मिर्ज़ा इस्माइल | Mirza Ismail
मैसूर, जयपुर और हैदराबाद जाने वाले पर्यटक इन शहरों की प्रगति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। इन नगरों की उन्नति के पीछे सर मिर्जा इस्माइल (Mirza Ismail) का बहुत बड़ा हाथ था। १९२६ से १९४१ तक वह मैसूर के दीवान रहे और बाद में हैदराबाद और जयपुर के प्रधानमंत्री थे ।
मिर्ज़ा इस्माइल का जन्म
मिर्जा इस्माइल का जन्म २४ अक्टूबर १८८३ में बंगलौर में हुआ था। उनके पूर्वज फारस से आए थे | वे घोड़ों का आयात कर सेना को सप्लाई करते थे, उनके पिता का नाम आगाजन था।
मिर्ज़ा इस्माइल की शिक्षा
जब मिर्जा छोटे थे, तो वह मैसूर के महाराजा श्री कृष्णराज वाडियार के सहपाठी थे। १९०५ में उन्होंने सेंट्रल कालेज से डिग्री प्राप्त की। उसी वर्ष उन्होंने मैसूर सिविल सर्विस में प्रवेश किया |
मिर्ज़ा इस्माइल के कार्य
१९२६ में मैसूर के दीवान नियुक्त हुए। इस कार्य को उन्होंने बड़ी लगन और योग्यता के साथ १५ वर्ष तक संभाला। वह पहले मुसलमान थे जो किसी हिंदु राज्य में दीवान बने। वह आधुनिक मैसूर के योग्य प्रशासक, वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और निर्माताओं में से माने जाते हैं।
उनके सफल नेतृत्व में मैसूर राज्य ने सभी क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगति की। सर विश्वेश्वरैया का, जो आधुनिक मैसूर के निर्माता माने जाते हैं, नारा था “औद्योगीकरण या विनाश”। सर इस्माइल ने उनकी योजनाओं को कार्यरूप दिया और राज्य में २५ विभिन्न उद्योग कायम किए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थे – स्टील, सीमेंट, कागज, शक्कर, रासायनिक उर्वरक, हवाई जहाज, कांच, चीनी-मिट्टी, कृषि-औजार, नकली रेशम आदि के कारखाने।
शिम्शा और जोग प्रपात पर स्थित पनबिजली घर स्थापित करवाने का श्रेय सर इस्माइल को है। मैसर और वहां की बनी चीजों से उन्हें इतना प्रेम था, कि अपने एक प्रसारण में उन्होंने लोगों से कहा था कि वे मैसूर के साबुन से नहाएं, मैसूर के तौलियों से बदन सुखाएं, मैसूर का रेशम धारण करें, मैसूर के घोड़ों पर बैठे और मैसूर में उत्पन्न धान का सेवन करें, मैसूर की काफी, मैसूर की शक्कर मिलाकर पिएं, मैसूर के फनीचर इस्तेमाल करें, मैसूर के लैम्प जलाएं और मैसूर के बने कागज पर पत्र व्यवहार करें।
मैसूर के विख्यात वृंदावन उद्यान की छटा निराली है। अंधकार होते ही वातावरण में एक तरह का जादू उत्पन्न हो जाता है। रंगीन फव्वारों की कतारे कृत्रिम रोशनी में चमक उठती है। इस अद्वितीय उद्यान की स्थापना उन्हीं के कर-कमलों द्वारा हुई थी।
वह स्वयं मुसलमान थे और सभी धर्मों का सम्मान करते थे। विश्व के ईसाई विद्यार्थियों का २१वां सम्मेलन १९३७ में एशिया में पहली बार मैसूर में आयोजित हुआ | जिसका श्रेय सर मिर्जा इस्माइल को था। उन्होंने संस्कृत अध्ययन को भी बढ़ावा दिया।
नगरों और गांवों के विकास में मिर्जा इस्माइल की गहरी रुचि थी। उन्होंने नगरपालिकाओं को सफाई और सुंदरता के लिए धन राशि अलग रखने को उत्साहित किया। अक्सर वह अपने कर्मचारियों के साथ घोड़े पर निकलते और उन्हें निर्देश देते कि कहां क्या किया जाना चाहिए जिससे जनता को सभी सुविधाएं उपलब्ध हो सकें।
आजादी के आंदोलन को शुरू से उनका समर्थन प्राप्त था और १९२६ और १९३३ में मैसूर विधान सभा में उन्होंने असहयोग आंदोलन का अपरोक्ष रूप से समर्थन किया था। लार्ड इरविन जो १९२६ में भारत के वाइसराय थे, मिर्जा के भाषण से प्रसन्न हुए, किंतु १९३३ में भारत के वाइसराय लार्ड विलिंगडन ने उनकी प्रसन्नसा की थी।
मिर्ज़ा इस्माइल ने बंगलौर में मस्तिष्क चिकित्सालय बनवाया था, जो एशिया का अपने ढंग का माना जाता था। यह अब “आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेंटल हेल्थ” के नाम से विख्यात है। भारत में ग्रामीण विद्युतीकरण उन्होंने शुरू कराया। उनकी योजना पूरे राज्य में बिजली लगाने की थी, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण उनका यह स्वप्न पूरा न हो सका।
ब्रिटिश सरकार ने सर मिर्जा से खुश होकर वार्षिक अनुदान की रकम जो कि मैसूर के महाराजा को संधि के अंतर्गत देनी पड़ती थी, ३३ लाख से घटाकर साढ़े २२ लाख रुपये कर दी। सर मिर्जा महात्मा गांधी के अच्छे मित्र में से थे, गांधीजी ने उनके राज्य को राम राज्य कहा था। लार्ड सैन्के ने, जो १९३७ में लंदन में हुई गोल-मेज सभा के अध्यक्ष थे, मैसूर को विश्व के लिए एक नमूना बताया था।
लंदन में हुई इंडियन राउंड टेबल कांफ्रेंस में सर मिर्जा ने कुछ रियासतों का प्रतिनिधित्व किया था। उन्होंने भारत की एकता बनाए रखने के लिए श्री जिन्ना से संघीय सरकार बनाने पर राजी होने के लिए कहा था जिससे देश का बंटवारा न हो। किंतु जिन्ना ने उनकी एक न सुनी और उन्होंने सर इस्माइल को शत्रु करार दिया।
श्री मोतीलाल नेहरू मैसूर की उन्नति देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सर मिर्जा को सकुटुम्ब मैसूर भ्रमण का वचन दिया था। सन् १९४१ को मैसूर सिविल सर्विस से अवकाश प्राप्त करने के बाद, जयपुर के महाराजा के अनुरोध पर वह जयपुर रियासत के १९४१ से १९४६ तक प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने जयपुर में प्रतिनिधि सभा तथा विधान परिषद की स्थापना करवाई। उनके द्वारा राजस्थान के पहले विश्वविद्यालय की नींव रखी गई। उन्होंने नगरपालिका में सुधार कराए और कई उद्योग स्थापित किए।
चार वर्ष की विशिष्ट सेवा के बाद मिर्ज़ा इस्माइल ने जयपुर से अंतिम विदा ली और निजाम के आग्रह पर हैदराबाद के प्रधानमंत्री बने। वहां उन्होंने भ्रष्ट कर्मचारियों को उनके पदों से हटाना शुरू कर दिया, जिससे प्रशासन में सुधार हुआ। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच मतभेद दूर कराए। शुरू में निजाम ने उनके कार्यों का पूर्ण स्वागत किया। दुर्भाग्यवश मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने उनका वहां रहना दुष्कर बना दिया। बाद में कट्टरपॅथियों के आंदोलन के कारण निजाम को झुकने के लिए विवश होना पड़ा। मिर्जा को त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद बड़े-बड़े पदों के ग्रहण करने के कई प्रस्ताव आए किंतु उन्होंने सबको ठुकरा दिया।
हैदराबाद छोड़ने के बाद भी वह निजाम को समय के साथ चलने की सलाह देते रहे। उन्हें मिर्जा ने सलाह दी कि अपना राज्य स्वतंत्र भारत को दे दें। श्री नेहरू के अनुरोध पर श्री मिर्जा ने इंडोनेशिया में संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रतिनिधि होना स्वीकार किया। वहां भी उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति श्री सुकर्ण को जन-प्रशासन में सुधार करने के लिए सलाह मशविरे दिए। संयुक्त राष्ट्र की मदद से उन्होंने एक विकास योजना शुरू करवाई, किंतु दुर्भाग्य से उन्हें इंडोनेशिया छोड़ना पड़ा। मिर्जा इस्माइल ने पश्चिम जर्मनी के एक विशेषज्ञ को आमंत्रित किया था, जिसका सुकर्ण के अधिकारियों ने अपमान किया। तब मिर्जा इस्माइल ने त्याग पत्र दे दिया।
स्वर्गीय सी. विजयराधवचारियार ने, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे, कहा था – “मिर्जा स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल के पद के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं।“
मिर्ज़ा इस्माइल की मृत्यु
यह महान प्रशासक बंगलौर में ही ५ जनवरी १९५९ को स्वर्ग सिधारे।