन मालवीय का विवाह पंडित आदित्यराम की कन्या कुंदन देवी के साथ हो गया। पंडित आदित्यराम संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने मालवीय जी के संस्कृत ज्ञान से प्रभावित होकर ही उन्हें अपना दामाद बनाया था ।
कुछ ही दिनों में मदनमोहन मालवीय समाज सेवा और राजनीति की ओर खिंचने लगे। १८८५ में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और अगले वर्ष के अधिवेशन में उन्होंने बड़ा जोरदार भाषण दिया और “हिंदुस्तान” पत्र का संपादन करने लगे। यह पत्र कालाकांकर नरेश का था। बाद में प्रयाग से ही “अभ्युदय” नाम का एक साप्ताहिक पत्र निकालने का भार भी मालवीय जी पर पड़ा। लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने सबसे बड़ा काम यह किया कि कुछ सहयोगियों की सहायता से १९०९ में प्रयाग से अंग्रेजी का दैनिक पत्र “लीडर” निकालना शुरू किया।
कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह मालवीय जी से बहुत स्नेह करते थे । वह मालवीय जी के गुणों और उनके स्वभाव से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने मालवीय जी को वकालत पढ़ने के लिए मजबूर किया और पढ़ाई के लिए बराबर दो सौ रुपया खर्च देते रहने का वायदा किया। मालवीय जी वकालत पढ़ना नहीं चाहते थे पर इच्छा न रहते हुए भी वह प्रेमभरा अनुरोध न टाल सके। एल.एल.बी. करने के बाद उन्होंने हाईकोर्ट में वकालत शुरू कर दी। वकालत में उन्होंने थोड़े से ही वर्षों में अच्छा नाम कमा लिया। लेकिन वकालत में उनका मन नही था। अच्छे-अच्छे मुकदमों को भी वह दूसरे लोगों को दे दिया करते थे। मालवीय जी ने अपने मुकदमे तेज बहादुर सप्रू जैसे व्यक्ति को देकर आगे बढ़ाया था।
वकालत के क्षेत्र में मदनमोहन मालवीय की सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फांसी से बचा लेने की थी। फरवरी १९२२ में गोरखपुर जिले के चौरीचौरा नाम के स्थान में एक सनसनीपूर्ण घटना घटी। जनता ने पुलिस थाना जला दिया। मुकदमा चलने पर सेशन जज ने सभी अभियुक्तों को फांसी की सजा दे दी। जब मामला हाईकोर्ट में गया तो पैरवी के लिए मालवीय जी को बुलाया गया। मालवीय जी ने इतनी अच्छी बहस की कि सबके सब अभियुक्तों को साफ बचा लिया।
मदनमोहन मालवीय के जीवन का सबसे बड़ा काम काशी हिंदू विश्वविद्यालय(बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) की स्थापना का था। वह स्वयं बड़ी गरीबी की हालत में पढ़े थे और इस गरीब देश के साधारण विद्यार्थियों की समस्याएं अच्छी तरह समझते थे। साथ ही देश के विश्वविद्यालयों पर पाश्चात्य सभ्यता का गहरा रंग भी उन्हें अखरता था। वह चाहते थे कि देश में कम से कम एक ऐसा विश्वविद्यालय जरूर हो, जिस पर भारतीय संस्कृति की छाप हो। सौभाग्य से उन्हीं दिनों एनी बेसेंट और दरभंगा नरेश भी एक विश्वविद्यालय खोलने का स्वप्न देख रहे थे इससे मालवीय जी का काम बहुत कुछ सरल हो गया। हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की योजना तेजी से आगे बढ़ने लगी। मालवीय जी विश्वविद्यालय के लिए झोली लेकर निकल पड़े और देश के कोने-कोने में घूमने लगे। अंत में ४ फरवरी, १९१६ को बसंत पंचमी के दिन हिंदू विश्वविद्यालय की नींव रखी गई।
पूरे बीस वर्ष तक यानी १९१९ से १९३९ तक मालवीय जी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इस विश्वविद्यालय ने बड़ी तेजी से उन्नति की और शीघ्र ही इसकी गिनती देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में होने लगी। युवकों की उचित शिक्षा के लिए मदनमोहन मालवीय ने हिंदु विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। उसके उद्देश्य बताते हुए उन्होंने अपने एक दीक्षांत भाषण में कहा था – “हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना इसलिए की गई है कि यहां के छात्र विद्या भी प्राप्त करें और साथ ही अपने धर्म और देश के भी सच्चे सेवक बनें। यह विद्यालय दीनों के लिए है। यहां के द्वार सबके लिए खुले हैं। मैं चाहता हूं कि यहां आकर कोई लौट न जाए। सच्चरित्रता हमारे विश्वविद्यालय का मूल मंत्र है और यहीं हमारी शोभा है। केवल डिग्री देने के लिए तो बहुत से विद्यालय देश में हैं। हम प्रत्येक छात्र को शुद्ध, सात्विक, तेजस्वी और वीर पुरुष और प्रत्येक कन्या को वीर माता बनाना चाहते हैं, जो ईश्वर में विश्वास करे, प्रत्येक प्राणी का आदर करे, वीरता के साथ अन्याय का विरोध करे और आत्म-सम्मान तथा सच्चाई के साथ जीविका का उपार्जन करता हुआ अपना, अपने समाज का और अपने देश का कल्याण कर सके।“
मदनमोहन मालवीय में देश प्रेम, सच्चाई और त्याग की भावना कूट-कूट कर भरी थी। उनकी बोली में अजीब मिठास थी। उनकी वाणी बहती गंगा के समान यो जिससे कितने ही लोगों को प्रेरणा मिली थी। जब वह भाषण देने लगते थे तो लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। जिन लोगों को उनके साथ काम करने का मौका मिलता था वे उनसे प्रभावित हुए बिना न रहते थे। उनके मुख पर बड़ा तेज था। उनको आंखें छोटी, किंतु बड़ी पैनी थीं। वह साफा पहनते थे और गले में दुपट्टा डालते थे। मालवीय जी को किसी तरह की गंदगी से बड़ी चिढ़ थी। वह दाग-धब्बे रहित सफेद चिट्टे कपड़े पहनना पसंद करते थे। उनकी एक बड़ी खूबी यह थी कि मेहनत तो वह खुद करते थे और जब कीर्ति पाने का समय आता तो दूसरों को सामने कर देते थे। अपनी ख्याति से वह जहां तक हो सकता बचने का ही प्रयत्न करते थे।
अपने गुण के कारण आजादी की लड़ाई के दिनों में जब कांग्रेस के दूसरे नेता जेल चले जाते थे, तो मालवीय जी उन सबकी जगह ले लेते थे साधारणतः वह कांग्रेस के गरम दल और नरम दल के बीच एक पुल का काम कर देते थे |
मालवीय जी सच्चे वैष्णव और विष्णु भक्त थे। लेकिन अपने धर्म-कर्म और अपनी हिंदुत्व की भावना को उन्होंने कभी भी राष्ट्र के हित में रुकावट नहीं बनने दिया। उनका व्यक्तित्व इतना ऊंचा था कि लोग उनसे बरबस प्रेम करते थे। जिन महापुरुषों के कारण देश को स्वतंत्रता मिली है, उनमें मालवीय जी का बहुत ऊंचा स्थान है।
राजनीति के क्षेत्र में भी मदनमोहन मालवीय को काफी यश मिला। वह १९०९ में लाहौर कांग्रेस के और १९१८ में दिल्ली प्रधान चुने गए। असहयोग आंदोलन में वह दो-चार बार जेल गए। इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल और सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के छ:-छ: वर्ष तक सदस्य रहे। १९३१ में होने वाली दूसरी गोलमेज सभा में वह भारत के प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड गए। सन १९२३ और १९३६ में दो बार वह हिंदू महासभा के प्रधान चुने गए। इतना ही नहीं, हिंदी की प्रमुख संस्था, हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना भी उन्होंने ही की थी और इस संस्था के कई बार अध्यक्ष भी चुने गए थे। १९३४ में उन्होंने सांप्रदायिक फैसले के विरुद्ध कांग्रेस संसदीय बोर्ड से इस्तीफा दे दिया और नेशनलिस्ट पार्टी कायम की। अब मालवीय जी की अवस्था अधिक हो चली थी। धीरे-धीरे उन्होंने अपने को राजनीति से लगभग अलग कर लिया।
बहुत सी बातों में वह कट्टर हिंदू थे। वह तिलक लगाते थे और संध्या-पूजा में विश्वास करते थे। गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने जब इंग्लैंड गए थे, तो साथ में गंगाजल ले गए थे। विधवा-विवाह के वह घोर विरोधी थे। साथ ही वह अछूतों को दीक्षा देने, मंदिरों में उनका प्रवेश कराने और कुओं तथा स्कूलों को अङ्तों के लिए खोल देने के पक्षपाती थे।
उनकी मृत्यु १२ नवंबर १९४६ में हुई।
FAQ`s
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय को महामना क्यो कहते थे?
Answer : कई लोग मालवीय जी के नाम के बड़े सुंदर अर्थ करते हुए कहते थे कि वह मद न, मोह न मालवीय हैं, यानी ऐसा व्यक्ति जिसमें मद नहीं और मोह नहीं। सचमुच ही मदनमोहन मालवीय में मद या मोह नहीं था। इसलिए लोग उन्हें “महामना” कहते थे।
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म कब और कहा हुआ था?
Answer : पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म २५ दिसंबर, १८६१ को प्रयाग में हुआ था|
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय के पिता का क्या नाम था?
Answer : पंडित मदन मोहन मालवीय के पिता का नाम ब्रजनाथ व्यास था | ब्रजनाथ व्यास राधाकृष्ण के परम भक्त थे। वह बड़े अच्छे कथावाचक थे।
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय के माता का क्या नाम था?
Answer : पंडित मदन मोहन मालवीय के माता का नाम मूना देवी था |
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय की पत्नि का क्या नाम था?
Answer : पंडित मदन मोहन मालवीय कुंदन देवी था |
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय का विवाह कब हुआ था?
Answer : पंडित मदन मोहन मालवीय का विवाह लगभग २० वर्ष की आयु में पंडित आदित्यराम की कन्या कुंदन देवी के साथ हो गया था । पंडित आदित्यराम संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने मालवीय जी के संस्कृत ज्ञान से प्रभावित होकर ही उन्हें अपना दामाद बनाया था ।
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय कांग्रेस मे कब शामिल हुए?
Answer : मदनमोहन मालवीय समाज सेवा और राजनीति की ओर खिंचने लगे। १८८५ में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और अगले वर्ष के अधिवेशन में उन्होंने बड़ा जोरदार भाषण दिया और “हिंदुस्तान” पत्र का संपादन करने लगे।
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय और चौरीचौरा कांड
Answer : वकालत के क्षेत्र में मदनमोहन मालवीय की सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फांसी से बचा लेने की थी। फरवरी १९२२ में गोरखपुर जिले के चौरीचौरा नाम के स्थान में एक सनसनीपूर्ण घटना घटी। जनता ने पुलिस थाना जला दिया। मुकदमा चलने पर सेशन जज ने सभी अभियुक्तों को फांसी की सजा दे दी। जब मामला हाईकोर्ट में गया तो पैरवी के लिए मालवीय जी को बुलाया गया। मालवीय जी ने इतनी अच्छी बहस की कि सबके सब अभियुक्तों को साफ बचा लिया।
Questation : बनारस मे किस यूनिवर्सिटी की स्थापना पंडित मदन मोहन ने की थी?
Answer : पंडित मदन मोहन ने बनारस मे काशी हिंदू विश्वविद्यालय जिसे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय भी कहा जाता है, की स्थापना की थी |
Questation : पंडित मदन मोहन मालवीय की मृत्यु कब और कहा हुई थी?
Answer : पंडित मदन मोहन मालवीय की मृत्यु १२ नवंबर १९४६ को बनारस मे हुई थी |