...

महाराणा प्रताप का इतिहास | महाराणा प्रताप इन हिंदी | इतिहास महाराणा प्रताप | Maharana Pratap History in Hindi

 

महाराणा प्रताप | Maharana Pratap


ये कहानी है राजस्थान की शान
की
, मेवाड़ के गौरव
की
, और चित्तौड़ के अभिमान की । यह उस चित्तौड़ की
कहानी है जिसने भारत को महान भक्त दिए – मीरा जैसी भगवद्भक्ति
, पन्ना जैसी
स्वामिभक्त
, और राणा प्रताप
जैसा देश भक्त ।

मेवाड़ के लिए कितनी भाग्यशाली और भारतवर्ष के लिए कितनी
स्मरणीय तिथि है ३१ मई १५३९
क्योकी इसी दिन उदयपुर
में राणा सांगा के पौत्र और उदयसिंह के पुत्र प्रताप जन्मे थे ।

महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षण था । उनका कद
लंबा
, गठन मजबूत,  आंखे बड़ी-बड़ी , चेहरा भरा हुआ, मुछे घनी,  हाथ लंबे और सीना चौड़ा
था । उनका रंग गेहुंआ था । वह दाढी नहीं रखते थे । उनके मुखमंडल पर इतना अधिक तेज
था कि कोई भी उनके प्रभाव से अछुता नहीं रह सकता था। उनकी धमनियों में राणा सांगा
की वीरता समाई हुई थी और हृदय में देश प्रेम हिलोरे लेता था ।

राणा सांगा ने मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर से टक्कर ली
थी । महाराणा प्रताप ने अकबर जैसे शक्तिशाली बादशाह कि नाक में दम कर दिया । लेकिन
दुर्भाग्य से महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह बड़े विलासी निकले । उन्होंने १८
विवाह किए जिनसे २४ पुत्र हुए । इनमें से प्रताप सिंह
, जगमाल और शक्तिसिंह विशेषकर उल्लेखनीय हैं।
उदय सिंह की कुवासनाओं का एक और रूप
यह भी था की मृत्यु से पहले उन्होंने
ज्येष्ठ पुत्र प्रताप के बजाय अपनी प्रिय रानी भट्टयाणी के विलासी पुत्र जगमाल को
युवराज और राज्य का मालिक बनाया ।

उदय सिंह के शासन काल में शिवपुर कोटा तथा चित्तौड़ जैसे
दुर्गों पर अकबर का अधिकार हो चुका था । राजपूत अब मेवाड़ का अधिक पतन न देख सकते
थे। चंदावत कृष्णजी के नेतृत्व में उन्होंने
उस विलासी राजा के कार्यो पर प्रश्न किया | और मेवाड़ से यह अनाचार न देखा गया ।

प्रताप पर सबकी दृष्टि टिकी थी | प्रताप ने बचपन से ही राणा सांगा के शौर्य की और पद्मिनी के
जौहर की कहानियां सुनी थी । राणा ने स्वयं चित्तौड़ की दुर्दशा देखी थी और भारत की
गौरव गाथाएं सुन रखी थी । उनकी धारणा थी – राजपूतों का धर्म है
, देश के लिए जीवन की आहुति देना ।

और राणा ने प्रण कर रखा था – चित्तौड़ वापस ले कर रहूंगा ।

तीर-तलवार चलना और घोड़े की सवारी तो राणा प्रताप के बचपन
के खेल थे । युद्ध कला में भी वह प्रवीण थे । ऐसे गुणों और आदर्शों वाले राणा
आदर्श महाराणा ही थे ।

उदयपुर से १९ मील दूर उत्तर पश्चिम में स्थित गोगुंदा में
प्रताप को ३ मार्च १५७२ को मेवाड़ के सिंहासन में बैठाया गया।  उन्होंने प्रतिज्ञा की – “चित्तौड़ का उद्धार
हमारा लक्ष्य है और बलिदान हमारा मार्ग है चाहे सागर मर्यादा छोड़ दे
, हिमालय गौरव और
सूर्य तेज
, किंतु प्रताप
प्राण छोड़कर भी प्रण न छोड़ेगा। जब तक चित्तौड़ स्वतंत्र न होगा
, न मै सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन करूंगा, न कोमल शय्या पर
सोऊंगा
, न राजमहलो में
वास करूंगा
, न कोई उत्सव
मनाऊंगा
, न रण में अपने
गौरव की घोषणा करूंगा
, न ही मूंछों पर ताव दूंगा।“

इतिहास साक्षी हैं राणा ने मेवाड़ के पर्वतों को ही दुर्ग
और उसकी गुफाओं को ही महल समझा । पत्तों को थाली
, तालाब को कुआ, पत्थरों को तकिया, चांद को दीपक और
आकाश को छत मानकर ही देश की शान
, धर्म की आन, और जाति के मान
की रक्षा करते-करते सारा जीवन व्यतीत कर दिया ।

कुछ समय बाद अकबर ने राणा
प्रताप को नीचा दिखाना चाहा । मानसिंह के सेनापतित्व में मुगल और राजपूत सैनिकों
ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया । राणा के पास केवल मुट्ठीभर सैनिक थे । भयंकर गर्मी
में १८
जून १५७६ को हल्दी
घाटी में घोर युद्ध हुआ । राजपूतों ने मुगलों को लोहे के चने चबवाए।

इसी युद्ध में जब राणा ने एड़ लगाई तो उनका वीर घोड़ा चेतक
मानसिंह के हाथी पर जा उछला । ज्यो ही उसके अगले टाप हाथी के मस्तक पर पड़े
, महाराणा ने
मानसिंह पर भाले का वार किया ।मानसिंह झुक गया और हाथी उसे लेकर भाग निकला । हाथी
की सूंड के वार से चेतक को जख्मी कर दिया था। जब महाराणा लौट रहे थे
, तो दो मुगल उनके पीछे हो लिए । शक्तिसिंह ने
उन्हें घोड़ा-दौड़ाते देख लिया । भातृ प्रेम उछाले मारने लगा । भाई की ममता ने
विद्रोह कर दिया
, उनसे रहा ना गया
। क्षण भर में दोनों मुगलों के चार टुकड़े कर दिए । शक्तिसिंह मेवाड़ को मा कहकर
पुकारना चाहते थे और प्रताप भैया शब्द सुनने के लिए व्यग्र हो उठे । बिछुड़े दिल
फिर मिल गए । हल्दी घाटी से एक कोष दूर “
बलीचा” गांव के पास नाला
पार करते समय चेतक ने गिरकर प्राण दे दिए । कहते है उस स्थान पर प्रताप ने प्रिय
चेतक की स्मृति में चबूतरा बनवाया था । पहला चबूतरा तो अब नहीं रहा किंतु उक्त
स्थान पर एक मिट्टी का चबूतरा अब भी है जिस पर एक घुड़सवार की मूर्ति बनी है ।

राणा से मिलकर शक्ति ने भी मुगलों के दांत खट्टे करने शुरू
कर दिए । हल्दी घाटी का भीषण युद्ध समाप्त हुआ। राणा ने सोधा की पहाड़ियों में
अपना शिविर बनाया । युद्ध के समय विजय कि आशा न होने पर राणा ने आज्ञा दी थी – “सब
फ़सल जला डालो । सब खेत नष्ट कर दो ।ऐसा न हो कि शत्रु अन्न प्राप्त कर अधिक
शक्तिशाली हो जाए ।“

अब यह दुर्दशा थी कि प्रताप के रहे सहे सैनिक भी भूखे मरने
लगे
, और तो और उस राणा के
यहां भी घास की रोटियां पकाई गई । महल छोड़े
, महलों के आराम छोड़े, भाग्य में ये भी
न था कि घास की रोटियां नसीब हो । ज्यो ही महारानी भ्रमा मयी ने अपनी छोटी बेटी को
घास की बनी रोटी दी । एक बनबिलाव उसे छिन भाग खड़ा हुआ । भूखी बच्ची से रहा न गया
। वह रो उठी भूख लगी है मां मुझे खाना दो।

प्रताप मानव ही तो थे । आंखो में आते आसुओं को रोक न सके
।  दो बूंदे गिर ही पड़ी । सब कुछ होते हुए
भी वह पिता थे । महाराणा ने उसी समय अकबर को संधि पत्र लिखा। वह कह उठे — मै तो
वन का भिखारी बनूं
,
किंतु इन फूल से बच्चो ने क्या पाप किया है जो वे जंगलों
में भटके
, भूखे मरे और
प्यासे बिलखे
?

संधि पत्र अकबर के पास पहुंचा । आज उसका स्वप्न सच्चा हो
गया था ।

पृथ्वीराज अकबर के दरबार में राजकवि थे। जब उन्हें प्रताप की चिट्ठी की खबर मिली
तो सन्न रह गए । उनसे न सहा गया कि हिमालय पृथ्वी पर झुक जाए और
राजकणो से संधि करे । राजस्थान का गौरव लूटता
उनसे न देखा गया । उन्होंने एक युक्ति सोच निकाली । बोले – “जहांपनाह
, मुझे तो विश्वास
नहीं है कि यह प्रताप ने लिखा हो । यह शत्रु का धोखा है । मैं उनकी हस्तलिपि भली-भांति
पहचानता हूं। ये उनके हस्ताक्षर नहीं है ।

अकबर के स्वप्न बिखर गए। उधर पृथ्वीराज ने प्रतिज्ञा की – “मैं
अपनी कविता की प्रेरणा से डूबते प्रताप को बचाऊंगा ।“

प्रताप के पास पत्र भेजा गया और सोया सिंह जाग उठा । आत्मसम्मान की रक्षा की
लालसा फिर से हिलोरे लेने लगी । राणा मन में बोल उठे – “पृथ्वी ! मैं तुम्हारे पथ
प्रदर्शक के लिए कृतज्ञ हूं।“

उन्होंने संदेश भेजा – “पृथ्वी ! तुम्हारे पत्र का पूर्ण
उत्तर मैं लेखनी से नहीं । तलवार से दूंगा ।“

स्वदेश प्रेम ने पिता की ममता पर विजय पाई । महान
संगठनकर्ता महाराणा ने पुनः भीलो को एकत्र कर उन्हें सैनिक शिक्षा दी । मेवाड़
मंत्री भामाशाह ने जीवन भर की कमाई हुई संपत्ति राणा के चरणों में रख दी ।
शक्तिसिंह ने भी यथेष्ठ धन ला महाराणा को भेंट किया । अमरसिंह भी अब युद्धस्थल में
उतरने योग्य हो गए थे । महाराणा के निमंत्रण पर कितने ही नरेशो ने अपनी सेना और
संपत्ति उन्हें सौंप दी।

उन्हीं दिनों की एक और घटना है, महाराणा प्रताप
के पुत्र अमर सिंह ने रहीम खानखाना के शिविर पर आक्रमण किया । शराब के नशे में
मस्त मुगलों को गाजर मूली की तरह काट मृत्यु के मुंह
मे धकेला । यह मुगलों कि ही युद्ध काला का उत्तर
था। लौटते समय अमरसिंह अस्त्र-शास्त्र तो लाए ही
, किंतु रहीम की
पत्नी जीनत को भी बंदी बना लाए । जब प्रताप को यह समाचार मिला तो वह क्रुद्ध हो
गरजे – “अमर ! ऐसा करने से पहले तुम मर गए होते तो अच्छा था। क्या तुम्हारा विवेक
लुप्त हो गया था
? क्या स्त्री को
बंदी बनाते तुम्हे लज्जा न आयी
? कहो चुप क्यों हो ?

अमर ने उत्तर दिया – “निः संदेह मैंने बहुत बुरा किया ।
किंतु मैंने यह सब मुगलों को शिक्षा देने के लिए ही किया है । वे हमारी बहू
बेटियों से कितना दुर्व्यवहार करते हैं। अब वे भी अनुभव कर सकेंगे कि बहू बेटियां
खोकर
दिल  कैसे तड़प उठता है, हृदय में कैसी
टिस उठती हैं ।“

प्रताप ने आज्ञा दी इस नारी को रहीम के यहां सादर पहुंचा आओ

इसके पश्चात एक के बाद दूसरा युद्ध हुआ।  धीरे-धीरे महाराणा ने ३२ दुर्गों पर विजय पाई।
किंतु अभी चित्तौड़
,
अजमेर और मांडलगढ़ न जीत पाए थे, कि १९ जनवरी १५९७ को ५७ वर्ष की आयु में चावंड
नामक गांव में स्वर्ग सिधार गए । उदयपुर के दक्षिण चावंड में महाराणा प्रताप की
छतरी यानी समाधि अभी भी मौजूद हैं।

राजपूतों में बड़े-बड़े योद्धा हुए और बड़े-बड़े सेनानी हुए
। राजनीतिज्ञ भी राजपूतों के कितने ही हुए । किंतु राणा प्रताप जैसा धीर
, वीर, राष्ट्रप्रेमी और
स्वाभिमानी कोई नहीं हुआ । सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अकबर का साम्राज्य
दुनिया भर में सबसे अधिक शक्तिशाली था । संसार के प्रबलतम और साधन संपन्न अकबर
जैसे शक्तिशाली सम्राट का सामना करने के लिए राणा प्रताप के पास क्या था
? न उनके पास कोई
व्यवस्थित बड़ा राज्य था
, न अपनी राजधानी थी । आसपास के अनेक राजपूत और यहां तक की
उनके अपने भाई भी मुगलों की शरण में जा चुके थे । राजकोष में धन न था। मुट्ठीभर
स्वामिभक्त साथियों को छोड़ कोई सहायता के लिए तैयार न था ।  अस्त्र-शस्त्र भी बहुत थोड़े थे और जो थे भी वो
अकबर कि सेना के हथियारों की तुलना में क्या थे
,? फिर भी राणा
प्रताप ने अकबर को लोहे के चने चबवा दिए । अपने साहस के बल पर उन्होंने किसी भी
शर्त पर झुकना स्वीकार नहीं किया। संसार में किसी भी देश के इतिहास में शुरवीरता
की इतनी उज्जवल कीर्ति वाले महापुरुष कम ही मिलेंगे । 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Seraphinite AcceleratorOptimized by Seraphinite Accelerator
Turns on site high speed to be attractive for people and search engines.