महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी | स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार | स्वामी दयानंद सरस्वती आर्य समाज | स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी | Dayanand Saraswati

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दयानंद सरस्वती | Dayanand
Saraswati


जरात काठियावाड़ की मोरवी रियासत के टंकारा नामक गांव में
पंडित कर्सनलाल जी त्रिवेदी रहते
थे। उनके यहां १८२४ में एक पुत्र हुआ।
मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम उन्होंने मूलशंकर रखा। मूलशंकर
होनहार बालक निकला। वह अपना पाठ खूब परिश्रम से याद करता। आठ वर्ष की आयु में
मूलशंकर का यज्ञोपवीत संस्कार किया गया और संध्या
, गायत्री, रुद्री आदि कंठस्थ
कराए गए। गुरुजन उससे बहुत प्रसन्न रहते। चौदह साल की आयु में उसे यजुर्वेद कंठस्थ
हो गया। उसमें सोचने-विचारने की भी अद्भुत शक्तित थी।

एक दिन शिवरात्रि का व्रत था। अपने पिता के कहने से मूलशंकर
ने भी व्रत रखा। मंदिर में आधी रात तक भजन-कीर्तन होता रहा। उसके बाद अन्य लोग तो
सो गए पर मूलशंकर जागता रहा। बड़ी निष्ठा से वह शिव मंत्र जपते हुए मूर्ति के
सामने बैठा रहा। इसी समय एक ऐसी घटना हुई जिससे मूलशंकर का धर्मविषयक दृष्टिकोण ही
बदल गया। उसने देखा कि एक चूहा शिवजी की मूर्ति पर चढ़कर उनको चढ़ाया हुआ प्रसाद
मौज से खा रहा है। मूलशंकर के हृदय में विचार आया कि यह मूर्ति सर्वशक्तिमान शिव
नहीं हो सकती। जो मूर्ति स्वयं को एक चूहे से अपवित्र होने से नहीं बचा सकती वह
संसार की क्या रक्षा करेगी
? ऐसे नास्तिक
विचार सुनकर उसके पिता ने उसे खूब डॉंटा-डपटा। परन्तु बालक के मन में शंका का
अंकुर जम चुका था। इसके बाद उसकी बहन की मृत्यु हो गई और कुछ दिन बाद प्रिय चाचा
की भी मृत्यु हो गई। वह फूट-फूट कर रोया। उसे लगा जीवन पानी का एक बुलबुला है।
इसलिए इनसान को कुछ ऐसा काम करना चाहिए जिससे उसका जीवन सार्थक हो जाए। इस प्रकार
के विचारों में डूबे हुए मूलशंकर अनमने-से रहने लगे। पिता को डर हुआ कि कहीं बेटा
संन्यासी होकर हाथ से न निकल जाए इसलिए उन्होंने उनके विवाह की तैयारिया शुरू कर
दी  पर मूलशंकर घर से भागकर सिद्धपुर के
मेले में पहुँच गए और उन्होंने सिर मुंडाकर गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। जब पिता को
यह पता चला तो कुछ आदमियों को साथ लेकर उन्हें जा घेरा। पर सब के सो जाने पर वह
रात को चुपके से वहां से खिसक गए और अनेक वर्ष योगियों की खोज में इधर-उधर भटककर
अंत में वह मथुरा में स्वामी बिरजानंद के आश्रम में पहुंचे और अपनी गुरुभक्ति
, सेवा और परिश्रम
से उन्होंने गुरु को प्रसन्न किया। स्वामी बिरजानंद बहुत क्रोधी स्वभाव के थे
, पर मूलशंकर ने जिनका
नाम अब स्वामी दयानंद था
, बड़ी धीरता और
लगन से विद्या सीखी। जब पढ़ाई खत्म करके जाने का समय आया तो स्वामी दयानंद गुरु से
विदा लेने को उपस्थित हुए। गुरु ने प्रसन्न होकर अपने इस होनहार शिष्य से कहा – “बेटा
भारतवासी इस समय अंधकार में पड़े हुए हैं इसलिए मैं यह आशा करता हूं कि तुम इन्हें
मार्ग दिखाओगे
, इन्हें धर्म के ढकोसलों
से उबारकर असली वैदिक धर्म का ज्ञान दोगे। संसार वेदों को भूल चुका है
, तुम अपनी पूरी
शक्ति लगाकर वेदों की शिक्षा का प्रचार करो।“

उन दिनों भारत परतंत्र तो था ही, अनेक सामाजिक
कुरीतियां में भी फंसा था। कुछ आदमी तीर्थों में जाकर आभूषणों से लदी हुई अपनी
सुंदर पत्नियों को इस आशा से पंडों को दान दे देते थे कि ऐसा करने से अगले जन्म
में भी हमें ऐसी ही सुंदर
पत्निया और धन-दौलत
मिलेगी। फिर दान में दी हुई उस स्त्री को मुंह-मांगा दाम देकर पंडे से खरीद लेते
थे
, मानो स्त्री स्त्री न होकर कोई वस्तु हो। कुछ लोग अपनी
कन्याओं को मंदिरों में देवता की चाकरी करने के लिए चढ़ा देते थे और ये कन्याएं
देवदासी बनकर अपना जीवन घृणित रूप में बिताती थी। समाज में छुआछूत और अंधविश्वास का
जोर था। स्त्रियों और शूद्रो को वेद पढ़ने का अधिकार न था। विदेश यात्रा करने पर
लोग समाज से बाहर कर दिए जाते थे। ऐसे समय में गुमराह समाज का मार्ग सुधारना कोई
खेल न था ।

अपने गुरु की इस आज्ञा को मानकर स्वामी दयानंद देश भर में गांव-गाँव, शहर-शहर घूमे और
उन्होंने इस बात का खंडन किया कि गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं। लोग
मानते थे कि योगिराज श्रीकृष्ण माखन चोर थे और उनके सोलह हजार रानियां थी। स्वामी
दयानंद ने कहा कि वह तो महापुरुष थे। विलासी कवियों ने उनका ऐसा वर्णन कर लोगों को
गुमराह किया है। इस प्रकार के उपदेश से कर्णवास में कुछ लोग उनके दुश्मन हो गए। एक
दिन कर्णसिंह नाम का एक राजपूत तलवार लेकर उन्हें मारने आया। स्वामीजी ने उसकी
तलवार छीनकर दो टुकड़े कर एक ओर पटक दी। तब इस दुष्ट ने अपने अधीन कुछ गुंडों को
लोभ दिखाकर स्वामीजी की हत्या करने के लिए उकसाया पर स्वामीजी के तेज के आगे वे न
ठहर सके। पाप का फल हमेशा बुरा होता है। कहते है कि कर्ण सिंह अंत में पागल होकर
मरा।

जहां-जहां स्वामीजी गए, उन्होंने पंडों-पुजारियों और उनके ढकोसलों की
पोल खोली और ज्ञान का प्रचार किया
, सच्चे धर्म की
व्याख्या की और लोगों को सत्य पथ पर लाने का प्रयत्न किया। इसका नतीजा यह हुआ कि
धर्म के ठेकेदारों की आमदनी बंद हो गई और वे सब स्वामीजी के जानी दुश्मन हो गए। एक
ऐसे ही ब्राह्मण ने उन्हें पान में जहर खिला दिया
, पर पता लगते ही
स्वामीजी ने खूब पानी पी पीकर वमन द्वारा अपने पेट की सफाई कर डाली। इस शहर का
तहसीलदार एक मुसलमान था। वह स्वामीजी का बड़ा भक्त था। जब उसे ब्राह्मण की इस
करतूत का पता चला तो उसने उसे कैद कर जेलखाने में डालना चाहा पर उदार-चरित्र
स्वामीजी ने तहसीलदार को यह कहकर रोक दिया कि मैं लोगों को कैद कराने नहीं
, कैद से छुड़ाने
आया हूं।

एक और शहर में भी ऐसा ही हुआ। एक ब्राह्मण स्वामीजी के लिए
मिठाई लाया। वह फौरन ताड़ गए कि इसमें जहर मिला हुआ है। उन्होंने उसमें से
थोड़ी-सी मिठाई उठाकर ब्राह्मण को दी और खाने को कहा। उस व्यक्ति के मुंह का रंग
ही उड़ गया। स्वामीजी ने
डांटकर कहा – “खाते
क्यों नहीं
? क्या इस में जहर मिला
हुआ है
? “ ये शब्द सुनते ही वह व्यक्ति वहां से तुरंत भाग गया।

बंबई में भी जब गुसाई लोग शास्त्रार्थ में स्वामीजी से हार
गए तो उन्होंने भोजन में जहर खिलाने की साजिश की। इस काम के लिए उन्होंने स्वामीजी
के रसोइए को भी फुसला लिया। उसे पांच सेर मिठाई और पांच रुपये नकद देकर कहा कि यदि
तुम स्वामीजी का खात्मा कर दोगे तो तुम्हें एक हजार रुपया नकद देंगे। यह शर्त
उन्होंने एक कागज पर भी लिख दी। इस बात की खबर स्वामीजी को किसी प्रकार लग गई।
उन्होंने जब रसोइए से पूछा तो वह डरकर थर-धर कांपने लगा और उसने सब बात सच-सच बता
दी। स्वामीजी चाहते तो सबूत सहित उन्हे किसी अदालत में पेश कर देते
, पर उन्होंने
अपने शुत्रुओं को क्षमा कर दिया।

स्वामीजी ने धर्म में पाखंडों का खंडन किया, सच्चे वैदिक धर्म
का मर्म समझाया संसार के समस्त मनुष्यों को अज्ञान और कष्टों से छुटकारा दिलाकर
सत्य मार्ग पर चलाने के महान उद्देश्य
अप्रैल १८७५ को चिरगांव, बम्बई, में डा० मानकचंद
की वाटिका में आर्य समाज की स्थापना की। आरंभ में इसके
२८ नियम थे। बाद में १० नियम निश्चत हुए। आर्य
समाज मनुष्य-मनुष्य के मध्य के समस्त भेदों को समाप्त कर वसुधैव कुटुम्बकम् की
भावना के करने की प्रेरणा देता है। अज्ञानी और पाखंडी लोगों को उनका यह प्रचार
बहुत बुरा लगा। वे उनको नुकसान पहुंचाने या बदनाम करने की ताक में रहते। एक बार
जबकि वह भाषण कर रहे
थे, किसी ने एक काला
नाग उन पर फेंक दिया। नाग रेंगता हुआ जब उनके पांव के पास आ गया तो स्वामीजी ने
उसे अपने पांव की एडी से मसल डाला और अपना व्याख्यान जारी रखा। एक बार जब वह जालंधर
गए तो वहां के एक अमीर सरदार विक्रमसिंह ने उनसे पूछा – “महाराज ! आप ब्रह्मचर्य
का इतना बखान करते हैं
, उसका कुछ
प्रत्यक्ष प्रमाण दिखलाएं।“

स्वामीजी उस समय तो चुप रहे। मगर जब सरदार साहब अपनी चार
घोड़ों की बग्घी पर सवार होकर जाने लगे तो उन्होंने पीछे से जाकर बग्घी को पकड़
लिया। साईस घोड़ों को चाबुक पर चाबुक मारता रहा पर बग्घी
आगे न हुई। हैरान होकर विक्रमसिंह ने पीछे मुड़कर
देखा तो दंग रह गए कि स्वामीजी बग्घी को पीछे से पकड़े हुए विक्रमसिंह को देखकर
स्वामीजी हंसकर बोले – “देखी आपने ब्रह्मचारी की ताकत
?

कहते हैं कि एक बार स्वामीजी माघ-पूस के जाड़े में केवल
कौपीन धारण किए बैठे थे
, और लोग गर्म
कपड़ों में भी ठिठुर रहे थे ऐसी कड़ाके की ठंड में एक साधु को नंगे बदन बैठा देखकर
वे हैरान रह गए। उन्होंने स्वामीजी से पूछा कि “भगवन ! ऐसी कड़ाके की सर्दी का भी
आप पर असर नहीं। वह बोले – “प्राणायाम
, ब्रह्मचर्य आदि
के द्वारा मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है।“ कहते हैं कि उसी ठंड
में अपने बदन से पसीना टपकाकर स्वामीजी ने उन्हें चकित कर दिया।

धर्म-प्रचार करते हुए एक बार जब स्वामीजी मथुरा पहुंचे तो
वहां धर्म-पाखंडियों को उन्होंने आड़े हाथों लिया। अपने मत के समर्थन में उन्होंने
वेदों को उद्धृत किया। अब तो वहां के पंडे-पुजारी घबराए। स्वामीजी की विद्वत्ता के
आगे उनकी एक न चली। शास्त्रार्थ में वे हार गए। उन्होंने स्वामीजी को बदनाम करने
के लिए एक औरत को रुपयों का लोभ दिखाकर कहा कि जिस बगीचे में स्वामीजी हैं तुम
वहां जाकर उन पर झूठी तोहमत लगाना और झगड़ा करना शुरू कर देना। फिर हम उनको बदनाम
करके वहां से निकाल देंगे। यदि तुम इस काम में सफल हुई तो तुम्हें बहुत-सा रुपया
मिलेगा। पहले तो वह औरत बहुत झिझकी
, पर जब उन पंडों
ने सोने के बहुत से जेवर उसके सामने लाकर रखे तो वह लोभ में फंस गई और दूसरे दिन
योजना के अनुसार बाग में पहुंच गई। उस समय स्वामीजी समाधि लगाए बैठे थे उनका भोला
और तेजवान मुख देखकर उस महिला को अपने बुरे इरादे पर बड़ा पश्चाताप हुआ। इतने में
स्वामीजी की समाधि टूटी तो अपने सामने एक सुंदरी को देखकर बड़े हैरान हुए। उस
स्त्री ने झुककर उनके चरण छुए और पश्चाताप करते हुए सारी बात बता दी और सब जेवर
उनके चरणों में धर दिए। स्वामीजी ने वे जेवर लौटाते हुए उसे समझाया
|

पंडे यह परिवर्तन देखकर दंग रह गए और अपना-सा मुंह लेकर
वहां से
चले गए। स्वामीजी
बहुत ही हंसमुख और मिलनसार स्वभाव के थे। वह कर्मकांडी ब्राह्मणों की बातों का हसी-हसी
में ही खंडन कर दिया करते थे कबीर की तरह उनका भी यही कहना था कि
गंगा नहाने, सिर मुड़ाने या
भभूत मलने से यदि स्वर्ग मिलता तो मछली
, भेड़ और गधा सबसे
पहले स्वर्ग के अधिकारी होते। केवल मूर्ति को पूजा में आस्था रखना निरा अज्ञान है।
अपने पूर्वजों के प्रति यदि आप सम्मान प्रदर्शित करना चाहते हैं तो उनकी अच्छी
बातों का अनुकरण करें
, उनकी सेवा करें
और उन्हें प्रसन्न रखें। याद रखें कि जीते जी उन्हें दुख देना और मरने पर उनका
श्राद्ध करना या उनके नाम पर ब्राह्मणों को खिलाना उनकी आत्मा को सुख नहीं देगा।

स्वामीजी अपने समय के भारी सुधारक हुए। उन्होंने बाल-विवाह, छुआछूत आदि का
जोरो से खंडन किया। उनका विचार था कि जन्म से सभी समान है। कर्मो के अनुसार वर्ण
निश्चित होते है अतः छोटे-बड़े और नीच-ऊंच की भावना उचित नहीं है। हरिजन
ब्राह्मणों के कर्म करके ब्राम्हण पद को पा सकता है। उन्होंने शुद्धि-आंदोलन भी
चलाया
, विद्या का प्रचार किया, अनाथालय और
विधवाश्रम खुलवाए। इन सब सुधारों के कारण भी कई लोग उनके शत्रु बन गए।

उन दिनों रियासतों की जनता बहुत पिछड़ी हुई थी। स्वामीजी का
ध्यान उधर गया। वह जहाँ-जहां भी गए उन्होंने लोगों को ज्ञानोपदेश दिया। अब तो उनके
नाम की धूम मच गई। लोग उनके आगे हाथ बांधे खड़े रहते। और कोई होता तो अपने लिए
धन-दौलत बटोर लेता
, जायदाद मांग लेता, किसी मठ का
स्वामी बनकर मौज़ से रहता
, परंतु स्वामीजी
को तो लोभ छू नहीं गया था। रियासतों में जागृति फैलाते हुए स्वामीजी
१८८३ में जोधपुर पहुंचे। जोधपुर के महाराजा ने उनका
बड़ा स्वागत किया
, भेंट-पूजा लेकर हाजिर हुए
और उनके सामने धरती पर बैठ गए। स्वामीजी ने उन्हें हाथ पकड़कर चौकी पर बैठाया और
राजधर्म का उपदेश किया। राजा की देखा-देखी प्रजा भी उनके उपदेशों को बहुत प्रेम से
सुनती थी। रोज़ शाम को उनके भाषण होते थे।

उन दिनों जोधपुर के महाराजा नन्हीं जान नामक एक वेश्या के
मोह में पड़े हुए थे। जब स्वामीजी दरबार में पहुंचे तो नन्हीं जान वहीं बैठी थी।
स्वामीजी ने महाराज को इस बात के लिए बहुत धिक्कारा और घर लौटकर
उन्होने महाराज को एक चिट्ठी लिखी | कि तुम इस स्त्री
का साथ छोड़ दो। महाराज की कृपा हट जाने से वह वेश्या स्वामीजी पर बहूत बिगड़ी।
उसने स्वामीजी के रसोइए की मारफत उनके दूध में विष मिलवा दिया। दूध पी जाने के कुछ
देर बाद स्वामीजी को पता चल गया। उन्होंने अपने रसोइए को बुलाकर पूछा – “क्या तूने
मुझे विषमय दूध दिया था
? यह सुनकर उसके
तो होश उड़ गए। स्वामीजी के पांवों में पड़कर वह फूट-फूटकर रोया
| नेक स्वामीजी ने उसे अपने पास से किराया और
राह खर्च देकर कहा – “तो अब तुम तूरंत यहां से भाग जाओ। कहीं लोगों को पता लग गया
तो तुम्हें मार ही डालेंगे।“

दूसरे दिन
स्वामीजी की तबीयत बहुत बिगड गई। बड़े-बड़े डाक्टरों का इलाज हुआ। उन्हें वहा से
आबू ले गए
, फिर अजमेर ले आए पर तबीयत
संभली नहीं । ३०
अक्तूबर १८८३  को दिवाली के दिन
स्वामीजी ने अपना चोला छोड़ दिया।

स्वामीजी का
प्रचार-कार्य उत्तर भारत में विशेष सफल रहा। विशेषकर पंजाब में उनके अब भी अधिक
अनुयायी है। स्वामीजी की चेष्टा से देश में कई सामाजिक सुधार हुए। अनमेल विवाह
, पर्दा-प्रथा, छुआछूत, बाल-विवाह की
बुराइयां लोगों की समझ में आने लगीं। बाल-विधवाओं के विवाह का भी आर्य समाजियों ने
समर्थन किया। लड़को तथा लड़कियों दोनों की शिक्षा का प्रचार हुआ। कई गुरुकुल कालेज
खुले। इस प्रकार समाज की प्रगति में उनका बड़ा हाथ रहा।

स्वामी दयानन्द आधुनिक भारत के उद्धारक, स्वराज्य शब्द के
प्रथम उद्धघोषक और राष्ट्र को पराधीन बनाने वाली कुरीतियों के कठोर विरोधी थे जिस
समय
१८५७ के स्वतंत्रता
संग्राम के बाद सर्वत्र आतंक छाया था तब आपने अत्यंत निर्भय होकर स्वदेशी शासन को
सबसे अच्छा और आवश्यक बताया।

सन् १८७३ में इंग्लैंड के
बड़े पादरी कलकत्ता आए हुए थे। उन्हीं दिनों स्वामी दयानंद कलकत्ता में अपने उपदेश
दे रहे थे। उनके ज्ञानपूर्ण व्याख्यानों से पादरी महोदय बड़े प्रभावित हुए और
उन्होंने स्वामी दयानंदजी की उस समय ब्रिटिश सरकार के प्रधान वायसराय नार्थ ब्रुक
से भेट कराई।

स्वामी दयानंद एक निर्भीक सन्यासी थे जिन्होंने देश को अज्ञान
और कुरीतियों के गहरे गड्ढे में से निकाला। वह एक महान सुधारक थे और देश के जागरण
में उनका
हुत बड़ा हाथ था।

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