मिर्ज़ा ग़ालिब | Mirza
Ghalib
उर्दू साहित्य के एक पारखी ने लिखा है कि मुगल साम्राज्य
में हमे तीन चीज़े दी है – ताजमहल, उर्दू और गालिब ।
ग़ालिब उर्दू के बहुत ही विख्यात कवि थे, केवल उर्दू के ही
नहीं, फारसी के भी ।
उनका पूरा नाम मिर्ज़ा असदुल्ला बेग खा ग़ालिब था । उनके
दादा कौकान बेग खा अपने पिता से नाराज़ होकर
शाह आलम के ज़माने में समरकंद से हिंदुस्तान चले आए । कौकांन बेग खा की औलाद में
चार बेटे और तीन बेटियां थीं । मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी फूफियो में से एक को बहुत
मानते थे । मिर्ज़ा ग़ालिब को उनसे इतना प्रेम था कि उनमें वह अपने नौ बुजुर्गो की
झलक देखते थे । वह समझते थे कि जब तक फूफी ज़िंदा है तब तक उनके परिवार के एक नहीं
नौ बुज़ुर्ग ज़िंदा है | उनकी मृत्यु पर
उन्होंने एक दोस्त को लिखा था – “भाई साहब ! मैं भी तुम्हारा हमदर्द हो गया, यानि मंगल के दिन
शाम के वक़्त वो फूफी, जिसको बचपन से आज तक मैंने मां समझा था और वह भी मुझे बेटा
समझती थी मर गई । आपको मालूम रहे कि परसो मेरे गोया नौ आदमी मरे – तीन फूफिया, तीन चाचा, एक बाप, एक दादा और एक
दादी यानि मरहूमा (स्वर्गिया) के होने से मैं जानता था कि ये नौ आदमी ज़िंदा है और
उसके मरने से मैंने जाना कि ये नौ आदमी आज एक बार फिर मर गए।“
ग़ालिब के पिता का नाम मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग था । उनकी
शादी आगरे में ख्वाजा मिर्ज़ा गुलाब हुसैन खां कमिदान की बेटी से हुई । गालिब आगरे
में ही १७९७ में पैदा हुए और यही उनके बचपन का जमाना गुजरा। वह लिखते है – “हमारी
बड़ी हवेली वह है, जो अब लखमीचंद
सेठ ने मोल ली है। इसी के दरवाज़े की संगीन बारहदरी पर मेरी निशस्त (बैठक) थी और
पास इसके एक खटिया वाली हवेली और सलिमशाह के तकिए के पास दूसरी हवेली और काले महल
से लगी हुई एक और हवेली और इससे आगे बढ़कर एक कटरा जो गडरियों वाला मशहूर था और एक
कटरा जो कश्मीरन वाला कहलाता था। इस कटरे के एक कोठे पर मैं पतंग उड़ाता था और
राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ाया करते थे ।“ यह राजा बलवान सिंह बनारस के राजा
चेतसिंह के सुपुत्र थे, जिनका राज्य वारेन हेस्टिंग्स ने बड़े अन्याय से खत्म कर
दिया था ।
ग़ालिब अभी छोटे ही थे उनके पिता मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खा
का देहांत हो गया । उनके चाचा मिर्ज़ा
नसरुल्ला बेग खा ने उनका पालन पोषण किया। मिर्ज़ा ग़ालिब केवल आठ ही बरस के
थे, जब उनके चाचा का
भी देहांत हो गया । लोहारू के नवाब अहमदबख्श खा को गालिब के चाचा मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग
खा के देहांत का बहुत दुख हुआ और उनके छोटे छोटे बच्चो पर बहुत रहम आया जो बिल्कुल
बेसहारा रह गए थे । उन्होंने लार्ड लेक से सिफारिश की और वहां से पेंशन का इंतजाम
हो गया । वह पेंशन मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खा के संबंधियों के लिए थी । पांच हजार
रुपए वार्षिक पेंशन में से मिर्ज़ा ग़ालिब का हिस्सा केवल ७५० रूपए सालाना था ।
वैसे उस ज़माने के हिसाब से यह अच्छी खासी रकम थी ।
मिर्ज़ा ने आगरा के मौलवी मुहम्मद मुअज्जम और एक ईरानी
मल्ला अब्दुरसमद से फारसी पढ़ी, परंतु उन उस्तादों से ज्यादा जिस चीज ने गालिब
पर असर किया वह उनका वातावरण था । मिर्ज़ा का बचपन आगरा के जिस मुहल्ले में गुज़रा, वह गुलाबखाना
कहलाता था ।उस ज़माने में वह गोया फारसी ज़बान का केंद्र था ।
बाप और चाचा के साए सिर से उठ जाने के बाद गालिब नौजवानी की
रंगरेलियों में मस्त हो गए । सिर पर कोई था नहीं जो उन्हें रोकता । अपनी नई
रंगरेलियों की तरफ उन्होंने कई लेखो में इशारे किए है । तेरह बरस की उम्र में
गालिब की शादी नवाब अहमदबख्श खा के छोटे भाई इलाहीबख्श खा (मारुफ़) की ११ साल की
सुपुत्री उमराव बेगम से हो गई । उन दिनों शादियां छोटी उम्र में ही हो जाया करती
थी। शादी के २-३ साल पश्चात स्थाई रूप से वह दिल्ली में रहने लगे। अपनी शादी के
बारे में एक जगह गालिब ने लिखा कि “एक बेड़ी (बीवी) मेरे पांव में डाल दी गई और
दिल्ली शहर को कारगार मुकर्रर किया गया ।“
ग़ालिब जब तक आगरा में रहे, उन्हें खर्च की
कोई तंगी नहीं हुई बल्कि सच तो यह है कि रुपए पैसे की बहुतायत ही थी । दिल्ली में
जब वह आए तो वह ७५० रूपए की पेंशन उनकी जान का रोग बन गई । कभी बंद हो गई और कभी
मिलने लगी । उस पेंशन से गालिब का गुज़ारा भी मुश्किल से होता था । ग़ालिब यह भी
समझते थे कि पेंशन नियत करने के बारे में उनके साथ न्याय नहीं हुआ । न्याय हासिल
करने के लिए उन्होंने कलकत्ता के सफर की ठानी। वह कलकत्ता पहुंचे । उस ज़माने में
रेलगाड़ी तो थी नहीं । ज्यादातर सफर घोड़े पर हुआ। बीच में कहीं-कहीं घोड़ागाड़ी और
नाव से भी सफर किया गया । कलकत्ता पहुंचकर उन्हें सफलता नहीं मिली । वहां के
साहित्यिक लोगो से झगड़े ज़रूर मोल ले लिए ।उनमें से मिर्ज़ा क़तील और उनके
शिष्यों से उनके झगड़े बहुत मशहूर है ।
ग़ालिब की पेंशन का मुकदमा करीब १६ साल तक चलता रहा । इस पर
उनका हजारों रुपया पानी की तरह
बह गया जिसका बड़ा हिस्सा उन्होंने महाजनों से बयाज पर कर्ज़
लिया था । बदकिस्मती से मुकदमे का फैसला उनके खिलाफ हो गया और उनकी बाकी उम्र इस
कर्ज़ को चुकाने में कट गई ।
ग़ालिब बड़े स्वाभिमानी थे । एक बार मिर्ज़ा ग़ालिब को
दिल्ली कॉलेज में फारसी के मुख्याध्यापक का पद पेश किया गया, परंतु उन्होंने
अपने स्वाभिमान के कारण उसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया । प्रांत के लेफ्टिनेंट
गवर्नर मि.टॉमसन कॉलेज को देखने के लिए आए तो उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब को बुलावा
भेजा। अगले दिन वह पालकी पर सवार होकर बंगले पहुंचे और दरवाजे पर खड़े होकर लगे
इंतज़ार करने कि अभी कोई साहब स्वागत को आते है। जब किसी ने आकर उनसे कहा कि हज़रत
तशरीफ लाईए, तो कहा कि साहब, कोई लेने को आए
तो उतरू।
यह सुनकर मित्र टॉमसन स्वयं बाहर निकल आए और कहने लगे – “चुकीं
आप रस्मी मुलाकात के लिए नहीं बल्कि नौकरी के लिए आए हैं, इसीलिए कोई
पेशवाई को कैसे हाजिर होता ।“
मिर्ज़ा बोले – “नौकरी इसीलिए करना चाहता हूं कि इससे मेरा
सम्मान बढ़े, न कि जो पहले से
हैं उसमें कमी आ जाए ।“
इतना कहकर मिर्ज़ा ने पालकी के कहारो को हुक्म दिया कि वापस
चलो ।
मिर्ज़ा ग़ालिब ४ जुलाई १८५० को बादशाह ज़फ़र के दरबार में
पेश हुए। बादशाह ने नजमुद्दोला दबीरुलमुल्क निजाम जंग कहकर खिताब दिया । ५० रुपए
माहवार वेतन मुकर्रर हुआ । ग़ालिब की जरूरतों के सामने इन ५० रूपयो की हस्ती ही
क्या थी। इस पर वे भी मिले ६-६ महीने में। पहली छमाही तो उन्होंने ज्यो-त्यों
काटी। लेकिन जनवरी १८५१ में उन्होंने यह दरख्वास्त पेश की :
आप का बंदा और फिरू नंगा
आपका नौकर और खाउ
उधार,
मेरी तनख्वाह किजै
माह-ब-माह
तो न हो मुझको
ज़िन्दगी दुशवार |
तुम सलामत रहो हजार
बरस
हर बरस के हो दिन
पचास हजार |
सन् १८५७ के स्वाधीनता संग्राम के बाद किले कि यह मुलाजमत
भी जाती रही । रामपुर के नवाब युसुफ अली खां मिर्ज़ा गालिब के प्रसिद्ध शिष्यों
में से थे । उन्होंने १८५९ में मिर्ज़ा की १०० रुपए महीना तनख्वाह नियत कर दी थी ।
इस पर भी उनकी आर्थिक परेशानियां खत्म नहीं हुई और वह हमेशा अपनी तंगदस्ती का रोना
रोते रहे । शराब नियमित रूप से पीते थे और इसी कारण सिर पर कर्ज़ भी बहुत रहता था
। आखरी उम्र में स्वास्थ खराब रहने लगा । आमदनी कम और खर्च ज्यादा । इन्हीं
परेशानियों का ज़िक्र अपने एक पत्र में करते हैं – “इस महीने बहत्तरावा वर्ष शुरू
हुआ है ।गिजा, सुबह को सात
बादाम का शीरा कंद के शर्बत के साथ, दोपहर को सेर भर
गोश्त का गाढ़ा पानी, करीब शाम को कभी-कभी
तीन तले हुए कबाब, छह घड़ी रात गए पांच रुपए
भर शराबे खाना साज और उसी कदर अर्केशीर । कमजोरी इतनी की उठ नहीं सकता और अगर
दोनों हाथ टेककर चरपाया बनकर उठता हूं तो पिंडलियां कापती है ।….१६० रुपए की
आमदनी और ३०० रुपए का खर्च। हर महीने १४० रुपए का घाटा । कहो, ज़िन्दगी
दुश्वार है या नहीं ?”
१५ फरवरी १८६९ को दोपहर ढले मिर्ज़ा ग़ालिब की मृत्यु हो गई
। जिसने एक तरफ इस देश में फारसी के साहित्य को बड़े ऊंचे शिखर पर पहुंचा दिया, दूसरी तरफ उर्दू
के गद्य और पद्य को पुरानी परपंरा की जंजीरों से आजाद करके एक नए रंग की बुनियाद
डाली। उनका अनुकरण तो बहुतों ने किया, मगर सफलता किसी
को नसीब नहीं हुई ।
मिर्ज़ा के अपने सात बच्चे पैदा हुए, लड़के भी और
लड़कियां भी, मगर कोई पंद्रह महीनों
से ज्यादा नहीं जीया। अपने स्त्री के भांजे मिर्ज़ा आरिफ़ को अपना बेटा बनाया परंतु
वह भी १८५२ में गालिब के सामने ही चल बसा ।
मिर्ज़ा खुद रईस बाप के बेटे थे । रईसों से रिश्तेदारी और
याराना था । बादशाहों और नवाबों के उस्ताद थे । इसीलिए रख-रखाव की आदत इनका स्वभाव
बन गई थी । वह घर पर दिल्ली के बड़े लोगो की तरह पाजामा और खुली आस्तीन का कुर्ता
या अंगरखा पहनते थे। सिर पर आमतौर पर मखमल की खुली हल्की टोपी होती जिस पर कामदानी
या कसीदे का काम होता था । जाड़ों में सर्दी से बचने के लिए किसी गरम कपड़े का
कलीदार पाजामा और मिरजई पहनते थे । बाहर निकलते तो तंग मोहरी का आड़ा पाजामा, कुर्ता और उस पर
सदरी। ऊपर किसी भारी और कीमती कपड़े का चोगा और उस पर एक जामा। पांवों में घेतलि
जूती और हाथ में मुठदार लंबी लकड़ी जिस पर उनका नाम असदुल्ला अल गालिब खुदा था ।
उनका हुलिया यह था – “चौड़ा चकला हाड़, लंबा कद, सुडोल इकहरा
जिस्म, भरे-भरे हाथ पांव, किताबी चेहरा, खड़ा नक्शा, चौड़ी पेशानी, नाक की काठी
ऊंची, गाल की हड्डी उभरी हुई, घनी लंबी पलके
और बड़ी-बड़ी बादामी आंखे, कान बड़े, सुर्ख सफेद रंग, जवानी में दाढ़ी
मुंडाते थे। जब दाढ़ी मुछ में सफेद बाल आ गए तो दाढ़ी मुंडाना छोड़ दिया ।
उन्होंने अपने दोस्तो शागिर्दों और संबंधियों को जो अमूल्य
पत्र गद्य में लिखे हैं, उनके संग्रह ‘उर्दू ए मुअल्ला‘ , ‘उदे हिंदी‘ और ‘मकातीबे गालिब‘ के नाम से छप
चुके है। उनकी उर्दू कविताओं का संग्रह “दीवान-ए-गालिब” के नाम से
सर्वविख्यात है । हास्य रस उनकी घुट्टी में पड़ा था । उनकी कोई बात लतीफे और
चुटकुले से खाली नहीं होती थी । उनके शागिर्दों में हर मजहब के लोग शामिल थे । जिनमें
मौलाना हाली बहादुर शाह जफर भी थे। गालिब की कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि
उन्होंने पुराने डगर को छोड़कर नये रास्ते को ग्रहण किया। उनकी गजलें अब भी लोगों
को जबानी याद हैं। उनमें मनोवैज्ञानिक आदमी की मानसिक वृत्तियों का उतार चढ़ाव, ईश्वर और प्रेमिका से छेड़छाड़ और हास्य रस के
अमूल्य उदाहरण मिलते हैं।