माइकल मधुसूदन दत्त | Michael Madhusudan Datt

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माइकल मधुसूदन दत्त

 Michael
Madhusudan Datt


बंगला साहित्य में मुक्त छंद के प्रवर्तक माइकल मधुसूदन
दत्त का जीवन विचित्र था। बंगाल प्रांत
  के सागरदाड़ी गांव में २५ जनवरी , १८२४ को राजनारायण के घर मधुसूदन का जन्म हुआ। राजनारायण
की चार पत्निया थीं । पहली पत्नी से मधुसूदन पैदा हुए। उनके दो छोटे भाई तथा एक छोटी
बहन भी थी
, परंतु बचपन में
ही उनका देहांत हो गया
| इस कारण मधुसूदन अपने माता-पिता के बहुत प्यारे थे।
राजनारायण वकील थे और उनकी आय भी अच्छी थी।

मधुसूदन खर्चीले स्वभाव के थे और यह आदत उनको अपने पिता से
मिली थी। परंतु उनकी माता जाह्नवी देवी से मधुसूदन को कविता करने का गुण मिला
, जिसे प्राप्त कर
मधुसूदन अमर हो गए।

मधुसूदन बचपन से ही विद्यालय में पढ़ना बहुत पसंद करते थे।
बचपन से ही उनका निश्चय था कि वह अपने जीवन में प्रसिद्धि प्राप्त करेंगे।

गांव की पाठशाला की शिक्षा समाप्त करने के बाद राजनारायण
बाबू ने मधुसूदन को कलकत्ता के हिंदू कालेज में दाखिल कराया। उस समय भारत में
हिंदू सभ्यता विरोधी शिक्षा का प्रचलन था। अंग्रेजी सभ्यता
, अंग्रेजी राजनीति, अंग्रेजी संस्कार
और ईसाई धर्म से प्रेम करना उस शिक्षा का मुख्य ध्येय था। धनी पिता की अकेली संतान
होने के कारण मधुसूदन संस्कार से ही चंचल थे और अब नए स्थान में नए प्रलोभनों
द्वारा शीघ्र आकृष्ट हो गए। खाना
, पीना और पहनना सब
में वह पक्के साहब बन गए। अंग्रेजी वेशभूषा के अतिरिक्त वह अंग्रेजी भाषा सीखने
में भी निपुण हो गए। इस भाषा में उन्होंने कविता लिखनी भी आरंभ कर दी।

घर में जब उनके विवाह की व्यवस्था हो रही थी तो एक दिन
मधुसूदन घर से भाग गए। वह ९ फरवरी १८४३ को ईसाई बन गए। धर्म परिवर्तन करके श्री
मधुसूदन
माइकल मधुसूदन बने। अन्य धर्मी
होने से माता-पिता मधुसूदन को घर में नहीं रख सके
, यद्यपि उनका
पुत्र-स्नेह कुछ भी कम नहीं हुआ। लेकिन एक दिन पिता ने पुत्र
से परेशान होकर मधुसूदन की आर्थिक सहायता
बंद कर दी। इससे मधुसूदन को बहुत कष्ट पहुंचा। अवस्था ऐसी हुई कि उनको अर्थ
उपार्जन के लिए मद्रास जाना पड़ा। मद्रास में मधुसूदन को बहुत कष्ट उठाने पड़े।
वहां ईसाई बालकों को पढ़ाने का काम तो उन्हें मिला
, लेकिन इससे जो
पैसा आता था वह मधुसूदन के लिए बहुत थोड़ा था। कालेज में पढ़ते समय मधुसूदन खुशी
के लिए साहित्य-सेवा करते थे और अब उन्होंने पेट के लिए साहित्य-सेवा शुरू की। समय
आने पर उन्होंने लेखक के रूप में भी नाम कमाया।

शीघ्र ही मधुसूदन की अंग्रेजी रचना वन्दिनी नारी  प्रकाशित हुई। अंग्रेजी
में मधुसूदन लेखक तो बने
, किंतु मधुसूदन के
बाल्य बंधु गौरदास बसाक और आधुनिक भारत में स्त्री-शिक्षा के प्रवर्तक बेथून साहब
ने उनको समझाया कि किसी विदेशी को अंग्रेज़ साहित्यिक मान्यता नहीं देंगे और
इसीलिए मधुसूदन को चाहिए कि वह अपनी मातृ-भाषा बांग्ला में ही साहित्य रचना करें।
मधुसूदन का भी भ्रम मिट गया और वह बांग्ला भाषा सीखने लगे।

मद्रास में मधुसूदन ने रेबेका म्यावटमिस नामक एक स्काच
कुमारी से विवाह किया। लेकिन अपने स्वभाव के कारण लाचारी वश उन्हें यह विवाह-संबंध
तोड़ना पड़ा। इसके बाद
उन्होंने मद्रास कालेज के अध्यक्ष की कन्या से विवाह किया। उस समय मधुसूदन एक
दैनिक संवाद-पत्र के सहकारी संपादक और प्रेसीडेंसी कालेज में अध्यापक थे। लेकिन इन
कामों से जो पैसा मिलता था वह भी मधुसूदन के लिए
पर्याप्त नहीं था। आठ साल पश्चात
वह फिर बंगाल लौटे।

जब मधुसूदन मद्रास में थे उस समय उनके माता-पिता का देहांत
हो चुका था। उनके संबंधियों ने सोचा कि मधुसूदन भी मर गए होंगे। उन्होंने मधुसूदन
के पिता की संपत्ति पर अधिकार जमा लिया। मधुसूदन जब बंगाल वापस आए तो उन लोगों ने
उनको पहचाना तक नहीं। कलकत्ता मधुसूदन को नया मालूम हुआ।

समाजच्युत, अर्थहीन मधुसूदन
को अब दफ्तर में काम करना पड़ा। इस समय मधुसूदन ने बांग्ला में नाटक लिखना शुरू
किया। इनमें
शर्मिष्ठा”,पद्मावती इत्यादि प्रसिद्ध
हैं। काव्य-रचना में ही मधुसूदन को ज्यादा प्रसिद्धि मिली। उनके काव्य-ग्रंथों में
से केवल
मेघनाद-वध  ही उनका नाम स्मरणीय रखने
के लिए
पर्याप्त है।

पत्नी और संतानों को कलकत्ता में छोड़कर मधुसूदन बैरिस्टरी
पढ़ने के लिए विलायत गए। उधर कलकत्ता में उनकी पत्नी को रुपयों की आवश्यकता पड़ी
और वह भी पुत्र-कन्याओं को लेकर विलायत पहुंची। विलायत में बहुत कर्ज़ हो गया।
किसी से सहायता नहीं मिली। अंत में मधुसूदन ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर को पत्र लिखा
और उनकी सहायता से अपनी बैरिस्टरी की पढ़ाई समाप्त की। मधुसुदन ने १८३७ में
कलकत्ता हाईकोर्ट में बैरिस्टरी आरंभ की। इस काम से भी जो प्राप्ति हुई वह मधुसूदन
के लिए पर्याप्त नहीं थी। ऋण दिन-दिन बढ़ता ही रहा। इस समय भी मधुसूदन दान बहुत करते
थे।

मधुसूदन का शेष जीवन अतिशय शोचनीय अवस्था में बीता। पत्नी
की मृत्यु के पश्चात २९ जून १८७३
को अलीपुर
चिकित्सालय में मधुसूदन की मृत्यु हुई।

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