महर्षि धोंडो केशव कर्वे | Dhondo Keshav Karve
हमारे देश में जिन व्यक्तियों को देश का सबसे बड़ा सम्मान “भारत रत्न” मिला है, उनमें से एक हैं, महर्षि कर्वे। स्त्री-शिक्षा और स्त्रियों की दशा सुधारने के क्षेत्र में उनका योगदान अनुपम है। अकेले अपने ही बलबूते पर उन्होंने एस.एन.टी.डी. महिला विश्वविद्यालय नामक एक अनूठी शिक्षा संस्था की स्थापना कर दिखाई।
जब वह किसी काम को करने का निश्चय कर लेते थे, तो मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से घबराते नहीं थे और उसके लिए कठिन-से-कठिन परिश्रम करने को तैयार रहते थे। सफलता न मिलने पर भी वह हिम्मत न हारते थे और बराबर जुटे रहते थे। उनके विद्यार्थी-जीवन की एक घटना से उनके इन गुणों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
घटना १८७५ की है। धोंडो केशव कर्वे उस समय १७ वर्ष के थे। उन दिनों मराठी छठे स्टैंडर्ड की परीक्षा बोर्ड की होती थी। उनके गांव मुरुड़ में परीक्षा केंद्र नहीं था। परीक्षा शुरू होने से केवल चार दिन पहले पता चला कि उन्हें परीक्षा देने सतारा जाना पड़ेगा। सतारा था, वहां से ११० मील । जाने के लिए कोई सवारी भी नहीं थी पैदल जाना था। रास्ता भी दुर्गम था। परंतु अपना सामान अपने कंधों पर लादकर मुरुड़ के पांच साहसी विद्यार्थी समय पर सतारा पहुंच ही गए। किंतु वहां पहुंच कर परीक्षा कमेटी के चेयरमैन ने दुबले-पतले और कमजोर घोड़ो को देखते ही कह दिया कि तुम तो १७ वर्ष के नहीं लगते। इसलिए तुम परीक्षा में नहीं बैठ सकते। चेयरमैन ने उसकी उम्र का प्रमाणपत्र देखने की भी आवश्यकता नहीं समझी। इतनी बड़ी यात्रा के बाद भी परीक्षा में बैठने की अनुमति न मिलने से भी धोंडो निराश नहीं हुआ। अगली बार कोल्हापुर से उसने वह परीक्षा पास की।
अनुक्रम (Index)[छुपाएँ]
महर्षि धोंडो केशव कर्वे की जीवनी
महर्षि धोंडो केशव कर्वे का जन्म
महर्षि धोंडो केशव कर्वे की शिक्षा
महर्षि धोंडो केशव कर्वे का विवाह
महर्षि धोंडो केशव कर्वे के कार्य
महर्षि धोंडो केशव कर्वे की समाज सेवा
महर्षि धोंडो केशव कर्वे का विधवा विवाह समर्थन
अनाथ बालिकाश्रम एसोसिएशन की स्थापना
एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय की स्थापना
महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति की स्थापना
महर्षि धोंडो केशव कर्वे का जन्म
धोंडो केशव कर्वे का जन्म १८ अप्रैल १८५८ को एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम था – केशोपंत और मां का लक्ष्मीबाई। वे मुरुड़ नामक कस्बे में रहते थे। बालक कर्वे का जीवन कठिनाइयों में बीता। इसी कारण आगे चलकर वह कठिन परिस्थितियों में भी कभी नहीं घबराए।
महर्षि धोंडो केशव कर्वे की शिक्षा
सन् १८७५ में जब वह सतारा से वापस लौटे तो मुरुड़ मे एक सज्जन ने अंग्रेजी की क्लास शुरू की। घोंडो भी इस क्लास में १७ वर्ष की उम्र में शामिल हुए। इस घटना ने उनके जीवन को एक नया मोड़ दिया। तब तक उनकी इच्छा केवल छठे स्टैंडर्ड की परीक्षा पास करके स्कूल में अध्यापक बनने की थी। पर जब सतारा जाकर वह परीक्षा में शामिल नहीं हो सके, तो उन्हें अंग्रेजी पढ़ने का मौका मिला। दो-ढाई वर्ष बाद आगे पढ़ने के लिए मुंबई चले गए, जहां वह राबर्ट मनी स्कूल में दाखिल हुए। उन दिनों उनका लेख बहुत खराब था। १८-२० वर्ष की उम्र में विद्यार्थी यह मान लेते हैं कि अब हमारा लेख नहीं सुधर सकता। पर धोंडो अपना लेख सुधारने में जुट गए। यहां तक कि स्कूल की एक परीक्षा में उनका लेख इतना अच्छा था कि स्वयं उनके अध्यापक को भी संदेह हो गया। जब घोंडो ने उसके सामने लिख कर दिखाया, तब ही उसे विश्वास आया।
मुंबई गए हुए उन्हें एक ही वर्ष हुआ कि उनके पिता का देहांत हो गया। उन्हें लगा कि अब उनकी पढ़ाई और आगे नहीं चल सकती। पर उनके बड़े भाई ने कहा कि “मैं तुम्हें चार रुपये महीना दिया करूंगा।“ पर चार रुपये महीने में गुजारा होना मुश्किल था। इसलिए उन्होंने ट्यूशन करनी शुरू की। पहली ट्यूशन की फीस उन्हें केवल एक रुपया मिली। स्कूल में छात्रवित्ति भी मिलता था, ट्यूशन और छात्रवित्ति के बल पर उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की।
सन् १८८४ में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा पास की। उनका विशेष विषय गणित था।
महर्षि धोंडो केशव कर्वे का विवाह
पंद्रह वर्ष की उम्र में उनका विवाह भी हो गया था और बी. ए. पास करते तक उनका एक ढाई वर्ष का पुत्र भी हो गया था | बी ए. करने के बाद उनकी पत्नी और पुत्र पहली बार उनके साथ रहने लगे।
महर्षि धोंडो केशव कर्वे के कार्य
उनकी इच्छा शुरू से ही अध्यापक बनने की थी। इसलिए बी. ए. करने के बाद वह एलफिस्टन में अध्यापक बन गए। फिर उन्होंने लड़कियों के दो हाई स्कूलों में पार्ट टाइम काम करना शुरू कर दिया। इसके अतिरिक्त, वह ट्यूशने भी करते थे। इस तरह वह प्रातः साढ़े चार बजे से रात को देर तक व्यस्त रहते थे।
महर्षि धोंडो केशव कर्वे की समाज सेवा
इसी के साथ उनमें समाज-सेवा की भी बहुत लगन था। इसी भावना से मराठा हाई स्कूल में कम वेतन पर भी वह अध्यापक बनने को तैयार हो गए। उन्ही दिनों उनके लड़के रघुनाथ का उपनयन संस्कार हुआ। उनकी मां, बड़े भाई और पत्नी धूमधाम से मनाना चाहते थे पर कर्वे व्यर्थ के आडंबरों पर धन व्यय करने की जगह किसी अच्छे काम पर धन खर्च करना चाहते थे, इसलिए स्वभाव से अत्यंत विनम्र होने के बावजूद इस मामले में वह झुके नहीं। उपनयन संस्कार पर उन्होंने केवल १५ रुपये व्यय किए। इस तरह ३०० रुपये बचे जो उन्होंने मुरुड़ कोष में दान दे दिए।
मुंबई में उनकी पत्नी का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। इसलिए उन्हेोंने उसे गांव भेज दिया। एक दिन उनको पत्नी के देहांत की चिट्ठी मिली। दुख के मारे वह रात-भर नहीं सो सके। परंतु कर्तव्य पालन में उन्होंने कोई त्रटि नहीं होने दी और अगले दिन के सब काम उन्होंने पहले की ही तरह किए।
पत्नी की याद में मुरुड़ कोष में उन्होंने ५०० रूपये दान दिए, जिससे उसके नाम पर एक छात्रवित्ति दी जा सके।
सन् १८९१ में गोपालकृष्ण गोखले का निमंत्रण मिलने पर वह पुणे के प्रसिद्ध फर्ग्युसन कालिज में प्राध्यापक बन गए। इस कालिज में उन्होंने २३ वर्ष तक १९१४ तक सेवा की। पुणे रहते हुए ही उन्होंने स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में अविस्मरणीय कार्य किया।
महर्षि धोंडो केशव कर्वे का विधवा विवाह समर्थन
मुंबई में पढ़ते समय ही कर्वे विधवा-विवाह के समर्थक बन गए थे। उन दिनों विधवाओं की दशा बहुत ही दयनीय होती थी। उनको सिर के बाल मुंडवाकर लाल वस्त्र पहनकर घर में बंद रहना पड़ता था। दकियानूसी विचारों के कारण लोग विधवा-विवाह का घोर विरोध करते थे। कर्वे केवल बातें बनाना नहीं जानते थे, बल्कि जो कहते थे, उसे करके दिखाते थे। इसलिए ११ मार्च १८९३ को उन्होंने गोडुबाई नामक एक विधवा से विवाह किया। इस विवाह के कारण उन्हें घोर कष्ट सहने पड़े। मुरुड़ के लोगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उनके बड़े भाई पर भी यह प्रतिबंध लगाया गया कि अपने छोटे भाई और भाभी को अपने घर न बुलाएं। इसलिए कर्वे और उनकी पत्नी को घर के बाहर एक अस्तबल में ठहरना पड़ा। मिलने-जुलने वालों के यहां जाने पर भी उन्हें अलग पंक्ति में बैठकर भोजन करना पड़ता था। विधवा-विवाह के प्रचार के लिए उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर विधवा-विवाह संघ की स्थापना की और जनमत को इसके पक्ष में करने लगे।
अनाथ बालिकाश्रम एसोसिएशन की स्थापना
परंतु जल्दी ही उन्होंने यह अनुभव किया कि विधवा-विवाह का प्रचार करने से विधवाओं की समस्या हल नहीं होने वाली। अधिकांश विधवाएं स्वयं विवाह नहीं करना चाहती थीं। अधिक जरूरी यह था कि शिक्षा देकर विधवाओं को अपने पैरों पर खड़ा किया जाए, ताकि वे सम्मानपूर्ण जीवन बिता सकें। इसके लिए उन्होंने १८९६ में “अनाथ बालिकाश्रम एसोसिएशन” बनाई और फिर उसके लिए धन एकत्र करना शुरू किया।
सवा दो महीने के दौरे में ही इस काम के लिए उन्होंने ३२०० रुपये एकत्र कर लिए, जो उस समय बहुत बड़ी बात थी। स्वयं भी उन्होंने १००० रुपये दिए। जून १९०० मे पुणे के पास हिंगणे में एक छोटा-सा मकान बनाकर आश्रम की स्थापना की गई। उस समय आश्रम में आठ विधवाएं और दो अविवाहित लड़कियां थी| उन दिनों कर्वे अत्यंत व्यस्त रहते थे। कालिज में पढ़ाकर दोपहर को घर लौटकर भोजन करते और तुरंत हिंगणे चले जाते। वहां शाम को और सुबह लड़कियों को पढ़ाकर सुबह वापस पुणे को रवाना हो जाते थे। इस तरह घर में रहने का समय उनको नहीं के बराबर मिलता था।
महिला विद्यालय की स्थापना
सात वर्ष बाद ४ मार्च १९०७ को उन्होंने महिला विद्यालय की स्थापना की। शुरू में इसमें केवल छह छात्राएं थी। १९११ तक महिला विद्यालय का अपना भवन बनकर तैयार हो गया और प्रो. कर्वे का एक और स्वप्न पूरा हो गया।
सन् १९१४ में प्रो. कर्वे फर्गुसन कालिज में रिटायर हुए। अगले ही वर्ष उनके जीवन ने एक नया मोड़ लिया। काशी के बाबू शिवप्रसाद गुप्त जापान गए थे और वहां के महिला विश्वविद्यालय से प्रभावित हुए थे। इस विश्वविद्यालय के संबंध में एक पुस्तिका उन्होंने प्रो. कर्वे को भेज दी।
उसी वर्ष दिसंबर में मुंबई में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन के साथ नेशनल सोशल कांफ्रेस का अधिवेशन भी होना था। प्रो. कर्वे उसके अध्यक्ष चुने गए। उस पुस्तिका से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण का मुख्य विषय “महाराष्ट्र में महिला विश्वविद्यालय” बनाया | अपने भाषण में उन्होंने दो बातों पर जोर दिया। एक यह कि प्रभावकारी ढंग से शिक्षा तभी दी जा सकती है, जब वह मातृभाषा के माध्यम से दी जाए।
दुसरी यह कि राष्ट्रीय और सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियो का कार्यक्षेत्र पुरुषों से भिन्न होता है और इसलिए उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा मिलनी चाहिए। तथापि जो स्त्रिया चाहे, वे पुरुषों के समान शिक्षा लें।
उनके इस विचार पर बड़ी रोचक चर्चा हुई। पुणे आकर उन्होंने मित्रों से चर्चा की। कुछ ने प्रोत्साहन दिया, तो कुछ चाहते थे कि अभी कुछ समय प्रतीक्षा की जाए | महात्मा गांधी ने भी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना और मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के विचार का स्वागत किया। तब ५७ वर्षीय प्रो. कर्वे इस योजना पर जी-जान से जुट गए। छह महीने में ही विश्वविद्यालय की सीनेट का चुनाव हो गया और उसकी पहली बैठक ३ और ४ जून १९१६ को पुणे में हुई। उसी महीने के अंत में महिलाश्रम हिंगणे की छह छात्राएं इसकी एंट्रेस परीक्षा में बैठी और उनमें से चार सफल हुई।
१६ जुलाई को महिला पाठशाला के नाम से इस विश्वविद्यालय की सफलता के लिए पहली आवश्यकता थी, धन की। इसलिए प्रिंसिपल का पद त्यागकर वह धन-संग्रह के लिए निकल पड़े। देश का कोई कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। चार वर्ष में ही सारे खर्च निकालकर विश्वविद्यालय के पास दो लाख सोलह हजार रुपये से भी अधिक राशि जमा हो गई।
एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय की स्थापना
इस बीच मुंबई के प्रसिद्ध व्यापारी और उद्योगपति सर विट्ठलदास डी. ठाकरसी इस विश्वविद्यालय को १५ लाख रुपये का दान देने को तैयार हो गए। इसी कारण विश्वविद्यालय का नाम उनकी माता श्रीमती नत्थीबाई दामोदर ठाकरसी के नाम पर रखा गया और कुछ वर्ष बाद इसे पुणे से मुंबई ले जाया गया। यही विश्वविद्यालय एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध है।
इस समय तक प्रो. कर्वे ७० वर्ष के हो चुके थे, पंरतु उनका उत्साह मंद नहीं पड़ा। इस वृद्धावस्था में भी वह विश्वविद्यालय के लिए धन-संग्रह करने के लिए एक बार यूरोप व अमरीका और दूसरी बार अफ्रीका गए।
महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति की स्थापना
सन् १९३६ तक विश्वविद्यालय सूचारु रूप से चल रहा था। महाराष्ट्र में स्त्री-शिक्षा का व्यापक प्रचार हो चुका था। प्रो. कर्वे की उम्र ७८ वर्ष की हो चुकी थी। पर आराम करना तो वह जानते ही न थे। तब उनका ध्यान इस ओर गया कि हमारे गांवों में शिक्षा का प्रचार नहीं के बराबर है। इसलिए १९३६ में उन्होंने महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति की स्थापना की। इस समिति का उद्देश्य यह था, कि जिन गांवों में स्कूल नहीं है, वहां लोगों को पढ़ाने के लिए स्कूल खोले जाएं। इस बार भी स्वयं उन्होंने एक स्कूल खोला और अपनी ७० रुपये की मासिक पेंशन में से १५ रुपये इस स्कूल को देने लगे। धीमे-धीमे ४० ऐसे स्कूल खुल गए। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद यह कार्य राज्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिया।
प्रो. कर्वे ने अपनी संस्थाओं के लिए लाखों रुपये इकट्ठे किए थे। परंतु इस कारण उनमें कोई घमंड नहीं आया। एक बार उनकी एक छात्रा चंदा इकट्ठा करने गई। उसे जब किसी ने चार आने देने चाहे तो उसने तुच्छ समझकर नहीं लिए। जब प्रो. कर्वे को पता चला तो वह बड़े नाराज हुए।
उन्होंने उसे समझाया कि “यदि मेरे ३० करोड़ देशवासियों में से हर व्यक्ति एक-एक पैसा भी दे तो मैं अपनी सभी संस्थाएं आराम से चला लूंगा।“
महर्षि धोंडो केशव कर्वे को प्राप्त उपाधि
अब तक प्रो. कर्दे की ख्याति देश-भर में फैल चुकी थी। १९४२ में वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें “डाक्टर आफ लैटर्स” की उपाधि से विभूषित किया। नौ वर्ष के बाद पुणे विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि प्रदान की।
१९५४ में उनके अपने महिला विश्वविद्यालय ने “डाक्टर आफ लाज” की उपाधि दी।
१९५५ में उन्हें भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया।
१९५७ में १०० वर्ष के होने के बाद मुंबई विश्वविद्यालय ने उन्हें “डाक्टर आफ लाज” की उपाधि दी।
१९५८ में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न” प्रदान किया।
महर्षि धोंडो केशव कर्वे की मृत्यु
९ नवंबर १९६२ को १०४ वर्ष की अवस्था में भारत का यह महान सपूत चिर निंद्रा में सो गया।