मन्नत्तु पद्मनाभन | Mannathu Padmanabha Pillai
२५ फरवरी १९७० को केरल के भीष्म पितामह श्री मन्नतु पद्मनाभन का देहांत हुआ। सारे केरल में दुख के काले बादल छा गए। अपने मार्गदर्शी, आचार्य, साथी एवं नेता के वियोग से जनता अपने को निस्सहाय अनुभव करने लगी। स्कूल और कालेज एवं सरकारी दफ्तर बंद हो गए। शहरों में हड़ताल रखी गई। लाखों की संख्या में बालक-बूढ़े, स्त्री-पुरुष अपने प्रिय “दादा” के अंतिम दर्शन के लिए “चंगनाशेरी” पहुंच गए। उनके पार्थिव शरीर के चारों ओर पुष्पमालाओं का ढेर लग गया। मृत्यु के तीसरे दिन अंतिम संस्कार हुआ। तीन लाख से अधिक लोग वहां उपस्थित थे। श्री मन्नत्तु पद्मनाभन के समान लोकप्रिय नेता समस्त, भारत में बिरले ही हुए होंगे। प्यार से लोग उन्हें “मन्नम” कहते थे ।
मन्नत्तु पद्मनाभन का जन्म
२ जनवरी १८७८ को केरल के कोट्टायम जिले के चंगनाशेरी नामक स्थान में पद्मनाभन का जन्म एक नायर परिवार में हुआ। “मन्नत्तु” उनके कुटुंब का नाम है। उनका जन्म गरीबी की गोद में हुआ और अभावों के बीच उनका बचपन बीता। उनके जन्म के कुछ महीनों बाद उनके पिता उनकी मां से अलग हो गए। इसलिए बालक पद्मनाभन को पितृ-स्नेह से भी वांचित रहना पड़ा। उनकी मां श्रीमती पार्वती अम्मा एक धर्मपरायण स्त्री थी। उन्होंने कष्ट झेलकर अपने बेटे का पालन-पोषण किया।
मन्नत्तु पद्मनाभन की शिक्षा
पांच साल की उम्र में पद्भनाभन ने स्कूल जाना शुरू किया। चंगनाशेरी मलयालम स्कूल में उन्होंने चौथी कक्षा तक पढ़ा। पुस्तकें खरीदने और फीस देने के लिए उनको बड़ी कठिनाइयां झेलनी पड़ी। इसलिए वह अपनी पढ़ाई आगे जारी नहीं रख सके। अंग्रेजी पढ़ने की चाह उनके मन में ही बुझ गई। पदुमनाभन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है : “चंगनाशेरी में लोअर फोर्थ तक अंग्रेजी पाठशाला थी। अंग्रेजी पढ़ने की तीव्र इच्छा मेरे मन में भी थी। तो भी गरीबी के कारण मैं अपनी इच्छा पूरी न कर सका। इसके अलावा मुझे आजीविका भी ढूंढनी थी। इसलिए मुझे स्कूली शिक्षा वहीं समाप्त करनी पड़ी।“
मन्नत्तु पद्मनाभन के कार्य
सोलह साल की उम्र में पद्मनाभन एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। पांच रुपये उनको वेतन मिलता था। दस साल तक उन्होंने विभिन्न विद्यालयों में अध्यापक का काम किया। शीघ्र ही अध्यापक के रूप में प्रसिद्ध हो गए। चंगनाशेरी मिडिल स्कूल में काम करते समय मुख्याध्यापक से मतभेद होने के कारण इस स्वामिमानी युवक ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
मन्नत्तु पद्मनाभन का वकालत कार्य
इसके बाद पद्मनाभन ने वकील बनने का निश्चय किया, उन दिनों मजिस्ट्रेटी की परीक्षा पास करने वाले वकालत कर सकते थे। मन्नम पहले ही यह परीक्षा पास कर चुके थे। इसलिए वह चंगनाशेरी की अदालत में प्रैक्टिस करने लगे, जल्दी ही वह चंगनाशेरी के प्रमुख वकील बन गए। एक ही साल के अंदर उनको प्रति माह लगभग चार सौ रुपये की आमदनी होने लगी।
कहां पांच रुपये और कहां चार सौ रुपये! उन्होंने चंगनाशेरी में एक वकील संघ की स्थापना की। दस साल की वकालत के फलस्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधर गई लेकिन एक दंभी और क्रोधी मजिस्ट्रेट से बिगड़कर उन्होंने कुछ साल के लिए वकालत छोड़ दी। उस मजिस्ट्रेट का तबादला हो जाने के बाद ही फिर उन्होंने अदालत में दोबारा कदम रखा।
नायर सर्विस सोसाइटी की स्थापना
पदमनाभन का जन्म नायर जाति में हुआ था। नायर केरल की सबसे प्रमुख एवं प्रबल जाति थी । एक जमाना था जब केरल के जमींदारों, धनिकों और सरकारी अफसरों में सबसे बड़ी संख्या नायर लोगों की थी। उनमें बड़़े-बड़े वीर योद्धा हुए थे। राज-काज चलाने में उनका बड़ा हाथ होता था। लेकिन यह नायर जाति धीरे-धीरे जीर्ण व जर्जर होती गई। अंग्रेजों के आगमन के फलस्वरूप नायर लोगों का राजनीतिक महत्व लगभग समाप्त हो गया। उनमें धर्म के नाम पर प्रचलित अंधविश्वास अत्याचार, पाखंड और आडंबर का जोर बढ़ता गया, जिससे उनकी धार्मिक और आर्थिक स्थिति भी बदतर होती गई। उनमें परस्पर विरोध और ईष्या-द्वेष भी बहुत था। श्री पद्मनाभन को अपनी जाति की दीन-हीन दशा देखकर बड़ा दुख होता था। इसलिए उन्होंने तय किया कि नायर जाति की उन्नति के लिए कुछ करना चाहिए। इस उद्देश्य से उन्होंने ३१ अक्तूबर १९१४ को अपने तेरह सहयोगियों के साथ “नायर सर्विस सोसाइटी” नामक संस्था की स्थापना की। उसके प्रथम सचिव या मंत्री मन्नम थे।
उनकी प्रतिज्ञा यह थी, “मैं नायर समाज की उन्नति के लिए निरंतर प्रयत्न करता रहूंगा, इस प्रकार के प्रयत्नों में अन्य समाज के लोगों के अहितकर कुछ भी न करूगा।“
लगभग एक साल तक वह सर्विस सोसाइटी के काम और वकालत दोनों साथ-साथ करते रहे २५ अगस्त १९१५ को उन्होंने भरी सभा में अपनी वकालत छोड़ देने और नायर सर्विस सोसाइटी की सेवा में ही जीवन अर्पित करने का संकल्प लिया। इस दृढ निश्चय और कठोर परिश्रम के फलस्वरूप नायर सर्विस सोसाइटी और नायर जाति की चहुंमुखी प्रगति हुई। नायर सर्विस सोसाइटी का इतिहास उनकी साधना और एकनिष्ठा का इतिहास है | सोसाइटी की खातिर श्री पद्मनाभन अपनी मां, भाइयों और इकलौती बेटी की देख-रेख भी अच्छी तरह न कर सके।
मन्नत्तु पद्मनाभन के समाज सेवा कार्य
पद्मनाभन का लक्ष्य समाज सुधार था। उन्होंने सबसे पहले अपनी जाति के लोगों के बीच में फैले अनाचारों और पाखंडों को दूर करके उनके जीवन स्तर और सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्न किया।
उन दिनों नायर जाति में विवाह, उत्सव आदि पर बहुत अधिक धन खर्च किया जाता था। विवाह के पहले उससे संबंधित अनेक गलत प्रथाएं प्रचलित थी । मृत्यु के बाद भी अंधविश्वास के कारण कई आडंबर किए जाते थे, उनकी कुटुंब-व्यवस्था भी बड़ी शिथिल थी | संयुक्त परिवार के कई दोष उनमें आ गए थे । मन्नम घबराए नहीं और बराबर अपने रास्ते पर बढ़ते गए। इन दोषों को दूर करने के लिए एक सरकारी कानून बनवाने में भी उन्हें सफलता मिली।
परंतु इन कार्यों में श्री मन्नम को नायर समाज के रूढ़िवादियों और ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। उनको राजकोप का भाजन भी बनना पड़ा और ब्राह्मणों ने अदालत में उनके विरुद्ध मुकदमा चलाया किंतु वेदों, स्मृतियों और अन्य धार्मिक ग्रंथों से सूक्तियां उद्धृत करके मन्नम ने मुकदमों में विजय पाई।
उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप नायर समाज ने खोई हुई शक्ति पुनः अर्जित कर ली और कुछ ही सालों के अंदर केरल के प्रमुख वर्ग के रूप में प्रतिष्ठा पाई। उनकी इस महान सेवा के लिए नायर समाज सदैव उनका कृतज्ञ रहेगा।
पद्मनाभन का कार्यक्षेत्र नायर समाज के संकुचित दायरे तक ही सीमित न रहा। उन दिनों केरल में जातिगत भेदभाव बहुत ही अधिक जोर पर था। छुआछुत की दूषित प्रथा विकराल रूप धारण कर चुकी थी। अवर्ण या नीची जाति के लोगों को घोर यातना और अपमान सहना पड़ता था। ब्राह्मण, नायर आदि सवर्ण जाति के लोग उनसे बहुत ही बुरा व्यवहार करते थे। अछूतों को सड़कों पर भी स्वतंत्रतापूर्वक चलने-फिरने की अनुमति नहीं थी, विद्यालयों में जाकर पड़ने की सुविधाएं नहीं थी, मंदिरों में प्रवेश कर भगवान के दर्शन करने का अधिकार नहीं था । श्री मन्नम ने इस दशा का अंत करने के लिए अन्य नेताओं के साथ प्रयत्न किया। ‘अवर्ण’ कहलाने वाले भाई-बहनों को मंदिर में प्रवेश देने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए। सबसे पहले मन्नम ने अवर्णों को नायर सर्विस सोसाइटी के देवी मंदिर में जाकर आराधना करने की अनुमति दी।
उन्होंने एक हरिजन को अपने घर में अपने साथ बिठाकर भोजन किया। उस हरिजन की थालियां अपनी धर्मपरायणा मां से धुलवाई। ऐसे कार्य की उन दिनों कल्पना तक न की जा सकती थी। श्री मन्नम की एक विशेषता यह थी कि वह दूसरों से जो कुछ करवाना चाहते थे, स्वयं पहले करके दिखाते थे | उसके साथ ही उन्होंने हरिजनों और अन्य अवर्ण जाति के लोगों को अन्य मंदिरो में प्रवेश देने का आंदोलन शुरू किया। महात्मा गांधी के अनुरोध पर उन्होंने और अन्य नेताओं ने वैक्कम के प्रसिद्ध मंदिर के सामने सत्याग्रह शुरू किया, उनके नेतृत्व में सवर्ण लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल जनता में जागृति पेदा करते हुए त्रिवेंद्रम तक पैदल चलकर गया और महाराजा को एक स्मरण पत्र दिया | इन सब प्रयत्नों के फलस्वरूप २७ नवंबर १९३५ को त्रावणकोर के महाराजा ने सभी हिंदू धर्मावलंबियों को मंदिरों में दर्शन करने की अनुमति देने की घोषणा की। यह दिन केरल के इतिहास में चिरस्मरणीय बन गया ।
मन्नत्तु पद्मनाभन का शिक्षा के क्षेत्र मे कार्य
शिक्षा-क्षेत्र में भी पद्मनाभन का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। पद्मनाभन ने केरल के विभिन्न भागों में अनेक विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करके सरस्वती पूजा और जन-सेवा एक साथ कर ली। लोक कल्याण के लिए उन्होंने भीख मांगी। चंदा वसूल करने में वह अद्वितीय थे। स्वयं भूखे रहकर, लंबी-लंबी यात्राएं करके, कठिन यातनाएं सहकर, मजदूरों और कारीगरों के साथ काम करके उन्होंने विद्यालयों और महाविद्यालयों का निर्माण किया।
करोड़ों रुपये हाथ में आने पर भी उन्होंने एक पैसा भी अपने स्वार्थ के लिए नहीं लिया। इस प्रकार के कठोर और अथक प्रयत्नों के फलस्वरूप नायर सर्विस सोसायटी की अधीनता में अब अठारह कालेज और एक सौ स्कूल चल रहे हैं। जो बालक उच्च शिक्षा पाने की तीव्र इच्छा रखने पर भी आगे न पढ़ सका, उसने बाद में हजारों छात्र-छात्राओं को पढ़ाने के लिए अनेक सरस्वती मंदिरों का निर्माण किया | गरीब विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने का प्रबंध किया। जिस व्यक्ति को उच्च शिक्षा की कोई उपाधि नहीं मिली थी, उसने असंख्य युवक-युवतियों को स्नातकोत्तर स्तर तक की कक्षाओं को पढ़ाकर उपाधियां लेने की सुविधाएं प्रदान की |
स्व. प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने शिक्षा के क्षेत्र में श्री पद्नाभन की अनुपम सेवाओं की प्रशंसा करते हुए उनको “आचार्य” कहकर संबोधित किया था ।
शिक्षा संस्थाओं के अलावा मन्नम ने पांच अस्पतालों की स्थापना करके रोगियों की चिकित्सा की भी व्यवस्था की। ये विद्यालय और महाविद्यालय तथा अस्पताल उस महापुरुष के चिरस्थाई स्मारक हैं।
मन्नत्तु पद्मनाभन का राजनीतिक जीवन
पद्मनाभन ने राजनीतिक मामलों में भी सक्रिय भाग लिया था, वह गांधीजी के अनुयायी थे। स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम दिनों में उन्होंने केरल की कांग्रेस का नेतृत्व किया। भारत स्वतंत्र होने पर कुछ लोगों ने कोशिश की कि त्रावणकोर को भारत से अलग और स्वतंत्र रखा जाए। पद्मनाभन ने इस विचार का पूरी शक्ति से विरोध किया, इस सिलसिले में अड़सठ साल की उम्र में उन्हें जेल भी जाना पड़ा। १९४८ में वह राज्य विधान सभा के सदस्य बने। १९५९ में तो मन्नत्तु पद्मनाभन एक राजनैतिक नेता के रूप में विख्यात हो गए। केरल में भारत की प्रथम साम्यवादी सरकार बनी थी, उसके कुछ जनतंत्र विरोधी अत्याचारों के विरुद्ध उन्होंने जो अहिंसात्मक आंदोलन चलाया, वह इतिहास में अपने ढंग का अनोखा था।
मन्नत्तु पद्मनाभन को प्राप्त सम्मान
उस विमोचन आंदोलन के सेनानायक के रूप में ८४ साल के इस वृद्ध नेता ने जिस उत्साह एवं जोश, साहस एवं निर्भीकता का परिचय दिया, वह युवकों को भी लजाने वाला था। केवल डेढ़ महीने के आंदोलन के बाद ही साम्यवादी सरकार को सत्ता छोड़नी पड़ी। विमोचन आंदोलन के बाद वह “भारत केसरी” नाम से प्रख्यात हुए। विदेशों में भी उनकी कीर्ति फैल गई । उसके बाद उन्होंने निमंत्रण पाकर स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड, फ्रांस, पश्चिम जर्मनी आदि देशों की यात्रा की।
सन् १९६६ में भारत सरकार ने उनकी बहुमुखी एवं बहुमूल्य सेवाओं के उपलक्ष्य में उनको “पद्मभूषण” की उपाधि से सम्मानित किया।
मन्नत्तु पद्मनाभन के साहित्य
भाषणकर्ता और लेखक के रूप में पद्मनाभन को बहुत सफलता मिली। ठेठ मलयालम में प्रभावशाली ढंग से भाषण देकर वह श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे उनकी शैली हास-परिहास पूर्ण थी। मलयालम के प्रमुख लेखकों में भी उनका स्थान है। शुद्ध मलयालम की शक्ति और ओज समझने के लिए उनकी रचनाओं का अध्ययन करना जरूरी है। पुस्तक रूप में उनकी चार रचनाएं मिलती हैं, जिनमें से एक उनकी आत्मकथा “मेरी जीवन-स्मृतियां” है।
श्री मन्नतु पद्मनाभन का व्यक्तित्व बहुमुखी था। बिल्कुल साधारण परिस्थितियों में जन्म पाकर भी वह कर्मों के कारण प्रसिद्धि के और लोकप्रियता के उच्चतम शिखर पर पहुंच गए। वह जीवन भर अधर्म और अत्याचार के विरुद्ध निर्भयता से जूझते रहे। जीवन-विजय की सीढ़ियों को पार करते हुए जनमानस के सम्राट हो जाने पर भी उन्होंने मधुरता और विनय नहीं छोड़ी।