
विध्यारण्य – Vidhyaranya
विध्यारण्य चौदहवीं शताब्दी के एक महापुरुष हैं। उन्होंने
धार्मिक तथा राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में ख्याति प्राप्त की। उनका महत्व समझने के
लिए यह आवश्यक है कि उस समय की राजनीतिक और धार्मिक स्थिति पर एक दृष्टि डाली जाए।
सन् ७१२ई. में
अरबों ने सिंध प्रदेश को जीता किंतु अनेक राजपूत जातियों की वीरता के कारण वह आगे
ना बढ़ सके। १००० ई. के लगभग आक्रमण की दूसरी लहर आई और इस बार पंजाब हमारे हाथों
से जाता रहा। पर अब भी भारतीय ना जागे। उनकी पारस्परिक युद्ध चलते रहे। गुजरात के
चालुक्यों ने अजमेर के
चौहानों पर आक्रमण किया। उधर अजमेर के पृथ्वीराज चौहान ने अपने कार्यों से महोबा
के चंदेलो और कन्नौज के गाहडवालों से शत्रुता मोल ली । इसका फल यह हुआ कि ११९२ ई॰
के लगभग विदेशी आक्रमणों की जब फिर बाढ़ आई तो भारतीय राजा उनका सामना न कर सके और
कुछ वर्षों में ही मुसलमान भारत के पश्चिमी छोर से पूर्वी छोर तक फैल गए।
दक्षिण के भारतीय
राज्य, उत्तर भारत की इस दुर्दशा से कुछ सबक सीख सकते
थे किंतु विंध्य, सतपुड़ा आदि
पहाड़ों और गहन वनों से अपने को सुरक्षित समझकर वह भी अन्य भारतीय राजाओं की तरह एक दूसरे से लड़ते रहे। आखिर इसका फल भी वही हुआ। उत्तर भारत
के राजनीतिक पतन के लगभग १०० वर्ष बाद मानव इतिहास की पुनरावृत्ति हुई।
सन् १२९४ ई. मे जब जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली में राज्य कर रहा
था, तब उसके भतीजे अलाउद्दीन ने अकस्मात देवगिरी
के यादव राज्य पर धावा बोल दिया। इस विपत्ति का रामचंद्र यादव सामना ना कर सके और बहुत सा धन देकर उसने अपना पीछा छुड़ाया।
पर लगभग १२ साल में उत्तर भारत के अनेक भु-भागों को जीतने के बाद १३०७ ई में
अलाउद्दीन ने फिर अपनी सेनाएं दक्षिण की ओर भेजी। इस बार देवगिरी के राजा ने
दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली। वारंगल के राजा प्रतापरूद्र द्वितीय को भी कर देना
पड़ा। द्वारसमुद्र का राजा वीर बल्लाल तृतीय भी मुसलमानों से हारे। उधर पांडय राज्य के लिए सुंदर पांड्य और वीर पांडय एक
दूसरे से झगड़ रहे थे। इस स्थिति मे अलाउद्दीन के सेनापति मालिककफूर ने इस स्थिति का लाभ उठाया और सुंदरपांडय को
सहायता देने के बहाने मदुरा से होता हुआ भारत के दक्षिणी छोर तक पहुंच गया |
अलाउद्दीन की
उत्तराधिकारी मुबारक ने देवगिरि को मुसलमानी
साम्राज्य में मिलाया। फिर १३२३ई. में गयासुद्दीन तुगलक ने वारंगल को जीता। ५ वर्ष बाद १३२८ई. में मुसलमानों ने मदुरा पर भी
अधिकार कर लिया। १३३४ ई. में वहां एक मुसलमानी सल्तनत भी स्थापित हुई।
इस प्रकार १३३०
ई. तक भारत की सभी भू-भागों में मुसलमानों का आतंक छा गया। भारतीय अपने राज्य खो
बैठे। उनकी संस्कृति भी भय ग्रस्त थी। मंदिरों का स्थान मस्जिद ले रही थी। धर्मों का पालन कठिन होता जा रहा था। जिन तत्वों को
भारतीय जनता धर्म का मुख्य अंग समझती थी, उन्हीं पर
मुसलमानी आक्रमण से सबसे अधिक ठेस लगी थी।
ऐसी भयावह स्थिति
में दक्षिण भारत को किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो भारत का राजनीतिक और सांस्कृतिक उद्धार करें। पर इनका एक तरफा उद्धार ही काफी ना था क्योंकि इन दोनों का एक
दूसरे से घनिष्ठ संबंध हैं। जिस जाति में अपनी संस्कृति के लिए प्रेम ना हो,
वह अपनी राजनीतिक दृष्टि से दुर्बल हो, उसकी संस्कृति पर आघात होना और उसका हेय समझा जाना भी
अनिवार्य था। विध्यारण्य ने दक्षिण भारत की गंभीर समस्या के इन दोनों
पहलुओं को अच्छी तरह समझा और वह कार्यशील हुए।
विध्यारण्य का घर का नाम माधव था। उनके छोटे भाई थे सायण और भोगनाथ । पिता का नाम मायण
तथा माता का नाम श्रीमती था। उनकी पिता संभवतः विजयनगर राज्य के संस्थापक हरिहर और
बुक्क आदि के कुलगुरु थे। विध्यारण्य ने विशेष रुप से विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकंठ को गुरु के रूप में माना था। विद्यातीर्थ श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य थे।
भारतीतीर्थ भी वेदांत के ही उपदेशक थे। श्रीकंठ, विध्यारण्य और भोगनाथ के गुरु थे। काव्य साहित्य आदि की शिक्षा माधव
ने श्रीकंठ से प्राप्त की थी।
बालक माधव ने
अपने देश को बुरी तरह पद दलित होते देखा था। उस समय तक लोग चिदंबरम की पवित्र
तीर्थ को छोड़कर भाग गए थे। मंदिरों के गर्भगृह और मंडपो में घास उग आई थी।
अग्रहारो से यज्ञ धूप की सुगंध के स्थान पर पकते मांस की गंध आने लगी थी ।
तम्रपर्णी नदी का जल चंदन से मिश्रित होने के स्थान पर गौ रक्त से मिश्रित होने
लगा था। देवदायो और मंदिरों पर कर लग गए थे। अनेक मंदिर या तो स्वयं गिर गए थे या
गिरा दिए गए थे। हिंदू राज्य को छल और बल से मुसलमानों ने समाप्त कर दिया था।
माधव ने एक ऐसे
ही हिंदू राज्य में जन्म लिया था। द्द्वारसमुद्र के राजा
वीर बल्लाल समझदार थे तथा उन्हीं की संरक्षता में संगम आदि भाई पले थे । मायण और
माधव इन भाइयों के कुल गुरु थे। दक्षिण भारत की यह दुर्दशा माधव से ना देखी गई।
उन्होंने यथाशक्ति उसका उद्धार करने का निश्चय किया। अपने भाइयों और शिष्य को भी
उन्होंने इस कार्य के लिए अपने साथ जोड़ा।
१३३६ ई॰ में विध्यारण्य की संरक्षता में संगमराज के पुत्र हरिहर प्रथम, बुक्क आदि ने विजयनगर राज्य की स्थापना की। उस समय तक देश मुसलमानी अत्याचार
से परेशान हो चुका था। लोग
त्राहि-त्राहि चिल्ला रहे थे जनता को यह कष्ट दूर करना विध्यारण्य का कर्तव्य था।
उनके छोटे भाई सायण विद्वान और अच्छे सेनापति थे। उधर भोगनाथ अच्छे कवि थे। विध्यारण्य कभी सेनापति नही रहे, किंतु कौटिल्य के बिना स्वयं तलवार उठाए नंद साम्राज्य को समाप्त और नवीन साम्राज्य की स्थापना की थी। संभव है विध्यारण्य का कार्य उसी ढंग
का और उतना ही महत्वपूर्ण रहा हो। उनके आदेश पर चलकर संगम राज के पुत्रों ने दक्षिण
में भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित किया। उन्होंने मोहम्मद बिन तुगलक के अनेक
सेनापतियों को कई जगह हराया और अंत में विजयनगर मे विशाल साम्राज्य की स्थापना की। यह देख कर
हिंदुओं में जोश की एक नई लहर आ गई। इस राज्य की स्थापना का समाचार जब जिंजी
पहुंचा, तो वहां की राजा ने मुसलमानों पर आक्रमण कर
दिया उन्हें हराया और श्री रंगनाथ की पुनः प्रतिष्ठा की। बुक्क राय की वीर पुत्र
कंपन ने प्राचीन मंदिरों को फिर बनवाया और उनमें फिर पूजा शुरू की। सायण ने संगम
द्वितीय को सुशिक्षित करने के अलावा अनेक युद्धों में सेना का नेतृत्व भी किया।
इस महान राजनीतिक
काम को पूरा करने के साथ-साथ विध्यारण्य ने हिंदू धर्म
के सिद्धांतों को जनता के सम्मुख रखने का काम भी अपने हाथों में लिया। “पराशरमाधवीय” में उन्होंने हिंदू धर्म शास्त्र और व्यवहार
शास्त्र का अच्छा प्रतिपादन किया है। पंडितों में उसका प्राय वैसे ही मान है जैसा
मनुस्मृति का। यह रचना उन्होंने संभवतः १३५४ ई॰ के आसपास की है।
विध्यारण्य का विश्वास था कि सच्चिदानंद पर ब्रह्मा के
सिवा कहीं भी कोई वस्तु नहीं है और आत्मा उससे अभिन्न है। जो व्यक्ति इस सिद्धांत
के अनुसार काम करें वह जीवन मुक्त हैं।
सन् १३७७ ई. के
आसपास माधव विध्यारण्य के नाम से सन्यासी हो गए। किंतु हिंदू धर्म के संरक्षण के
लिए उनका अनुराग वैसे ही बना रहा। कहते हैं कि विध्यारण्य ने वैष्णोधर्म की महान शिक्षक वेदांत देशिक को भी इस कार्य
में लगाने का प्रयत्न किया था। १३८६ ई. में विजयनगर के राजा हरिहर द्वितीय ने चार
वेदों पर भाष्य लिखने वाले कुछ विद्वानों को विध्यारण्य की उपस्थिति में सम्मानित किया।
विध्यारण्य का जनता के हृदय में कितना सम्मान था, यह कई बातों से सिद्ध हैं। १३८० ई॰ में हरिहर द्वितीय की
एक भांजे ने विध्यारण्य की शिष्य विद्याभूषण दीक्षित को एक अग्रहार
दक्षिणा में दिया और उसका नाम विध्यारण्य के नाम पर रखा। हरिहर
ने विध्यारण्य के नाम पर हंपी में एक मंदिर भी बनवाया।
विध्यारण्य वास्तव में युग नेता थे। उनमें नेतृत्व की
विलक्षण क्षमता थीं। यह उन्हीं के प्रयत्नों का फल था कि भारतीय संस्कृति दक्षिण
भारत में बच गई संस्कृत साहित्य और दर्शन में नई स्फूर्ति आई और भारतीय राजा अपने
लिए वेदमार्ग प्रतिष्ठा और वैदिक प्रतिष्ठा आदि शब्दों का प्रयोग कर सकें।